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________________ जैनविद्या भी उत्साही, दृढ़प्रतिज्ञ, पराक्रमी, दयालु, स्वाभिमानी वृत्ति का क्षत्रिय कुलोद्भव वीर पुरुष है। वस्तुवर्णन की दृष्टि से भी दोनों प्रबन्धकाव्यों की तुलना करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि जायसी ने अपभ्रंश-काव्यों का सूक्ष्म अध्ययन किया था। अपभ्रंशकाव्यों में नगर, देश, वन, उद्यान, गढ़, पर्वत, सरिता, सरोवर, हाट, अश्व, गज, आयुध, सिंहासन, अन्तःपुर आदि का वर्णन यथास्थान सरस और आलंकारिक शैली में मिलता है । पद्मावत में भी जायसी ने इन शीर्षकों का उपयोग कथाप्रवाह को प्रभविष्णु बनाने के लिए बड़े आकर्षक ढंग से किया है । जायसी की काव्यप्रतिभा निःसन्देह मुनि कनकामर से अधिक निखरी लगती है । यह शायद इसलिए भी हो कि करकण्डचरिउ का फलक छोटा और सीमित रहा है जबकि जायसी की कथा काफी व्यापकता लिये हुए है । वस्तुवर्णन के ये सारे प्रसंग प्रस्तुत निबन्ध में सीमा की दृष्टि से अनपेक्ष हो जावेंगे इसलिए उनको सोद्धरण प्रस्तुत करना यहां सम्भव नहीं है । हाँ, उनके शीर्षकों पर अवश्य दृष्टिपात कर सकते हैं उदाहरणार्थ करकण्डचरिउ का वस्तु-वर्णन देखिए-अंगदेश (1.3), चम्पा (1.4), उपवन (1.14), श्मशान (1.17), युद्ध (3.15-19), सरोवर (4.7), पर्वत (5.1), गज (5.14), शकुन (7.1-2), शासनदेवी का अवतार (7.3), सिंहलद्वीप (7.5), समुद्रयात्रा (7.8), विलाप (7.11), शुक (8.6-8), अश्व (8.2), स्वप्न (1.8, 8.5), दोहद (1.10), शाप (2.4, 6.12). चित्रपट (3.7, 6.15) आदि । इसी तरह पद्मावत के वस्तुवर्णन में कतिपय तत्त्वों को प्रस्तुत संदर्भ में इस प्रकार खोजा जा सकता है-सिंहल द्वीप (दूसरा खण्ड), हार (37), अन्तःपुर (49), मानसरोबर (चतुर्थ खण्ड), जलक्रीड़ा (63), पक्षी (72), युद्ध-देवपाल (46), गोराबादल (52वां खंड), बादशाह युद्ध (43वां खण्ड) आदि । पद्मावत की यह विशेषता उदाहरणीय है कि जायसी ने वस्तुवर्णन और वस्तुसंगठन अपेक्षाकृत काफी विस्तार से किया है इसलिए उनके हर चित्रण में जो सघनता और सुन्दरता दिखाई देती है वह करकण्डचरिउ में नहीं । इसका एक कारण यह भी रहा है कि जायसी रहस्यवादी कवियों में अन्यतम गिने जाते हैं । रहस्य की चरम सीमा को प्राप्त करने के लिए जिस मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है उसमें असहनीय बाधाएं, विरह, प्रेम प्रादि का सामना साधक को करना पड़ता है । जायसी ने उन सबका चित्रण बड़ी तल्लीनता के साथ किया है। इसमें 17 संवादों की योजना की गयी है जिसने ग्रन्थ का लगभग आधा भाग समाहित कर लिया है। इसी दौरान रूपवर्णन के प्रसंग में रूपसौन्दर्य के पारम्परिक उपमानों की एक लम्बी श्रृंखला जोड़ दी गयी है जिसमें अतिशयोक्ति की झलक भी स्वाभाविक है। ___इसके विपरीत करकण्डचरिउ का फलक सीमित और लघु होने के कारण कनकामर वस्तुवर्णन और वस्तु संगठन के विभिन्न आयामों पर आसन नहीं जमा पाये । उनके उपमान भी अपेक्षाकृत संख्या में कम पड़ गये । यहां भी संवाद-योजना ने कथा-प्रवाह में अच्छा योगदान दिया है । देव और गोप संवाद (10.3-4), करकण्डु और शीलगुप्त मुनि संवाद (9वीं सन्धि), शुक और रत्नमाला संवाद (8), शुक और रतिवेगा संवाद, पद्मावती और रतिवेगा
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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