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जनविद्या
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स्थिति बदलती है, पद हटता है, पुरुष रह जाता है और पुनः प्रतिष्ठित होता है, यह मानव जीवन की ही विशेषता है ।
गुण-कर्म-विशिष्ट व्यक्तित्व के लयात्मक प्रभाव से संबंधित अभिप्राय तब देखने को मिलता है जब पद्मावती एक सूखे निर्जन वन में पहुंचती है और वह लहक के साथ हरा-भरा हो जाता है । राम के पदार्पण से दण्डकवन फूल उठता है । सारा संभार रभस और विस्मय से भरा-पूरा है
अइदुक्खु वहंती णियमणम्मि, सरु मुएवि महासइ गय वरणम्मि । ता विठ्ठउ उववण ढंखरुक्खु, मयरहियउ पोरसु गाईमुक्खु । तहिं रुक्खहो तले वीससइ जाम, गंदणवणु फुल्लिउ फलिउ ताम । पप्फुल्लिय-चंपय बउल चूय, लयमंडव सयल वि हरिय हूय । अण्णण्णहि समयहिं फलहिं जे वि, फलभारई तरुवर एमिय ते वि। भमरावलि परिमलगंधलुद्ध, गं वरणसिरि गायइ सर विसुद्ध । किं वम्महु प्रायउ तहिं वण्णसि, तं सुंदर भावइ महो मण्णमि। 1.14
मानवेतर प्राणियों से संबंधित अभिप्राय
मानवेतर प्राणियों में शुक, अश्व, हाथी आदि से संबंधित अभिप्राय ही अधिक मिलते हैं । 'कउ' का शुक संबंधी अभिप्राय परिघटना स्वरूप का है और 'समाधि' प्रलंकार का काम करता है । 'पृथ्वीराजरासो' और 'पद्मावत' के शुकसंबंधी अभिप्राय भी परिघटनात्मक हैं। 'कउ' के इस अभिप्राययुक्त प्रकरण का सारांश इस प्रकार है-'एक खेचर शुक योनि में उत्पन्न हुआ । उसने ग्वाले को धन कमाने के लिए उसे बेचने की युक्ति बताई। शुक ने मार्ग में अपना बुद्धि प्रकर्ष दिखलाया-एक कुट्टिनी स्वप्न की घटना के लिए एक सेठ से द्रव्य का प्राग्रह कर रही थी। शुक ने द्रव्य के प्रतिबिंब को आगे कर झगड़े को निबटा दिया और राजद्वार पर जाकर राजा को पैर उठाकर आशीर्वाद दिया और अपनी कपट-कहानी सुनाई कि वह एक भील को चकमा देकर यहां आ गया है । उसने राजा के साथ समुद्र यात्रा की और जलयान के मंग हो जाने पर बिखरे लोगों को मिला दिया । आत्मा किसी भी योनि में अवतरित हो, अपना चमत्कार दिखाती ही है--
खेयर हयउ कोरो, पव्वयमत्ययषीरो। तुहुँ गोवाल लएवि मई हि तुरंतउ पुरवरहो । कंचरणपंचसएहिं फड़ जाएवि देहि गरेसरहो ॥
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सुएणावि जुत्तो, पुरं झत्ति पत्तो। भरणीमो बलाएं, गिरा कोमलाएँ।