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जनविद्या
रखा गया । करकण्डु पहले एक आदर्श राजा के रूप में जीवन व्यतीत करते हैं जहां अनेक प्रकार की आश्चर्यजनक और सामान्यतया अविश्वसनीय कथाएँ बीच-बीच में आई हैं । करकंडचरिउ की पाठ सन्धियां उनके इसी प्रकार के चरित्र से सम्बद्ध हैं जिनमें जन्म-जन्मान्तर की विविध कथानों को आश्रय मिला है। अध्यात्मचेतना से सम्बद्ध मूल बातें इस काव्य की नवीं सन्धि में मिलती हैं जहां करकण्डु के राज्य के प्रधान नगर चम्पानगर के बाहर उद्यान में शीलगुप्त नाम के जैन मुनि का आगमन होता है जिसे सुनकर नरेश्वर करकण्डु उनके दर्शन के लिए उद्यान में जाना चाहते हैं । यहां से उनके अध्यात्म-जीवन का प्रारम्भ होता है ।
महान् पुरुषों का विशेष प्रकार के व्रत, उपवास और तपस्या के विधानों के पालन से अलौकिक तेज से जुड़ जाना असम्भव बात नहीं है । शीलगुप्त के सम्बन्ध में भी उद्यान का अधिपति ऐसी ही बात कहता है-'जिनके दर्शन से सिंह भी उपशान्त हो जाता है और हाथी के मस्तक का आग्रह नहीं करता, जिनके दर्शन से परस्पर वैर धारण करनेवाले प्राणी भी अपने मन में मार्दव भाव ले लेते हैं, जिनके दर्शन से कोई अणुव्रत ले लेते हैं और जिनेन्द्र को छोड़कर अन्य किसी में मन नहीं देते, कोई गुणव्रत ग्रहण कर लेते हैं और पुनः अन्य शिक्षाव्रत लेते हैं । यह उनके सम्यक्त्व प्राप्ति की सूचना देनेवाला वर्णन तो है ही साथ ही एक पूर्ण उपदेशक की भूमिका से भी प्रोत-प्रोत है। राजा करकण्डु उनके इस शील से निश्चित रूप से प्रभावित होता है और उनके दर्शन की लालसा हृदय में संजोकर चल पड़ता है।
प्रात्मकल्याण की भावना जीवमात्र का सहज स्वभाव है क्योंकि भवान्तर में घूमता हुआ वह विविध योनियों में होता हुमा भी इस एक वासना से कभी मुक्त नहीं होता कि उसे सुख और शान्ति मिलनी चाहिए । अनादिकाल से अन्वेषण का चलनेवाला यह क्रम जब कालशक्ति द्वारा परिपक्वता प्राप्त करता है तो उचित अवसर पर उसे उन महान् पुरुषों से जुड़ने . का सौभाग्य मिलता है जो ऐसे पथ का दिग्दर्शन कराने में समर्थ होते हैं । यह बात जैन, बौद्ध, सौगतिक, सौत्रान्तिक, शैव, शाक्त और वैष्णव आदि सभी धर्मों में देखने को मिलती है । जैन धर्म की विशेष भावना से प्राप्लुत करकण्डचरिउ में भी ऐसे ही पथ का अनुसरण किया गया है । शीलगुप्त के प्रागमन की बात जानकर नरेश्वर करकंडु का उस दिशा में प्रस्थान इस बात का द्योतक है कि आत्यन्तिक सुख और शान्ति के लिए उनकी प्रात्मा प्राकुल है और उनकी चेतना ऐसे पथ की ओर अग्रसर होने के लिए प्रस्तुतप्राय है। इसीलिए उद्यान के अधिपति द्वारा शीलगुप्त के आगमन की सूचना मिलने पर राजा ने तत्काल सिंहासन छोड़ दिया और मुनिवर के चरणों का स्मरण करते हुए सात पग आगे बढ़ा । उन क्षणों में वह अकेला नहीं था। अपने ही समान लालसावाले, नगर के बहुत से लोगों को उसने साथ ले लिया । यह बात केवल अपने मुक्त होने के लिए नहीं अपितु अपने साथ अन्य बहुत से लोगों के मुक्त होने की कल्याणभावना से युक्त होने का प्रमाण है ।
अध्यात्म-पथ का अनुसरण करनेवाले ऐसे महापुरुषों को वैराग्य की उत्कट भावना के माध्यम से गुजरने दिया जाना आवश्यक समझा जाता है। नरेश्वर करकण्डु के सामने भी शोकव्याकुल स्त्री का उन क्षणों में सामने आना, संसार के दुःखद प्रसंग को उनके नेत्रों के