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जनविद्या
जइ प्रायहि रुबई मयणसरुवई महो पिउ होहइ विमणमणु । ता कलहु करेविणु मई मेल्लेविण णिच्छउ माणइ एह पुण। 1.16
ताव ताए रोसियाई, दोस देवि घल्लियाई । दुक्खएण जंतियाए, भूयथाणु दिठ्ठ ताए ।
देहहो अवसारणई भीममसागई तहिं तहे जायउ पुत्तु वरु। 1.17 इस कौशल की दुहाई से कौन मुकर सकता है ? स्नेह-रज्जु से विजड़ित कोमल दल विपत्ति की ऊष्मा में भी हरा-भरा बना रहता है। हाँ, यह ताप तप की साधना का मार्ग अवश्य खोल देता है।
एक रससिक्त 'पत्नी अपहरण' सम्बन्धी अभिप्राय का संदर्भ तब उपस्थित होता है जब एक वन्यगज राजा की सेना पर टूट पड़ता है और जब राजा उस अप्रतिहत हाथी के साथ द्वन्द्व में उतरता है, तब वह विलुप्त हो जाता है। सीताहरण अभिप्राय का तेवर भी यही है। यती राक्षसराज के रूप में बदल जाता है।
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जा अच्छइ तीरे सरोवरास, सेण्णाहिं गंधु ता गयउ तासु । उच्चाइवि करयलु सिर धुणेवि, अवलोइय करिणा मुहु वलेवि । सा पेक्खिवि सो करिवर विरुद्ध, उद्धाविउ करि मयगंषलुषु । करु दसणे करतउ गुलुगुलंतु, पयभारें मेइणि णिदलंतु । तो पाइउ परवइ करकिवाणु, पडिखलियउ वारणु जुममाणु । करणाइ देवि किर हणइ जाम, अइंसणु वारणु हुयउ ताम । प्रदंसरणे हूयएं करिवरई णिरियणयण सो तक्खणिण । पेक्खंतह णासिवि करि गय उ थिउ विभिउ परवइ णियमणिण। 5.14
एक विस्मय यह है और दूसरा विस्मय आवास पर घटित होता है। राजा दोनों के तनाव के बीच दुःखाम्बुधि में डूब जाता है। सारी वर्णन-योजना नाटकीय है-बदलते दृश्यों की अवली।
प्रावासहो पावइ जाव राउ, मयणावलि उ पेच्छइ वि ताउ । जोइयइ चउद्दिस हिययहीणु, उव्वेविरु हिंडइ महिहे दीण । 5.15
'तुलसी' के राम के सदृश करकंडु को भी सारी प्रकृति चेतन प्रतीत होने लगी। राजा शास्त्रीय नखशिख वर्णन की परम्परा से सप्राण लाक्षणिक व्याजनिन्दा में पुकार मचाने लगता है
जोएवि विसिहि प्रागय वलेवि, पुक्कारहिं उम्भा कर करेवि । ता राएं देक्खिवि ते रुवंत, परिमुक्क अंसु पयहिं तुरंत ।