Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनवरी, 1990 अपभ्रंश भारती स्वयंभू विशेषांक ब णाणुज्जीवो जोवो जैन विद्या संस्थान श्री महावीर जी अपभ्रंश साहित्य अकादमी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी राजस्थान 1 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती पद्धवार्षिक शोध-पत्रिका जनवरी, 1990 सम्पादक श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका डॉ. कमलचन्द सोगाणी डॉ. छोटेलाल शर्मा प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी मुद्रक जर्नल प्रेस जयपुर-302001 वार्षिक मूल्य चालीस रुपये मात्र Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची क्र.सं. विषय लेखक पृ. सं. सम्पादकीय प्रकाशकीय डॉ. त्रिलोकीनाथ प्रेमी अपभ्रंश के प्रादि कवि स्वयंभू जगत में जीव अकेला महाकवि स्वयंभू डॉ. कैलाशनाथ टण्डन महाकवि स्वयंभूदेव की भाषा में प्रयुक्त स्वर-ध्वनियों का विवेचन जरा न जरी कारक-विधान महाकवि स्वयंभू डॉ. रामबरन पाठक सुश्री प्रीति जैन 'पउमचरिउ' पर आधारित संधि-विधान स्वयंभू और पक्ष-विचार ___एउ ण जाणहो एक्कु पर डॉ. छोटेलाल शर्मा महाकवि स्वयंभू डॉ. कमलचन्द सोगाणी पउमचरिउ का एक प्रसंग व्याकरणिक विश्लेषण स्वयंभू-भाषा-शब्द-सम्पदा सीलु जे मण्डणउ पउमचरिउ के काव्यचित्र प्रो. कैलाशचन्द्र भाटिया महाकवि स्वयंभू डॉ. सुषमा शर्मा डॉ. जे. एस. कुसुमगीता महाकवि स्वयंभू डॉ. कमलचन्द सोगारणी पउमचरिउ में बिंब विश्वास करो अपभ्रंश रचना सौरभ सहयोगी लेखक Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना अपभ्रंश भाषा और साहित्य के स्वतन्त्र श्रध्ययन-अध्यापन के विशेष उद्देश्य को लेकर हुई है । प्रपभ्रंश भाषा एक सशक्त जनभाषा रही है जिसे 'देशी भाषा' के नाम से जाना जाता था । कालान्तर में इसे 'अवहट्ट, अपभ्रंश' आदि नाम दिये गये । धीरे-धीरे इस जनभाषा में साहित्य का निर्माण भी होने लगा । अपभ्रंश भाषा में साहित्य की सभी विधात्रों में रचनाएं की जाने लगी । समूचे राष्ट्र में इस 'जनबोली' में साहित्य रचा गया। कश्मीर के शैवग्रंथ अपभ्रंश में हैं। कामरूप, बिहार, उड़ीसा के सिद्धों की Maraयों की भाषा अपभ्रंश है। गोरखनाथ के वचन इसी भाषा में है। प्रांध्र में पुष्पदन्त ने, कर्नाटक में स्वयंभू ने और उत्तर प्रदेश में कनकामर ने जैन चरितों की रचना अपभ्रंश में ही की है । विद्यापति वैष्णव- गीत इसी में गाते हैं और ऐतिहासिक श्राख्यान की योजना अपभ्रंश में ही करते हैं । गुजरात और राजस्थान के सूरियों ने इसका प्रयोग अनेक विधाओं में किया है । राजस्थान के जोइन्दु और रामसिंह श्राध्यात्मिक रहस्यवाद का उद्बोधन इसी भाषा में करते हैं। मुल्तान के अब्दुल रहमान ने लोकगीतों को इसी के स्वरों में बांधा है और चन्दबरदायी की भोजभरी गर्जना इसी में सुनाई पड़ती है । 'वीसलदेव रासो' और 'ढोला मारू रा दूहा' इसके अवहट्ठ रूप की ही रचनाएं हैं। संत ज्ञानेश्वर ने भी 'ज्ञानेश्वरी' में यथास्थान इसका सहारा लिया है । विद्याधर और मुंज का प्रेम इसी ( भाषा) में इतना भावुक हो सका है। रइधू तो कल तक इसी भाषा में लिखते हैं । कहने का तात्पर्य है कि ज्ञात और अज्ञात अनेक कविलेखकों ने अपभ्रंश साहित्य के कलेवर की वृद्धि की है । इस प्रकार यह देश की साहित्यिक भाषा ही नहीं राष्ट्रभाषा भी बन गई । लोकजीवन की ऐसी कोई विधा नहीं बची जिस पर अपभ्रंश भाषा में न लिखा गया हो। इसमें राष्ट्रभाषा को अधिकाधिक पुष्ट, बलिष्ट करने की हर प्रकार की संभावना है । इतना विशाल और महत्वपूर्ण साहित्य होते हुए भी प्रारम्भ में यह उपेक्षित ही रहा। सभी आधुनिक भारतीय प्रार्यभाषाओं के समान प्राधार अपभ्रंश में सुरक्षित हैं किन्तु उपेक्षा के कारण इसका महत्व उजागर नहीं हुआ जिससे देश में भाषायी विवाद खड़े हो गये । उसका भाषायी एकीकरण डगमगा गया । बोलियों की पारिभाषिक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ii) अपभ्रंश भारती शब्दावली प्रोफल हो गई । इतिहास और परम्परा की श्रृंखला टूट गई। इस तरह अपभ्रंश भाषा और साहित्य को भुलाकर हमने अपनी पहचान ही नहीं खो दी वरन् राष्ट्रीय एकता को भी किनारे कर दिया। सिद्धों और नाथों की शब्दावली समझ से परे हो गई । कबीर, सूर, तुलसी और जायसी की रचनाओं में अपभ्रंश शब्द- शब्दरूपों, क्रिया- क्रियारूपों की बहुलता है, अपभ्रंश की इन शब्दावलियों से पूर्ण परिचय न होने के कारण उनके ( उनकी रचनाओं) के सम्यक् अर्थ न समझे जा सके । अपभ्रंश साहित्य अकादमी का का प्रयास है अपभ्रंश के अध्ययन-अध्यापन को सशक्त करके उसके सही रूप को सामने रखना जिससे श्राधुनिक प्रार्यभाषानों के स्वभाव और उनकी संभावनाएं स्पष्ट हो सकें। शोध पत्रिका 'अपभ्रंश-भारती' इसमें सहायक हो सकेगी । 'स्वयंभू' अपभ्रंश के पुरस्कर्ता हैं । वे प्रपभ्रंश के प्रथम ज्ञात कवि हैं। 'अपभ्रंश ' भाषा पर ऐसा अचूक अधिकार फिर कभी किसी कवि का नहीं दिखाई दिया। प्रलंकृत भाषा तो बहुतों ने लिखी लेकिन ऐसी प्रवाहमयी और लोकप्रचलित 'अपभ्रंश' फिर नहीं लिखी गई । वे पहले बिन्दु पर भी हैं और आखिरी पर भी । उन्होंने लोकभाषा अपभ्रंश को उच्च आसन पर प्रतिष्ठित किया । स्वयंभू ने लोकभाषा की संभावनाओं को साहित्यिक सौन्दर्य से इतने गहरे उतरकर जोड़ा कि उनको साहित्यशास्त्री प्राज तक नाम भी नहीं दे पाए। इस तरह स्वयंभू असाधारण प्रतिभा के धनी थे । 'अपभ्रंश भारती' के एकाधिक अंक महाकवि स्वयंभू के साहित्य पर ही प्राधारित होंगे। यह प्रथम अंक भी स्वयंभू विशेषांक के रूप में प्रस्तुत है । पत्रिका के लेखकों एवं अन्य सभी सहयोगियों के प्रति आभारी हैं। जर्नल प्रेस भी धन्यवाद है । ज्ञानचन्द्र विन्दूका डॉ. कमलचन्द सोगारणी डॉ. छोटेलाल शर्मा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय भारत विभिन्न भाषाओं का देश है। यहां बहुत प्राचीन काल से ही लोक-भाषामों में साहित्य लिखा जाता रहा है । जीवन के विविध मूल्यों के प्रति जनता को जागृत करने के लिए लोकजीवन के विविध पक्षों, सांस्कृतिक मूल्यों को लोकभाषा में अभिव्यक्त करना प्रावश्यक एवं महत्वपूर्ण है । लोकभाषा में ही जन-चेतना की हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति होती है। 'अपभ्रंश' भी लोकभाषा थी। ईसा की छठी शताब्दी तक आते-आते 'अपभ्रंश' साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए सशक्त माध्यम बन गई। 