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________________ जनविद्या सप्त-व्यसनों और पंचोदम्बरों के त्याग में सम्पृक्त हुई और कभी मूलगुणों व उत्तरगुणों के पालन करने से उसका सम्बन्ध रहा । समन्तभद्र, हरिभद्र, हेमचन्द्र, प्राशाधर आदि विद्वानों ने सामाजिक आवश्यकता के अनुसार उसकी परिभाषा का निर्धारण किया । मुनि कनकामर ने इन सभी परिभाषानों को एक साथ समेट लिया और सम्यग्दर्शन के स्वरूप के बहाने यह कह दिया कि श्रावक वही है जो सप्त-तत्त्वों में श्रद्धान करे, पंचोदम्बरों तथा सप्त-व्यसनों का त्याग करे (7.23)। ___ मुनि कनकामर ने करकण्डचरिउ में पूजा, उपवास और सम्यक् तपस्या पर बल दिया है । अमितवेगवाले कथानक में हाथी तेरापुर में पार्श्वनाथ भगवान की पूजा करता है और उसके प्रभाव से वह मरणोपरान्त स्वर्ग प्राप्त करता है (5.12) । धनदत्त के जीव ने भक्तिपूर्वक एक पुष्प से जिनेन्द्र भगवान की पूजा की थी जिसके फल से वह चम्पाधिराज करकण्डु हुा । पूजा करने के पूर्व साधक को विशुद्ध होना आवश्यक है। चूंकि धनदत्त ने कीचड़ से लिप्त हाथों से ही भगवान् की पूजा की थी इसीलिए उसके हाथपैर में खुजली (कण्डु) के दाग थे (10.5)। लगता है, करकण्डचरिउ की रचना का उद्देश्य पंचकल्याणक विधान का फल प्रदर्शित करना रहा है । ग्रन्थ के अंत में कहा है कि इस विधान से साधक बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण जैसे धर्मशील व्यक्तित्व को पा जाता है, केवलज्ञानी बन सकता है । इस प्रकार करकण्डचरिउ मुनि कनकामर की एक ऐसी अनुपम कृति है जिसमें दशम शताब्दी के जैन धर्म और संस्कृति का स्वरूप प्रतिबिम्बित होता हुआ दिखाई देता है । वस्तुतः इसको तीर्थकर पार्श्वनाथ या उनके पूर्व का सिद्ध करना ऐतिहासिक तथ्यसंगत नहीं लगता। ऐसा लगता है, यह एक लोककथा रही होगी जिसका उपयोग जैन-बौद्ध-वैदिक चिन्तकों ने अपनी परम्परा के अनुसार परिवर्तित करके सांस्कृतिक समृद्धि का साधन बनाया है ।
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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