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करकंडचरिउ की कथा में लोकतात्त्विक जड़ाव-जुड़ाव
-डॉ० (प्रो.) छोटेलाल शर्मा
'करकंडचरिउ' (कउ) में उच्च कथा के कथारस का विन्यास है, किस्सागोई का अद्भुत विधान है और लोकजन्य अति प्राकृत तत्त्वों का बेजोड़ जड़ाव-जुड़ाव । बारीक इतना कि रूपरेखा में बुजुर्ग तकनीक का आभास हो और भीतर सर्वहारा सारसिक्त । रचनाकार की रचना-प्रक्रिया पर भी आँख है और परिणाम भी आँख-पोझल नहीं है। लोक और कला का ऐसा सुयोग-संयोग कम सुलभ होता है । कलात्मक मनोविज्ञान और दर्शन कहीं भी विरल नहीं हैं। दर्शन मूलतः विचारों के रूप में अभिव्यक्त युग होता है और कला, भावनाओं, अनुभूतियों के रूप में साकार बना युग । 'कउ' की कथा में न वैश्विकता छूटी है और न विशेष का ही रंग फीका है, साथ ही लोक प्रतिदृश्य भी चटक है और कला प्रतिदर्श भी। कला मनोभावों को संतुलित ही नहीं करती है, मूल्यपरक दृढ़ता भी प्रदान करती है, तभी वह संकेत विज्ञान, तंत्रसंरचना और संवेगात्मक विश्लेषण के परे जाकर उभरती-उमड़ती है। 'रस्किन' ने इस मोर ठीक ही अंगुलिनिर्देश किया है-'विज्ञान वस्तुओं के परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन करता है, जबकि कला उनके मनुष्य से संबंध का अध्ययन करती है। जो कुछ भी उसके अधीन है, उसके सामने वह मात्र सवाल उठाती है और उग्ररूप में उठाती है; वह जानना चाहती है कि मनुष्य की आँखों और मन द्वारा प्रतिबोधित कोई वस्तु क्या है और इससे क्या घट सकता है । कला इस जगत् को वैसे नहीं देखती जैसा वह वास्तव में है, अपितु जैसा मनुष्य उसे देखता है