7वीं शती से 17वीं शती तक अपभ्रंश में साहित्य-रचना होती रही । अपभ्रंश एक लंबे समय तक उत्तर भारत की भाषा बनी रही । भारत के सभी वर्गों ने इसमें साहित्य लिखा किन्तु कालान्तर में वह साहित्य लुप्तप्रायः हो गया । क्यों-कसे ? कुछ कहा नहीं जा सकता। शायद देश की प्रांतरिक उथल-पुथल के कारण ऐसा हुआ हो । जो कुछ साहित्य प्राज सामने है वह बड़े संघर्ष का फल है। कुछ साहित्य जैन मंदिरों और भंडारों में छिपा रह गया, कुछ तिब्बत आदि के पीठों में तो कुछ जनता के कण्ठ में । उपेक्षा ने इसके संरक्षण को संकुचित कर दिया। फिर भी नींव पक्की थी इसलिए डगमगाई जरूर लेकिन गिरी नहीं । प्राज इसमें ऐहिक साहित्य के अतिरिक्त वैष्णव, शैव, शाक्त, सिद्ध और जैन साहित्य पुष्कल मात्रा में मिलता है। अपभ्रंश का साहित्य प्रकाशित न होने के कारण इसकी ठीक-ठीक रुचि पाठकों में नहीं पनप सकी । इसके समुचित ज्ञान का प्रभाव बना रहा इसलिए इसके अध्ययन-अध्यापन की उचित व्यवस्था न हो सकी । इससे अपभ्रंश का ही नहीं, आधुनिक भारतीय भाषाओं का भी बड़ा नुकसान हुना। उनके साहित्य का प्रामाणिक इतिहास नहीं बन सका । उनकी भाषामों का सही विश्लेषण नहीं हो सका। उनके अनेक काव्यरूपों के स्रोत ज्ञात नहीं हो सके। इसका देशव्यापी परिणाम हुआ । एकीकरण की प्रक्रिया में दरार पड़ गई, देश में भाषायी विवाद उठ खड़े हुए पौर राष्ट्र विखराव की चपेट में आ गया । बोलियों और Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती (iv) जनपदीय भाषाओं की पारिभाषिक श्रोर तकनीकी शब्दावली दबी रह गई, उनके लिए नए कोश उभर कर प्राए जो शिक्षा पर भार बन गये । इतिहास और परम्परा की कड़ियां ही भटक गईं, हमारी पहचान खो गई । अपभ्रंश भाषा की संभावनाएं विशाल हैं । लोकजीवन की ऐसी कोई विधा नहीं जो यहां न हो । कवि स्वयंभू प्रथम अपभ्रंश कवि हैं जिनका साहित्य हमें उपलब्ध है, इससे पूर्व के कवियों के नामोल्लेख तो प्राप्त होते हैं परन्तु कोई कृति नहीं मिलती। इस प्रकार महाकवि स्वयंभू अपभ्रंश के 'आदिकवि' हैं। लोकभाषा अपभ्रंश को उच्चासन पर प्रतिष्ठापित करने वाले कवि हैं स्वयंभू । अपभ्रंश का कोई भी परवर्ती कवि स्वयंभू के प्रभाव से मुक्त नहीं रह सका । वे असाधारण प्रतिभा के धनी थे । पउमचरिउ, रिट्ठमिचरिउ और स्वयंभूछन्द कवि स्वयंभू की तीन रचनाएं हैं । पउमचरिउ का विषय रामकथा है और रिट्ठणेमिचरिउ का हरिवंश की कथा | स्वयंभूछन्द छन्दों से सम्बन्धित कृति है । इनमें प्रथम दो महाकाव्य हैं । पउमचरिउ व स्वयंभू छन्द पूर्ण प्रकाशित हैं, रिट्ठमिचरिउ का कुछ अंश प्रकाशनाधीन है । इन काव्यों से स्वयंभू की काव्यप्रतिभा, प्रभावशीलता, मौलिकता और जनभाषा के प्रति उनकी अगाध निष्ठा का परिचय मिलता है । अपभ्रंश साहित्य अकादमी अपनी शोध पत्रिका 'अपभ्रंश भारती' का प्रथम अंक स्वयंभू - साहित्य पर प्रकाशित कर उस महान् साहित्यसाधक के अवदान को जन-जन तक पहुँचाना चाहती है । यह प्रथम अंक स्वयंभू की रचना 'पउमचरिउ' पर श्राधारित है । ज्ञानचन्द्र बिन्दूका संयोजक अपभ्रंश साहित्य अकादमी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र महावीरजी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य अकादमी प्रमुख योजनाएं अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन-अध्यापन एवं प्रचार-प्रसार हेतु दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी की प्रबन्धकारिणी कमेटी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान के अन्तर्गत 7 नवम्बर 1988 को 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना की गई । अपभ्रंश भाषा का अध्ययन प्राधुनिक भारतीय भाषाओंों और उनकी बोलियों के साहित्य के अध्ययन में प्रमुखरूप से सहायक है । अपभ्रंश साहित्य अकादमी की अपनी एक योजना है, लक्ष्य है, कुछ अपेक्षाएंप्राकांक्षाएं हैं और कुछ उपलब्धियां । योजनाएं - परिचय - प्रसार प्रकोष्ठ, शोध और प्रायोजना प्रकोष्ठ, पांडुलिपि प्रकोष्ठ आदि के माध्यम से प्रारम्भ की जानेवाली कतिपय प्रमुख योजनाएं 1. परिचय प्रसार प्रकोष्ठ (अ) अपभ्रंश प्रवेशिकाओं का निर्माण जिससे अपभ्रंश भाषा को सरलरूप में सीखासिखाया जा सके । ( आ ) 1 विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के हिन्दी विभागों एवं क्षेत्रीय भाषा विभागों से सम्पर्क करना । 2 उनके पाठ्यक्रमों में अपभ्रंश को स्थान दिलाना । 3 उनका पाठ्यक्रम बनाना । 4 तदनुरूप पाठ्यसामग्री का संकलन एवं उसका प्रकाशन । (इ) विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के प्रवक्तानों-प्राध्यापकों को अपभ्रंश भाषा, साहित्य, व्याकरण पढ़ने-पढ़ाने के लिए प्रशिक्षण देना और तदनुरूप अल्पकालीन शिविरों की व्यवस्था करना । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vi) अपभ्रंश भारती (६) अपभ्रंश साहित्य के ज्ञान से सम्बन्धित सर्टीफिकेट परीक्षा-डिप्लोमा परीक्षा समारंभ करना और उनका पाठ्यक्रम बनाना, तदनुरूप पाठ्यसामग्री का संकलन करना और उसका प्रकाशन करना। (उ) पत्राचार के माध्यम से सर्टिफिकेट और डिप्लोमा के प्रशिक्षण की व्यवस्था । (ऊ) सर्टीफिकेट और डिप्लोमा परीक्षामों को यथासंभव विश्वविद्यालय अनुदान समिति तथा अन्य विश्वविद्यालयों द्वारा मान्य कराना। (ए) अपभ्रंश भाषा साहित्य में स्नातक, स्नातकोत्तर एवं एम. फिल. की व्यवस्था करना । उनके अनुरूप पाठ्यसामग्री का संकलन करना और उनका प्रकाशन करना। (ऐ) शोध-पत्रिका अपभ्रंश-भारती का प्रकाशन । शोष और प्रयोजना प्रकोष्ठ (अ) 1. अपभ्रंश भाषा 2. अपभ्रंश साहित्य और 3. अपभ्रंश व्याकरण सम्बन्धी अध्ययन और प्रयोजनामों की व्यवस्था करना । (प्रा) अल्पकालीन और दीर्घकालीन प्रयोजनामों का शुभारंभ करना । (इ) विश्वविद्यालयों से अपने निदेशक को मान्यता दिलाने का प्रयत्न करना। (ई) विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में होनेवाले इस प्रकार के शोधकार्य में सहायता की व्यवस्था करना । 3. पांडुलिपि प्रकोष्ठ (अ) अपभ्रंश भाषा की यथाप्राप्य पाडुलिपियों का संग्रह करना । (मा) उनका नव वैज्ञानिक प्रणाली के आधार पर पाठालोचन की व्यवस्था करना, प्रादि । उपलब्धियां 1. अपभ्रंश साहित्य अकादमी के सर्टिफिकेट, डिप्लोमा मादि के पाठ्यक्रम प्रारंभ हो चुके हैं। 2. विश्वविद्यालयों के अध्यापकों का एक प्रशिक्षण शिविर सम्पन्न हो चुका है। 3 विभिन्न स्थानों में प्राप्य अपभ्रंश पांडुलिपियों की फोटोस्टेट प्रतियों का संग्रह प्रारंभ किया जा चुका है। अपभ्रंश साहित्य में विश्वविद्यालय के बी.ए., एम.ए., एम. फिल. तथा अकादमी के लिए सर्टीफिकेट, डिप्लोमा और हायर डिप्लोमा के राष्ट्रीय स्तर के पाठ्यक्रम निर्मित कर लिये गये हैं जिन्हें शैक्षणिक परिषद् द्वारा अनुमोदन प्राप्त है। 5. पाठ्यक्रम की प्रतियां विभिन्न विश्वविद्यालयों को भेजी जा चुकी हैं । 6. पाठ्यक्रम के अनुरूप संकलन तैयार किये जा रहे हैं। 7. प्रारंभिक व्याकरण का प्रकाशन मुद्रणाधीन है । 