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प्रास्ताविक
जनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी की शोध-पत्रिका 'जनविद्या' का यह आठवां अंक 'कनकामर विशेषांक' अपभ्रंश भाषा के पाठकों व अध्ययनकर्ताओं को समर्पित है । मुनिश्री कनकामर एक निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु थे । कई भाषाओं के अलावा वे अपभ्रंश भाषा के भी विद्वान् एवं कवि थे । इन्होंने अपभ्रंश भाषा में एक खण्डकाव्य 'करकंडचरिउ' (करकण्डुचरित्र) की रचना वि. सं. 1050 के लगभग की है । करकण्डुकथा जैन साहित्य में तो प्रसिद्ध है ही, इसका वर्णन बौद्ध साहित्य में भी प्राप्त होता है परन्तु इन दोनों कथानकों में कई बिन्दुओं पर काफी अन्तर है । करकण्डुकथा इतनी प्रसिद्ध हुई कि मुनि कनकामर ने तो विक्रम की 11वीं शताब्दी में इस पर 'करकंडचरिउ' काव्य की रचना की ही, इसकी वर्तमान में उपलब्ध अधिकांश हस्तलिखित प्रतियां 16वीं-17वीं शताब्दी में लिखी गईं जो अपभ्रंश के विकास का उत्तर-मध्यकाल माना जाता है । ग्रन्थ की करीब 14-15 हस्तलिखित प्रतियां मुख्यतः अामेर शास्त्र भण्डार जयपुर (वर्तमान में जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी शास्त्र भण्डार), दिगम्बर जैन नया मन्दिर दिल्ली, सरस्वती भवन, नागौर, सरस्वती भवन, ब्यावर, दिगम्बर जैन तेरहपंथी बड़ा मन्दिर, जयपुर में उपलब्ध हैं।
__मुनिश्री कनकामर के स्वयं के कथनानुसार ज्ञात होता है कि वे शास्त्ररूपी जल के समुद्र प्राचार्य सिद्धसेन, प्राचार्य समन्तभद्र, प्राचार्य अकलंकदेव, जयदेव, विशालचित्त स्वयंभू, तथा वागेश्वरीगृह श्री पुष्पदंत आदि के अत्यन्त प्रशंसक थे एवं उनके तत्काल गुरु पं. मंगलदेव थे। इन व्यक्तियों की भक्ति एवं स्मरण मात्र से ही जो कुछ उन्हें प्राप्त हुआ उसी के फलस्वरूप वे इस ग्रन्थ करकंडचरिउ की रचना कर सके, यद्यपि उनके कथनानुसार वे न तो व्याकरण जानते थे और न छन्दशास्त्र । वास्तव में इस प्रकार मुनिजी ने अपने गुरुओं के प्रति अपनी विनयांजलि अर्पित की है । वे ब्राह्मण वंश के चन्द्रऋषि गोत्र में उत्पन्न हुए थे और वैराग्य धारणकर दिगम्बर मुनि बन गये थे। उनका नाम मुनि कनकामर प्रसिद्ध हो गया था। जन्मस्थान, बाल्यावस्था व गृहस्थावस्था का उनका नाम व जन्मकाल अज्ञात ही है । मुनि अवस्था में घूमते-घूमते वे एक 'प्रासाइउ' नाम की नगरी में पहुंचे। वहाँ एक धर्मप्रेमी सज्जन के द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर मुनिजी ने इस ग्रन्थ की रचना की। ये सज्जन बड़े योग्य, व्यवहार