8. शोध-पत्रिका 'अपभ्रंश-भारती' का प्रथम अंक प्रकाशित होकर प्रापके हाथों में है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश के आदि कवि स्वयंभू -डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी भारतीय-वाङ्मय में पौराणिक काव्य-परम्परा समग्र भारतीय भाषामों के साहित्य के लिए महत्त्वपूर्ण उपजीव्य रही है । कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से परवर्ती काव्य उसका ऋणी है । शास्त्र और प्रागमों की विचारधारा को जन-जीवन में उतारने तथा सहज, रुचिकर एवम् बोधगम्य बनाने के लिए पौराणिक साहित्य के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि प्र-वैदिक बौद्ध और जैन-धर्मावलंबी संप्रदायों में भी ऐसे साहित्य की संरचना का स्रोत स्फुरित हुमा मिलता है। बौद्ध तथा जैनों का अपरिमित कथा-साहित्य इसका निदर्शन है । बौद्ध-सिद्धों की तो वाणी का माध्यम जन-जीवन की भाषा से इतर हो जाने के कारण अपनी पृथक् लीक बना लेता है। किन्तु जैन मुनियों और कवियों ने धर्म के प्रचारार्थ जन-भाषा को अपनाकर अपने कृतित्व को अमर बना दिया। यह जन-भाषा अपभ्रंश है जो 8 वीं से 13 वीं शताब्दी तक समूचे उत्तर भारत में साहित्यिक अभिव्यक्ति का सबल माध्यम बनी रही । संस्कृत की तुलना में अपनी सरलता, सरसता, व्याकरणिक कठोरता से से दूर, परसगों की प्रयोगबहुलता और वाक्य-विन्यास की सहजता के कारण इसने न जाने कितने जैन-अजैन कवियों को काव्य-रचना के लिए आकर्षित किया। बंगाल के सरहपा प्रादि सिद्धों ने अपने 'दोहा-कोश' के लिए इसे चुना, तो मिथिला के विद्यापति ने स्थानीय बोली का पुट देकर इसे अपने गीतों का माध्यम बनाया-'देसिल बमना सब जन मिट्ठा । मुल्तान मुसलमान कवि अब्दुल रहमान के कंठ से भी 'संदेश रासक' विरह-काव्य की संरचना में Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती यही स्फुरित हुई और जैन मुनियों में स्वयंभू आदि ने भी इसे ही अपनाया। सचमुच प्रात्मसुख और प्रात्म-विश्वास की अभिव्यक्ति का पुष्ट माध्यम लोक भाषा के अतिरिक्त और अन्य नहीं । कविता कवि के इसी प्रात्म-सुख और प्रात्म-विश्वास की ही सहज अभिव्यक्ति है, चाहे वह प्रबन्धपरक हो अथवा मुक्तक । उसका सहज सीधापन और सपाटपन अपनी व्यंजना और वक्रता की नैसर्गिकता में, कवि के मर्म को उजागर करने में जहाँ साधक बनता है, वहां शिल्पगत सौन्दर्य को भी समृद्ध करता है । कृत्रिमता और बनावटीपन में कविता जन-जीवन से दूर होकर संप्रेषण की शक्ति की खो बैठती है । निदान, 'स्वान्तः सुखाय' के साथ 'परसुखाय' की प्रवृत्ति कविता की सफलता की आधार-भूमि है । प्रस्तु, कविता में सहजता और अभिव्यक्ति का बांकपन लोक-भाषा या जन-भाषा की प्रवृत्ति के कारण स्वतः उद्भूत हो जाते हैं। तभी तो कविता के शब्द 'प्राप-बोला' होते हैं। संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि ने इसीलिए अपनी रामायण में लौकिक-संस्कृत को ही माध्यम बनाया है और अपभ्रंश के प्रादिकवि स्वयंभू तो 'सामण्ण गामिल्ल भास' को छोड़ना ही नहीं चाहते सामण्ण भास छु, सावरउ । छुड़ मागम-सुत्ति का वि घडउ ॥ छड होति सुहासिय वयणाई। गामिल्ल-भास-परिहरणाई ॥ ___गोस्वामी तुलसीदासजी भी 'भाषाबद्ध करवि मैं सोई' कहकर लोक-भाषा की ही प्रतिष्ठा करते हैं । जो कविता जितने बड़े लोक-मानस को छूती और झकझोरती है, वह उतनी ही सफल और सार्थक होती है। प्रत्यक्ष और परोक्षतः इसका प्रभाव यह भी होता है कि कविता में लोक-साहित्य की मार्मिकता का समाहार हो जाता है। पराण-साहित्य की यही सर्वोपरि विशेषता और गरिमा है। अपनी रामायण में प्रादिकवि वाल्मीकि ने जिस प्रकार जन-प्रचलित लौकिक-संस्कृत को साहित्यिक कलेवर में प्रयुक्त कर उसके रूप को सजायासंवारा है, ठीक उसी प्रकार महाकवि स्वयंभू ने भी तत्यूगीन अपभ्रंश को साहित्यिकता प्रदान कर 'पउमचरिउ' की संरचना की। स्वयंभ सचमच अपभ्रंश के प्रादिकवि वाल्मीकि हैं। गों अनेक बौद्ध-सिद्धों की रचनामों में भी काव्यत्व निखरा है किन्तु अभिव्यक्ति की दुरूहता दूषण बन गई है। भारतीय-परम्परा के पुराण-साहित्य में राम और कृष्ण के संदर्भो ने लोक-जीवन को जितना प्रभावित किया है, उतना अन्यों ने नहीं। 'वाल्मीकि रामायण' में इसीसे दशरथनन्दन राम के आदर्श ऐतिहासिक चरित्र और ऐश्वर्य को कविता का प्रतिपाद्य बनाया गया है। वे युग-सत्य को नहीं झुठलाते और राम के माननीय रूप की गाथा को गाते हैं । अंतर्बाह्य प्रकृति का भव्य निरूपण तथा शैली की सरलता-सरसता उसकी विशेषताएं हैं। नूतन उद्भावनाओं में भी मार्मिक और हृदयस्पर्शी प्रसंगों तथा बिन्दुओं का चयन उनके कवि-कर्म की सफलता का हा परिचायक है । साथ ही उनकी अभिव्यक्ति में न कहीं पांडित्य-प्रदर्शन की विवृति है और न कलागत चमत्कार के लिए सायास अलंकारों आदि के प्रयोग की कामना। कथ्य की सहजता और अभिव्यक्ति की नैसर्गिकता उनके काव्य-सौन्दर्य के दो प्रमुख बिन्दु हैं । किन्तु अपभ्रंश-साहित्य में जैन-कवियों ने राम और कृष्ण की कथानों को तर्कनिष्ठ बनाकर अपने ढंग से भाषाबद्ध किया। उनके द्वारा प्रणीत काव्यों में तीर्थंकरों, चक्रवतियों Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती तथा समकालीन महापुरुषों के चरित्र को ही गूंथा गया है । पुष्पदंत के महापुराण के दो भाग हैं- प्रादिपुराण और उत्तरपुराण । उत्तरपुराण के एक अंश में कृष्ण की कथा 'हरिवंशपुराण' के रूप में निबंधित है और दूसरे अंश में राम कथा का वर्णन है । लेकिन अपभ्रंश में रामकथा का आरंभ महाकवि स्वयंभू के 'पउमचरिउ' से ही होता है । 3 अपभ्रंश के इन चरिउ काव्यों का काव्य रूप तथा शिल्प-विधान पूर्ववर्ती प्राकृत और संस्कृत के प्रबन्ध-काव्यों से सर्वथा भिन्न और मौलिक है; वैसे वाल्मीकि रामायण की भांति 'पउमचरिउ' का कथ्य पाँच काण्डों में विभक्त है— विद्याधरकाण्ड, प्रयोध्याकाण्ड सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड और उत्तरकाण्ड | इनमें कुल 90 संधियां हैं। कहीं-कहीं 'प्राश्वास' शब्द का प्रयोग भी प्राकृत के अनुकरण का द्योतक है। ये संधियां कड़वकों में विभक्त मिलती हैं, जिनका समापन 'घत्ता छन्द' से होता है। साथ ही प्रत्येक कड़वक में श्रद्धलियों की संख्या सर्वत्र समान नहीं पाई जाती । काव्यारंभ में स्वयंभू ने बड़ी विनम्रता के साथ अपनी अनभिज्ञता, काव्य शास्त्रहीनता पूर्व - कवियों के प्रति पूज्य भाव आदि काव्य- रूढ़ियों का परंपरानुसार निवेदन करते हुए भी कविता करने की अडिग आस्था और दुष्ट जनों के रोष के लिए उन्हें आड़े हाथों लेने की बात बड़े आत्मा-विश्वास के साथ कही है बुहयण संयभु पई विण्णवइ । मई सरिसउ प्रष्णु णाहिं कुकइ || वायरण कयावि र जागियउ । णउ वित्त-सुत्तु वक्खाणियउ || रगउ णिसुणिउ पंच महाय कव्वु । णउ भरहु गेउ लक्ख वि सब्बु ॥ उ बुज्झिड पिंगल- पत्थारु । णउ भम्मह - दंडि अलंकार ॥ ववसाउ तो विउ परिहरति । वरि रड्डाबद्दु कठवु करमि ॥ ऍह सज्जण लोयहीँ किउं विरणउ । जं प्रवहु पदरिसिउ श्रप्पणउ ॥ जइ एम विरूस को वि खलु । तहीँ हत्थुत्थल्लिउ लेउ छलु ॥ अपभ्रंश के इस आदिकवि की यह विशेषता सचमुच अनूठी और बेजोड़ है । अन्य जैन - काव्यों की भांति पउमचरिउ का वर्ण्य विषय भी धार्मिक भावना से अनुरंजित है तथा सभी प्रधान- पात्र जिनभक्त हैं । जैन अपभ्रंश परम्परा में धार्मिक भावना विरहित काव्य की कल्पना संभव नहीं । संसार की अनित्यता, जीवन की क्षरण भंगुरता प्रौर दुःख - बहुलता दिखाकर विराग उत्पन्न करना, शान्त रस में काव्य तथा जीवन का पर्यवसान ही इन कवियों का मूल प्रयोजन रहा है । । वाल्मीकि न तो उसे मानव-रूप स्वयंभू के 'पउमचरिउ' में राम का मानवीय रूप ही मुखरित हुआ है के राम की भाँति वह सभी मानवीय शक्तियों तथा दुर्बलताओं का प्रतिनिधि है । कोई महान् आदर्श चरित बनाया गया है और न अलौकिक शक्ति-पुंज । बल्कि में उसे जैसा होना चाहिए, उसी रूप में बिना किसी आवरण के चित्रित कर दिया गया है । न कहीं राम की चारित्रिक कमजोरियों पर पर्दा डालने का प्रयास है और न गुणों को प्रत्यधिक उजागर करने की दृष्टि का प्राचुर्य । सामान्य मानव को प्रबन्ध-काव्य का प्रतिपाद्य बनाने का यह सर्वप्रथम प्रयास स्वयंभू की उदात्तता का परिचायक है । यही कारण है कि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ' अपभ्रंश-भारती इस चरित्र-काव्य की कथा का प्रारंभ लोक-प्रचलित कुछेक शंकाओं के साथ होता है, जबकि पुराणों की श्रोता-वक्ता-शैली में मगध नरेश श्रेणिक जिनवर से प्रश्न करते हैं बह रामहों तिहुयण उवरे माइ। तो रावण कहि तिय लेवि जाइ ॥ पण वि खरदूषण-समर देव । पहु जुज्झइ सुज्झइ भिच्चु केंव ॥ किह वाणर गिरिवर उम्बहंति । बंधेवि मयरहरु समुत्तरंति ॥ किह रावणु बहमुहू बीसहत्थु । अमराहिव-भुव-बंधण-समत्यु ॥ स्वयंभू की इस मानवीय दृष्टि ने 'पउमचरिउ' के रूप को न केवल पूर्व और परवर्ती राम-काव्य-परंपरा से अलगा दिया है बल्कि राम के चरित्र और व्यक्तित्व को लोकजीवन की निधि बना दिया है। राम के मानवीय चरित्र का यह पुराण अन्यतम है। जहां सभी प्रकार की विपत्तियों में मादिकवि ने राम के पौरुष को उजागर किया है, वहां शक्तिहत लक्ष्मण के मूछित शरीर पर असहाय साधारण मनुष्य की भॉति उसे रोते-बिलखते भी दिखाया है। जो राम अपने पिता के वचनों के पालन हेतु मुनि-वेश में वन-वन भटकता है, वही अपनी पत्नी के वियोग में सम्पूर्ण प्रकृति को अपने आँसुओं से भिगोता है और साहसी कर्मवीर की भांति उसे पाने के लिए समुद्र पर रावण से युद्ध करता है। किन्तु तत्कालीन समाज में नारी की स्थिति का पर्दाफाश पुष्पक-विमान में चढ़कर अयोध्या आगमन के समय अग्नि-परीक्षावाले प्रसंग में होता है। सीता राजा के उस उपवन में जाकर बैठ गई जहां राम ने निर्वासन दिया था। तहो उबवणहो मझेमावासिय ।। पुनः प्रातः काल होने पर कान्ता की कान्ति को देखकर राम का विहंसना और नारी के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग-'जइ वि कुलग्गयाउ गिरवन्जउ महिलउ होंति सुट्ट रिपल्लज्ज अटपटा तो अवश्य है लेकिन राम के हंसने ने इस अशोभनीयता को धो दिया है साथ ही इन शब्दों में लोक-जीवन के व्यावहारिक कड़वे सत्य का स्वर भी तो मुखरित है । धर्मोन्मुख होने पर यह भावना सत्य के अधिक निकट है। जैन-कवियों के काव्य में यह सर्वत्र दर्शनीय है। अस्तु, इस स्थिति को धार्मिक परिवेश में 'पुरुष के श्याम चरित्र की पृष्ठभूमि" कहना उचित नहीं। अंत में सीताजी के द्वारा भी कुछेक कठोर शब्दों को कहलवाकर-'पुरिस णिहीण होंति गुणवंत वि, तियहें ण पत्तिज्जति मरंत वि स्वयंभू ने नारी-हृदय की कुण्ठा की अभिव्यक्ति किमपि नहीं की है, वस्तु सत्य को ही टटोला है। वस्तुत: नारी तो पुरुष की शक्ति है जो पति-रूप में उसके विश्वास को प्राप्त कर और अधिक तेजोमय हो जाती है। गृहस्थ-जीवन का यह प्रादर्श मूल्य पति-पत्नि को परस्पर निकट लाता है, विच्छेदन की प्रेरणा कभी नहीं देता। अंत में सीताजी नर-नारी के अंतर को 'मरणे वि वेल्लि रण मेल्लइ तरुवर के दृष्टान्त से स्पष्ट करती हई, अपने सतीत्त्व की दृढ़ता व्यक्त करती हैं-सह वडाय मइं प्रज्जु समुग्भिय ।10 जैन-धर्मानुकूल कर्म-फल में विश्वास के कारण वे किसी को दोष न देकर इसे अपने किसी दुष्कर्म का ही फल कहती हैं-'सब्य दोष एस दुक्किय कम्महो'11 और पंचलोच करती है। आखिर यही तो वह उपाय है जिससे स्त्रीयोनि-में जन्म नहीं लेना पड़ेगा - Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 5 एहि तिह करेमि पुणु रहुवइ, जिह ण होमि पडिवारी तियमइ 112 इसी शम-भाव में 'पउमचरिउ' का पर्यवसान हो जाता है। 'मानव-मन की गहराई में उतरकर उसमें निहित सत्य को उभारने और चित्रित करने की अपभ्रंश के इस महाकवि में अनूठी क्षमता है, वे सच्चे संवेदनशील कवि हैं। काव्यगत विषय-विस्तार के बने रहने पर भी अनेक हृदयस्पर्शी अनछुए प्रसंगों की उद्भावना यहां देखे ही बनती है। जलक्रीड़ा, रनिवास आदि के इतिवृत्तात्मक प्रसंगों में भी कवि-कल्पना का माधु और चातुर्य दर्शनीय है । किन्तु श्रृंगार और करुण से परिसिंचित कोमल प्रसंगों की परिकल्पना ने तो कवि-हृदय की भाव-प्रवणता को जैसे सहृदय की अक्षुण्ण निधि ही बना दिया है । सैनिक-पति की पत्नी युद्ध के लिए जाते समय उसे विदाई देती हुई गजमुक्ताओं की मांग कर रही है, मुख राग लगाकर दर्पण दिखाती है, नेत्रों में अंजन लगाकर मस्तक पर तिलक करती है, पान का बीड़ा देती है, कभी उसके साथ आलिंगनबद्ध होती है, कभी सुरति के लिए श्रृंगार करती है, फूलों का सेहरा बांधती है, नए-नए वस्त्र धारण करती है ।13 श्रृंगारभावना के इस उतावलेपन में न जाने कितने घुले-मिले साहचर्य-स्वप्नों का साकार मूर्त विधान है । और अंत में युद्ध-भूमि की भावी आशंका से पत्नी का अन्तःकरण किस प्रकार भयाक्रांत है, शायद इसीलिए उसके भीतर का समचा समर्पित भाव एक साथ अभिव्यक्त होने के लिए व्यग्र हो उठा है। इससे भी आगे सच्ची वीरांगना के रूप में पति को कर्म-च्युत न होने सन्देश बड़ा ही करुणापूरित है- पत्ता-कहे वि अंगे रसोज्जेरण माइय, पिय रणबहुयएं सहुं ईसाइउ । जर तुहं तहे अणुराइउ वट्टहि, तो महु गहवय देवि पयहि ॥14 इसी प्रकार शक्ति-माहत लक्ष्मण के लिए भरत का विलाप बड़ा ही मार्मिक और करुणाप्लावित है । राम का विसाप तो सर्वत्र मिलता है, लेकिन भरत का अंतःकरण तो जैसे टूट-टूटकर खंडित होने लगता है घत्ता-हा पई सोमित्ति मरंतएण मरइ णिस्तर वासरहि । - भत्तार-विहूणिय पारि जिह, प्रज्जु प्रणाही हूय महि ।115 हा भायर ! वरहिण-महुर वाणि । महु णिवरिमोऽसि बाहिणउपानि ॥ हा । किं समुद्दे जल णिवहु खुट्ट । हा! किह बिटु कुंभकगहु फुटु । हा ! किह दिणयर कर-णियर चत्तु । हा.! किह प्रणंगु बोहग्गु पत्तु ॥ धत्ता-हा ! णिन्विसु किह परणिदु थिउ, णिप्पड ससि-सिहि सीयलउ ॥ टलरलिहूई केम महि, केम समीरणु णिच्चलर 116 गए-मोत्तिउ सिंघल बीवे मणि, बइरागरहों वज्जु पउह । मायइ सम्वइ लभंति जऍ, गवर ण लम्भइ भाइवर ॥ प्रज्जु प्रणाही हय महि में सचमुच अनभिव्यक्त वेदना का पारावार निहित है। रावण के लिए मंदोदरी का विनाप तो हृदयविदारक है ही-उठे भगारा केत्तिउ सुप्पइ ।18 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती किन्तु, घर के भेदी विभीषण का विलाप अछूता होने के साथ भाव-विभोर करने तथा अंतस् को उद्वेलित करने में पूर्ण सक्षम है चरण धरेवि रुएवए लग्गउ । हा भायर ! मह मुएवि कहिं गउ । हा भायर !. दुण्णिद्दए भुत्तउ । सेज्ज मुएवि किं महियले सुत्तउ ॥ तुहुं ण निमोऽसि सयलु जिउ तिहुमणु । तुहं ण मुमोऽसि मुप्रउ वंदिय जणु ॥ विढि ण णट्ठ रण लंकाउरि । वाय रण गट्ठ गट्ठ मंदोयरि ।। हार ण तुटु तुटु तारायणु । हियउ ग भिण्ण भिष्णु गयणंगणु ॥ चक्कु ण दुक्कु ढुक्कु एक्कतरु। प्राउ रण खुट्ट खुट्ट रयणायर ॥ जीउ ग गउ गउ मासा-पोट्टलु । तुहुं ग सुत्त सुत्तउ महिमंडलु ॥30 . यहां पाउ ण खुटटु खुटु रयणायरु, तथा जीउ ण गउ गउ अासा पोट्टलु, में न केवल रावण के महान्तम व्यक्तित्व का संकेत होने से प्रात्मपीड़ा की व्यापकता है बल्कि शेष जीवन की आशा की इति की भी व्यंजना है। ऐसे और भी अनेक करुणा-पूरित प्रसंग उक्त महाकाव्य में द्रष्टव्य हैं। इसका एक ही मनोवैज्ञानिक कारण है-हदय का परिष्करण और उदात्तीकरण । इस स्थिति के उपरान्त ही व्यक्ति धर्मोन्मुख हो पाता है। इन प्रसंगों की उभावना में कवि का भावूक-हृदय अपनी पूर्णता और समग्रता के साथ सर्वत्र डुबा और भीगा है। इस प्रकार स्ययंभू सच्चे भाव-प्रवण कवि हैं। उनके 'पउमचरिउ' का फलक बड़ा व्यापक और विस्तृत है। मानव और मानवेतर प्रकृति के अनगिनत चित्र इसमें अंकित हैं । भाव और चिंतन, मन और बुद्धि का ऐसा मणि-कांचन संतुलन सामंजस्य अन्यत्र . दुर्लभ है। अपभ्रंश भाषा पर उनका अद्वितीय अधिकार है। लोक-प्रचलित अपभ्रंश । को काव्यात्मक लोच और व्यंजना के साथ 'प्रवाह-संयुक्त बनाए रखने की उनकी सामर्थ्य बेजोड़ है। बिखरे लोक-जीवन की बहुमूल्य अनुभूतियों और संवेदनात्रों ने उनके काव्यत्व में चार चांद लगा दिये हैं। साथ ही लोकाभिव्यक्ति के न जाने कितने-पुरातन मात्रिक छन्दों के नैसर्गिक प्रयोग ने उनकी कविता को कला के सौन्दर्य से अभिमंडित कर दिया है । शिल्प और काव्य रूप की दृष्टि से अपभ्रंश की कड़वक-शैली का ऐसा पुष्ट तथा सहृदय-ग्राह्य प्रयोग उनके इस काव्य का अद्भुत आकर्षण है। वे सचमुच अपभ्रंश के प्रतिष्ठित प्रादिकवि वाल्मीकि हैं । उन्होंने काव्य-क्षेत्र में नये भाव और नये सृजन को प्रेरणा दी है। जो भूमिका संस्कृत-काव्य के उन्नयन और समृद्धि में प्रादिकवि वाल्मीकि ने निभाई, उसी का निर्वाह स्वयंभू ने अपने 'पउमचरिउ' के माध्यम से अपभ्रंश साहित्य को प्रतिष्ठित करने में किया है। दोनों का सृजन अपने युग की लोक-संपत्ति है। अंतर मात्र इतना है कि चरितनायक कहीं इतिहास पुरुष है और कहीं धर्मपुरुष । महापंडित राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में-'स्वयंभू आदि कवि अपनी पांच शताब्दियों में पास नहीं छीलते रहे। उन्होंने काव्य-निधि को और समृद्ध भाषा को और परिपुष्ट करने का जो महान् काम किया है वह हमारे साहित्य को उनकी ऐतिहासिक देन है । 1 1. कीर्तिलता, 1.13.35 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 2. पउ., 1.3.9-10 3. वही 1.3.1-13 4. वही 1.10.3-7 5. वही 83.7.5 6. वही 83.8.2 7. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृ. 181। 8. पउ 83.8.8 9. वही 83.9.6 10. वही 83.9.7 11. वही 83.17.3 12. वही 83.17.9 13. वही 59.3.9 14. वही 59.3 10 15. वही 69.10.9 16. वही 69.11.3-8 17. वही 69.12.9 18. वही 76.11.1 19. वही 76.2.5-8 20. वही 76.3.2-6 21. हिन्दी काव्य धारा, पृ. 131 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत में जीव अकेला "इउ घर इउ परियणु इउ कलत्तु", णउ बुज्झहि जिह सयलेहि चत्तु । एक्केण करणेव्वउ विहरकाले, एक्केरण वसेव्यंउ जल-बमाले । एक्केण बसेउ तह णिगोएँ, एक्केणरएव्बउ पिय-विनोऍ । एक्केण भमेव्वउ भव समुद्दे, कम्मोह जल भर रउद्दे। एक्कहो जे क्खु एक्कहो जे सुक्खु, एकहो जे बन्धु एकहो जे मोक्खु । एक्हो जे पाउ एक्कहो जे धम्मु. एक्कहो जे मरण एक्कहो जे जम्मु । गह तेसऍ विहरे सयण-सयाइँ णं तुक्कियइँ । पर वेण्णि सयाइ जीवहीँ दुक्किय-सुक्कियइँ । 'यह घर, ये परिजन, यह स्त्री' - इनको सबने छोड़ा है, क्या यह नहीं जानते ? पकाल में अकेले ही विसूरते हैं और अकेले ही चिता में जलते हैं । निगोद में अकेले ही रहना होता है और प्रिय वियोग में अकेले ही धांसू बहाने पड़ते हैं । इस संसार में कर्म- जाल का मोह ऐसा ही है जैसे समुद्र के जलचर । उस रौद्र भवसागर में निस्सहाय ही भटकना होता है । सुख-दुःख, बन्ध-मोक्ष, धर्म-अधर्म, जन्म-मरण सब अकेले ही होगा। ऐसे संकट काल में कितने ही सगे-संबंधी क्यों न हों, कोई सहायक नहीं होता । अगर साथ देते हैं तो केवल दो ही, जीव के अच्छे-बुरे कर्म । पउमचरिउ 54.7.4-10 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि स्वयंभूदेव की भाषा में प्रयुक्त स्वर-ध्वनियों का विवेचन -डॉ. कैलाशनाथ टणन किसी भाषा के विश्लेषण के पूर्व उसकी ध्वनियों का विशिष्ट ज्ञान परमावश्यक है। इस सम्बन्ध में जार्ज सैम्पसन का कथन है कि-ध्वनिशास्त्र से मनभिज्ञ- भाषाशास्त्र का अध्यापक उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार.शरीरविज्ञान से अनभिज्ञ डाक्टर । सन् 1877 में हेनरीस्वीट ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये थे-"ध्वनिशास्त्र का महत्त्व भाषा के समस्त प्रकार के अध्ययनों के लिए चाहे वह नितान्त सैद्धांतिक हो अथवा प्रयोगभूत-निविवाद परमाश्यक रूप में स्वीकार कर लिया गया है।" . ध्वनि-शास्त्र के अर्थ में प्राचीन भारत में 'शिक्षा' शब्द का प्रयोग प्रचलितप्राय था। व्याकरण और वेद के अध्येता के लिए तत्संबंधी शिक्षा का पूर्ण ज्ञान अनिवार्य माना गया था। ध्वनि-सिद्धांत का प्रतिसूक्ष्म विवेचन करनेवाले सर्वप्रथम वैयाकरण ही थे । इसका संबंध ध्वनियों से है । इसके अन्तर्गत मानव वागेन्द्रियों से निःसृत सार्थक ध्वनियों का विवेचनविश्लेषण, वर्णन एवं वर्गीकरण किया जाता है । वस्तुतः ध्वनिशास्त्र भाषा-तत्त्व का मूलाधार एवं मूलमंत्र है। प्रत्येक भाषा में कुछ सार्थक ध्वनियां होती हैं जो लिपि-विज्ञान में वर्ण कहलाती हैं। ये ध्वनियां स्वर और व्यंजन इन दोनों भागों में सदैव से ही विभक्त होती रही हैं। अर्थात् ध्वनियों का प्राचीनतम एवं बहु-प्रचलित वर्गीकरण स्वर और व्यंजन के रूप में ही मिलता है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 अपभ्रंश-भारती अपभ्रंश-भाषा में प्राकृत की अपेक्षा दो स्वर-ध्वनियां अधिक हैं और वे हैं-हस्व ऐ मौर ह्रस्व प्रो। पहले हम संकेत कर चुके हैं कि किसी भी भाषा की ध्वनियों का अध्ययन दो वर्गों में रख कर किया जा सकता है-1. स्वर तथा 2. व्यंजन । अपभ्रंश में 11 स्वर तथा 29 व्यंजन व्वनियां हैं, इस प्रकार से अपभ्रंश भाषा में वर्णों की कुल संख्या 40 है। साहित्यिक अपभ्रंश के ध्वनि-समूह को देखने के पश्चात् जब हम स्वयंभूदेव की भाषा को देखते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि उनकी भाषा में उन सभी ध्वनियों का प्रयोग हुआ है जो परिनिष्ठित अपभ्रंश में मान्य थीं। किन्तु पालोच्य कवि की भाषा में कुछ ऐसी भी ध्वनियां प्रयुक्त हई हैं जो मान्य ध्वनियों की कोटि में नहीं पातीं यथा , ज, ष तथा क्षु ध्वनि । इस प्रकार से पालोच्य कवि की भाषा में वर्णों की कुल संख्या 44 है । स्वयंभूदेव द्वारा प्रयुक्त स्थर-ध्वनियों का विवेचन स्वर ध्वनियाँ मूल स्वर ह्रस्व-अ, इ, उ, ऐं, मों दीर्घ-पा, ई, ऊ, ए, प्रो अनुस्वार-(-) ऐऔर प्रौ संस्कृत की 'ऐ' अोर 'नो' ध्वनियां कवि की ध्वनियों में नहीं है, इससे यह प्रकट होता है कि या तो वे अपभ्रंश की प्रकृति के विरुद्ध हैं, उनका प्रयोग अपभ्रंश में भाषा बार नहीं पा पाया था। फिर भी हम उसकी तुलना में इन ध्वनियों का विवेचन करेंगे । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अपभ्रंश की ध्वनियाँ संस्कृत से आई हैं, अपितु उसका ध्वनि मंडार का उससे क्या मेल या विरोष है, यह देखना हैए/इ<ऐ, तेल्ल, भुवणेक्क, <मुवनैक, इन्दु <ऐन्द्र, जिह-जिह <जैसे-जैसे अथवा मह रूप में __कइलास <कैलाश, वइयाकरण< वैयाकरण मो<ो मोत्तिय <मौत्तिक,' सोमित्त <सौमित्र अथवा प्रउ रूप में चउदह <चौदह, गउरी< गौरी10 ह्रस्वीकरण की प्रवृत्ति हस्वीकरण अपभ्रंश की प्रवृत्तियों में से एक विशेष प्रवृत्ति रही है। इस प्रवृत्ति को. अपभ्रंश काव्यों में प्रचुरता से देखा जा सकता है। क्योंकि लघूच्चरित ह्रस्व वर्गों का प्रचुर प्रयोग ह्रस्वीकरण की प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं। इसी लघु उच्चारण के फलस्वरूप अपभ्रंश Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 11 में ह्रस्व ऍ और ह्रस्व ओं का जन्म हुआ जो ह्रस्व प्रकार, इकार में प्रौर उकार की भांति अपना पृथक् अस्तित्व रखने लगे और मात्रा में भी एक मात्रिक बने रहे । पालोच्य कवि की भाषा भी इस प्रवृत्ति से अछूती नहीं रह सकी । यथा मोक्ख <मोक्ष,1 जोहु <योधा,12 रज्ज <राज्य,18 तिण्णि <तीन, चुक्क <चूक, ऋका प्रयोग 'ऋ' लिपि-चिह्न तथा 'ऋ' के मात्रिक लिपि-चिह्न [ऋ] का प्रयोग पालोच्य कवि के ग्रन्थों में कहीं नहीं हुआ है किन्तु 'ऋ' का वर्णविकार कतिपय स्थलों पर अवश्य हुमा है जो इस प्रकार है'ऋ' का वर्णविकार प्र-णच्च <नृत्य,16 मय <मृत," गहवइ <गृहपति,18 करवाल <कृपाण, कुलहर< कुलगृह2 । इ-हिय <हृदय, विहप्पइ <वृहस्पति,22 अमिय <अमृत, घि8 <धृष्ट, कियन्त <कृतान्त,25 दिढ <दृढ़ । उ-पुहई <पृथ्वी, मुउ<मृत,28 ए-गेहिणि <गृहिणि रि-रिद्धि <ऋद्धि,30 रित्ती <नैऋति:1 उक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि 'ऋ' का सर्वाधिक वर्णविकार मालोच्य कवि की भाषा में प्र तथा इ में ही प्राप्त है । मूलस्वरों का प्रयोग आलोच्य कवि की भाषा में प्रयुक्त सभी मूल स्वर पद के प्रादि, मध्य प्रौर अन्त तीनों स्थानों में प्रयुक्त हुए हैं किन्तु ह्रस्व एँ और प्रों पद के अन्त में न प्रयुक्त होकर आदि और मध्य में ही प्रयुक्त हुए हैं । यथा मध्य अन्त म - अभरिस मा -- प्राउ ६ - इच्छमि ई - ईसाएविध उ- उरू ॐ- ऊणउ47 ऐ - एत्तिउ60 मुएप्पिणु संसारए ऐं - ऍहु मो- जोक्करेवि तइलोक्क57 प्रो- प्रोसारिय58 विनोए50 आदि मुम्र मुत्रा करइ40 जुअलु हुमासणिय36 लइ739 मईउ42 भउडु45 भऊह इन्दई43 पडिढऊ40 धएंण54 राएँ सामिग्रो०० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 अपभ्रंश भारती अनुनासिक स्वर स्वयंभूदेव की भाषा में चन्द्रबिन्दु तथा अनुस्वार दोनों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुमा है जहाँ तक अनुस्वार के प्रयोग का प्रश्न है वहाँ सभी स्वर सभी स्थानों पर अनुनासिक नहीं मिलते । यथा अन्त मादि. अंसु प्रांइउ62 जालइं63 - कहाणउं64 । । । । । । । । । । । ।।।।।।।।। "MPEE । । । । । । धाएं 65 महो स्वर प्रयोग अपभ्रंश में मूल स्वरों के अतिरिक्त अनेक स्वरों का संयोग भी पाया जाता है। संयोग से तात्पर्य है कि दो या दो से अधिक स्वरों की ऐसी समीप स्थिति जिसमें संधि कार्य न हो सके और दोनों स्वर स्पष्ट रूप से बिना कोई विकार उत्पन्न किये उच्चरित हों । स्वरसंयोग के अनेक उदाहरण आलोच्य कवि की भाषा में बराबर मिलते हैं। अधिकांश उदाहरण दो स्वरों के प्राप्त होते हैं किन्तु तीन और चार स्वरों के संयोगवाले उदाहरण भी देखे जा सकते हैं । दो स्वरों की संप्रयुक्ता निम्न उदाहरणों में द्रष्टव्य है मह-मुग्रह,87 प्रइदउ68 मई - पईसई दीसई० प्रउ - कञ्चुअउ, तउ मऊ - मऊह,73 चऊहि74 पऐ - थिएण,75 कइद्धएण पए - धए,7 तिलए78 प्रमो- यक्कयो, दीवप्रो० मामा-पापारी माइ - थाइ,82 प्राइय माई - आईहि84 प्राउ – पाउ,85 जाउ86. माऊ - चित्ताऊडएण, पाऊरिउ88 माऐ – आएहि, धाएहि माए - जाए, बहुमाए मानो - कामो,93 जागो Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती BEEEEEEEEEEE इध इउ इऐ इए ई ईई ईड ईए उध उन्ना ऊ ऊना उड़ कई ऊउ ऐ — -- ― - - - ― सइए, 'रइए 208 पलो प्रो, 104 सामिधो 106 वीश्रमउज्झा 106 बीई 107 भईउ, 'सुग्गीड 100 मायरीए, 110 सीए 111 112 हणुन, tha भुम्रा, मासे संमून,116 पसून11? जमदुधा, उदय, 120 मारुइ121 सच्चमूड, Jaa दुई 124 बिहूई 125 मउउ, 126 126127 127 128 129 दूउ, हूउ हणुण 180 - - ――――― TT टूभित्र तुरि णिवासु" — - - दइ बाइउ एवि 100 घर 101 2 102 - -- 108 114 118 — - दइउ, धाइउ, 162 115 'जूधारो 118 1, 100 सुए 131 स्वरों के संयोग के भी कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं, यथा ग्रहउ बाइउ बाइड 166 166 मालइए 107 आइए लइए, 168 पाइए धाइए, भाइए 100 वसुमूह ' 164 घएउ रामएउ माइग्रो - भाइश्रो, धोधो विभोमो 178 घोड - 123 'लइ 168 170 भाइयो, 17 घाम्रो 172 उन्नाइ दुइ, 176 सुबइ 177 उम्रए सुधए, 178 चुधए 178 उए उद्यो ऊचो ऊए एक ऐड एड एउ एक एए एषो बोइउ, 174 पलोइड 175 प्रोग्र प्रोड प्रोइ प्रोउ प्रोड - - थुप्रो 13a हूभो 135 दूए रग 136 भाइरस 287 139 एइ 138 लेड, 230 के 141 142 ― - - - - - - - दो स्वरों के संयोग के अतिरिक्त प्रालोच्य कवि की भाषा में तीन-तीन, चार-चार - केकर 143 एए, 144 छेए 14 146 - - विघोष, 147 पोषण 148 पलोइयो, 149 कोइल 150 होइ, 151 जोइय 162 लोड 18 गोदाई154 कोकहल 166 155 - - - - - प्रोक प्रोए होएवि, 106 पोएवि 167 - बिच्छोए, 158 णिघोए 150 घोए - प्रोप्रो - विनोश्रो, 160 दोश्रो161 ,132 मुए-238 घणे 140 - - गर उइउ, कथए ऊपन - हूघउ, एच- पेउम्र 186 घोष - जोम, 187 सोधद्द 188 घोडऐ धोइएण 180 मोहयो– बोधो 190 - 180 ' कुइड 181 दूधए 182 पसूम 188 1184 दूध उ 155 - - कच्युमउशि उद्मउ एमइए के अइए 102 133 दो और तीन स्वरों के संयोगवाले प्रयोग प्रालोच्य कवि की भाषा में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं किन्तु चार स्वरों के संयोगवाला एक ही प्रयोग प्राप्त होता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती मालोच्य कवि की भाषा में ऐसे भी दो स्वरों के संयोग प्राप्त होते हैं जिसमें से कोई एक स्वर सानुनासिक होता है । इस प्रकार के प्राप्त उदाहरणों में अधिकांशतः परवर्ती स्वर ही सानुनासिक हैं, यथा इउं - किउं,205 सेठिउं206 प्रई - पइं,198 मई14 इएं - केयइएं,207 मिलिएं208 प्रबं - अवसाणउं,195 डउं196 ईएं - जीएं209 अएं - तेहएं,197 एहएं198 उएं - मुएं210 प्राइं- णाई,199 वण्णाइ200 प्रई - गिद्धई। माउं- जाउं201 ऊएं - समूएं,212 हूएं21 प्राएं - धाएं,202 कसाएं208 एएं - तेएं214 ईनं - वी4204 पोएं- विच्छोएं,215 विनोएं216 उपर्युक्त उदाहरणों में प्रायः सभी परवर्ती अनुनासिक स्वर ह्रस्व ही हैं, केवल एक दीर्घ अनुनासिक स्वर 'पउमचरिउ' में उपलब्ध है जिसे उक्त उदाहरणों में दिखाया गया है। ऐसे विलक्षण प्रयोग कवि की भाषागत विशिष्टता के ही द्योतक हैं। अनुच्चरित प्र (s) आलोच्य कवि की भाषा में अनुच्चरित (s) का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है जिसे संस्कृत में प्रवग्रह (5) कहते हैं यथा जालऽसणि,17 पाऽवलक्खणु,18 तावऽण्णेक्कें,219 झीणाऽवुह220 धण्णोऽसि,921 मायण्णेक्क,222 आदि । स्पष्टतः इस प्रकार के प्रयोग उनके संस्कृत ज्ञान का ही परिचायक है। मालोच्य कवि की भाषा में पदान्त तथा अपदान्त अनुस्वार का बहुलता से प्रयोग होने के साथ ही अपदान्त अनुस्वार के लिए परसवर्ण का प्रयोग भी देखने को मिलता है यथा लङ्का,223 अङ्गारउ,224 अङ्ग; 225 दण्ड,226 पवणञ्जयासु,227 प्रादि सहश प्रयोगों से स्पष्ट होता है कि अपभ्रंश में भी यह नियम विद्यमान था और न्यूनाधिक मात्रा में प्रयोग भी होता था किन्तु मुख्य रूप से अपभ्रंश में अनुस्वार-प्रवृत्ति की ही प्रधानता थी। .. व्यंजन लोप होने पर क्षतिपूत्यर्थ तत्पूर्ववर्ती स्वर के अन्त में भी अनुस्वार का मागम हो जाता है । इसी कारण से स्वर दीर्घ नहीं होता । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं अंसु <अश्रु,228 दसण <दर्शन229 आलोच्य कवि की भाषा में सकारण सानुनासिकता के अतिरिक्त अकारण सानुनासिकता के सदृश प्रयोग भी हैं। पुराने पालोचक भी अकारण सानुनासिकता की बात करते हैं, वैसे ये छन्द के आग्रह के कारण भी हैं और विभक्ति विपंयय के कारण भी। सुग्गीवें रामेंलक्खणे <सुग्रीव, राम, लक्ष्मण,230 “सुरपुरं <सुरपुर,231 सूलं <त्रिशूल282 जिणालयं<जिणालय:33 । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 15 निरनुनासिकीकरण अपभ्रंश में अनुनासिकीकरण के विपरीत निरनुनासिकीकरण की भी प्रवृत्ति देखी जाती है । यह प्रवृत्ति क्षतिपूर्ति या समीकरण के फलस्वरूप है। कहीं-कहीं शब्द फैल भी गया है। खग्ग <खंग,234 भउ <भौं,235 सीहणाय <सिंहनाद286 स्वर परिवर्तन स्वर-परिवर्तन की विविधता और बहुलता के कारण ही अपभ्रंश भाषा के व्याकरण में प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रंश' जैसे सूत्र का निर्माण कर किसी स्वर के स्थान पर किसी भी स्वर के हो जाने का नियम बताया। इस प्रकार की प्रवृत्ति पालोच्य कवि की भाषा में बहतायत से देखी जाती है, यथा- . प्र>मा V V BF V V EAR4 V V महिष>महिसा237 सुन्दर>सुन्दरि238 चंचलचित्त>चंचलचित्ती239 जस्स>जासु 240 तत्र> तेत्थु241 मित्र> मित्ते242 पलट>पलोट्ट 248 समवसरण> समोसरणु पाताल>पयाल245 खारा>खारइ246 इयत> एत्तिय47 उ> उ> ऊ>उ V V V 464 V V ज्योतिषी>जोइस248 मंदोदरी>मंदोयरि249 सुन्दरी>सुन्दरेण250 बन्धु>बन्ध261 जम्बु> जम्बू252 पूर्ण>पुण्ण258 नेत्र>णयण254 धरणेन्द्र>घरणिन्द255 भोग> मुत्त256 अ>मो म>मो मा> मा> प्रो>उ . 'ऋ' का विवेचन वर्णविकार शीर्षक के अन्तर्गत सविस्तार किया जा चुका है अतएव यहां उसका पिष्टपेषण करना समीचीन नहीं। उक्त विवेचित स्वर-परिवर्तन के अतिरिक्त मालोच्य कवि की भाषा में कुछ और भी परिवर्तन द्रष्टव्य हैं जिसमें स्वरलोप और स्वरागम प्रमुख हैं, यथा स्वर लोप मादिस्वर लोप महम> हर्ष,257 माक्रन्दन>कन्दन्ति:58 मध्यस्वर लोप कार्य> कज्ज,259 मांस>मंस260 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 अपभ्रंश-भारती अन्त्यस्वर लोप प्रशंसा>पसंस,261 कन्या> कण्ण12 स्वरागम मादि स्वरागम रहट> प्ररहट्ट,263 रुष्ट> प्रारुट्ठ264 मध्यस्वरागम - स्वप्न> सिविण,265 दंष्ट्रा> दाढा266 अन्त्यस्वरागम हनुमत> हणुउ267 कमल> कमलु 13 24. 32. 33. 1. पउमचरिउ 45.12.12 53.1.1 45.4.11 48.13.1 45.1.7 50.2.7 45.4.8 43.2.5 54.10.1 ---- 44.5.11 44.1.1 50.8.5 43.6.7 47.7.9 47.3.4 43.1.7 45.8.1 47.1.11 51.11.7 1.10.4 44.16.10 43.9.7 49.12.2 43.15.6 43.9.5 43.17.3 50.9.5 44.9.6 48.2.4 46.2.2 567.5 43.2.9 43.5.9 43.2.4 43.3.9 43.8.9 51.2.9 49.14.2 43.2.6 44.1.9 55.10.7 45.12.7 53.10.1 48.11.5 34. 35. 36. 37. 38. 39. 43. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अपभ्रंश-भारती 16. 47. 48. 49. ४०. 86. 51. 87. 88. 53 CA 03. 94. 95. 96. 43.10.9 43.3.10 45.10.10 46.1.1 535.8 43.2.9 43.4.2 53.1.2 43.4.8 48.5.4 44.6.9 43.311 44.7.3 43.7.1 45.15.9 44.5.2 18.10.9 44.7.7 52.9.1 45.6.1 51.6.10 44.4.7 52.2.10 50.10.1 45.4.1 45.4.1 5.4.13 47.5.5 46.1.1 2.3.5 46.1.10 46.6.10 46.6.3 45.1.1 46.5.8 46.10.2 22.5.11 44.12.6 45.10.9 3.1.12 43.3.9 43.5.8 49.8.13 5.3.3 47.6.9 48.5.9 45.15.1 43.16.9 49.8.15 6.5.2 50.2.9 12.4.8 1.6.1 43.16.4 44.8.3 46.2.3 47.5.7 43.18.3 43.18.4 3.1:12 44.5.2 6.15.3 4.4.4 45.12.6 43.6.9 45.9.2 26.20.7 43.11.3 43.7.6 51.2.3 5.2.7 47.9.6 54.9.4 97. 98. 99. 100. 101. 102. 103. 104. 105. 106. 107. 108. 109. 110. 111. 112. 113. 114. 115. 116. 70. 71. 72. 13. 74. 15. 16. 11. 117. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रपभ्रंश-भारती 155. 156. 157. 158. 159 160 118. 119. 120. • 121. 122. 123. 124. 125. 126. 127. 128. 129. 130. 131. 132. 133. 134. 135. 136. 137. 138. 139. 140. 45.12.13 42.10.5 45.9.9 53.6.2 22.4.6 33.2.5 15.12.8 44.5.7 26.6.4 5.6.5 43.3:10 4.11.8 --46.2.3 48.6.7 46.6.2 23.7.4 44.5.7 6.15.6 54.1.9 8.12.13 45.7.9 51.13.6 51.13.5 13.9.6 . 44.8.5 15.14.6 56.11.2 51.8.7 44.5.9 49.9.4 161. 162. 163. 164. 165. 166. 167. 168. 169. 170. 171. 172. 173. 174. 175. 176. 5.5.1 2.15.8 28.2.9 45.15.9 55.11.3 24.5.5 24.5.4 40.2.3 43.2.6 47.10.4 50.3.3 32.16.7 51.14.2 53.2.1 53.2.1 1.14.1 52.8.1 52.8.1 41.2.8 48.2.1 28.6.1 49.2.1 17.15.3 29.7.9 29.7.9 1.16.9 56.10.3 12.6.3 54.9.4 47.9.6 55.4.4 50.11.9 39.1.5 41.18.6 33.13.5 40.6.9 45.4.3 51.14.21 177. 141. 142. 178. 179. 180. 181. 182. 183. 184. 185. 4.2.7 186. 143. 144. 145. 146. 147. 148. 149. 150. 151. 152. 153. 154. 25.13.1 6.6.6 6.3.9 6.6.3 3.12.2 1.7.7 187. 188. 189. 190. 191. 192. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 193. 43.16.4 1.3.1 45.6.1 56.1.8 48.5.3 54.8.9 43.5.3 45.11.10 42.4.5 51.6.10 50.8.7 21.11.4 44.11.9 194. 195. 196. 197. 198. 199. 200. 201. 202. 203. 204. 205. 206. 207. 208. 209. 210. 211. 212. 213. 214. 215. 216. 217. 231. 232. 233. 234. 235. 236. 237. 238. 239. 240. 241. 242. 243. 244. 245. 246. 247. 248. 249. 250. 251. 25 2. 253. 254. 255. 256. 257. 258. 259. 260. 261. 262. 263. 264. 265. 6.10.1 3.1.12 45.2.9 7.12.7 45.5.9 52.2.8 1.2.10 53.11.8 5.1.5 45.15.9 49.9.1 46.7.2 49.8.1 50.8.10 50.13.3 56.8.8 51.9.9 44.10.9 43.9.6 43.6.3 43.10.6 43.7.6 46.6.11 43.19.7 43.10.9 46.2.3 44.5.9 44.5.1 46.6.9 49.8.13 50.5.10 1.10.8 48.15.4 4.9.9 1.6.8 44.6.7 49.1.6 49.4.6 5.6.6 43.3.11 45.12.11 49.10.6 8.12.4 49.13.1 48.15.4 3.1.10 1.10.9 50.10.9 49.12.1 2.14.5 43.15.2 44.15.3 44.8.3 43.12.7 49.16.3 50.6.4 48.13.1 45.7.9 45.2.7 50.8.1 51.6.1 48.11.5 43.13.3 218. 219. 220. 221. 222. 223. 224. 225. 226. 227. 228. 229. 266. 267. 268. 230. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा न जरी गय दिया जोव्वणु ल्हसिउ देव, .... .... .... पढमाउसु जर धवलन्ति प्राय । गइ तुट्टिय विहडिय संधि-बंध, णसुणन्ति कण्ण लोयग निरन्ध । सिर कम्पs मुहे पक्खलइ वाय, गय दन्त सरीरहों णट्ठ छाय । परिगलिउ रहिरु थिउ णवर चम्मू, मह एत्थुजे हुउ गं प्रवरु जम्मु । गिर-इ-पवाह ण वहन्ति पाय, .... - यौवन ढल गया और वे दिन बीत गए । पहले ही स्पर्श में सफदी पोतती जरा श्राती है । गति टूट चुकी है, सन्धि-बन्ध ढीले हो गए हैं। न कान सुनते हैं और न प्रांखों से दिखता है । सिर काँपता रहता है और वाणी मुंह में ही लड़खड़ाती रहती है। दांत टूट गए हैं और शरीर की शोभा क्षीण हो गई है। रक्त गलकर सूख गया है और चमड़ी ही चमड़ी बची है । मैं अब ऐसा बदल गया हूं मानो दूसरा जन्म हुआ हो । अब पर्वतीय नदी के प्रवाह सदृश पैर नहीं उठते हैं । पउमचरिउ 22.1.1-6 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारक - विधान -डॉ. राम बरन पाठक अपभ्रंश भाषा में दो ही कारक हैं-1. ऋजु या अविकारी कारक और 2. तिर्यक् या विकारी कारक । ऋजु या अविकारी कारक में कर्ता, कर्म और संबोधन की विभक्तियों का विधान है जिनमें शून्य विभक्ति का प्रचलन विशेष हो गया था । शेष विभक्तियां तिर्यक् या विकारी कारक का निर्माण करती हैं । इनमें कुछ शब्दों में तृतीया और सप्तमी तथा चतुर्थी, षष्ठी और पंचमी की विभक्तियां समान हैं और कुछ में सब विभक्तियां । 'हि' विभक्ति के · बहुल प्रयोग ने इन्हें एकमेक कर दिया है । अविकारी कारक कर्ता और कर्म एकवचन के विभक्तिरूप पुल्लिंग और नपुंसकलिंग में कर्त्ता तथा कर्म कारक एकवचन का चिह्न अपभ्रंश व्याकररण में साधारणतया समान रहता है। इस नियम तथा सिद्धान्त का प्रतिपादन पउमचरिउ काव्य में विद्यमान है । अकारान्त शब्द रूप में श्रानेवाले प्रत्यय उ — इस प्रत्यय का प्रयोग अपभ्रंश भाषा में श्रमित हुआ है जिसकी पुष्टि हेमचन्द्र, क्रमदीश्वर, त्रिविक्रम, सिंहराज, तर्कवागीश और मार्कण्डेय ने की है । कालिदास से लेकर आज Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 अपभ्रंश भारती प्राधुनिक काल में अवधी तक 'उ प्रत्यय का प्रयोग प्राप्त है। स्वयंभुदेव के परवर्ती कवि पुष्पदन्त, धनपाल, धाहिल, जोइन्दु, रामसिंह, पं. दामोदर आदि अपने-अपने ग्रन्थों में इसकी प्रमुखता की स्वीकृति देने में प्रधान हैं । मध्य भारत में प्रस्तुत कारक चिह्न की प्रधानता है । प्राच्य पूर्वी अपभ्रंश में विशेषतः मगध क्षेत्र में 'उ' प्रत्यय अप्रचलित है। वैसे 'उ' रूप का प्रयोग समस्त अपभ्रंश क्षेत्र में प्रचलित है । सरहपाद के दोहाकोश में 41-44 प्रौर काण्हपा के दोहाकोश में 28-57 प्रतिशत 'उ' प्रत्यय का प्रयोग सुलभ है। बारहवीं शताब्दी के संदेश-रासक ग्रन्थ में 'उ' प्रत्यय की अपेक्षाकृत 'प्रो' का प्रयोग बहल है। मैथिल कवि विद्यापति की 'कीर्तिलता' और 'कीतिपताका' में अपेक्षाकृत 'ओ' प्रत्यय का बाहल्य है। इन ग्रन्थों में यत्र-तत्र 'उ' प्रत्यय का प्रयोग दिखाई पड़ता हैं। उक्त उल्लेख से स्पष्ट है कि 'उ' कारक चिह्न का प्रयोग बहुल है। इसलिए अपभ्रंश को 'उकार बहुला' भाषा कहा जाता है । कालिदास के विक्रमोर्वशीय के अपभ्रंश अंश में उकारान्त की प्रधानता है। स्वयंभूदेव के सभी परवर्ती अपभ्रंश कवियों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है। हेमचन्द्र से पूर्व 'उ' अपभ्रंश भाषा का प्रमुख लक्षण था। स्वयंभुदेव कृत 'पउमचरिउ' में निरपवाद 'उ' का प्रयोग प्राप्य है। 'उ' प्रत्यय 'प्रो' का लघूच्चरित रूप है । 'पउमचरिउ' काव्य में 'उ' का प्रयोग द्रष्टव्य है परमेसरु पच्छिम जिणवरिन्दु चलणग्गे चालिय-महिहरिन्दु । माणुज्जलु चउ-कल्लाण पिण्ड चउ कम्मडहणु कलिकाल-दण्ड ॥ प्रो-यह रूप कर्ता एकवचन में बहुत कम प्रयुक्त है । 'प्रो' का प्रयोग विक्रमोर्वशीय, पाहुडदोहा, भविसयत्तकहा, संदेशरासक, करकंडचरिउ तथा प्राकृत व्याकरण में पुल्लिगवत् स्पष्ट है। प्रछहमाण ने अपने काव्य में 'प्रो' कारक का प्रयोग अधिक किया है जिन्हें डा. भायाणी ने प्राकृताभास की संज्ञा दी है। विद्यापति के कीर्तिलता व कीर्तिपताका में 'मो' रूप का बाहुल्य है । पउमचरिउ में इसका प्रयोग अल्पमात्र है जिसको अपभ्रंश ने लघूच्चरितकर 'प्रो' बना दिया। यह 'प्रो' प्रायः 'उ' के रूप के लिखा जाता रहा है । फिर भी कुछ रूप यथावत् रह गये । स्वयंभुदेव ने कर्ता व कम एकवचन में 'प्रो' का रूप पुल्लिगवत् प्रकट किया है। यथा एह वे हम्रो हयस्स । चोहम्रो गमो गयस्स ॥ वाहिनो रहो रहस्स । चाहनो गरो परस्स ।। पउ, प्रमो-परिवर्धित रूप भी 'पउमचरिउ' में मिलते हैंमोलिय-मालउ सिरेकुन्जरहो । उक्सोह पेन्ति अग्णहो गरहो । तं णिसुणेवि पोखण्डिय-माणउ । ल्हसिउ मियंकु थक्कु जमराणउ ॥ को विवाण-विणिमिण्ण-वच्छयो । वाहिरन्तच्चरिय-पिच्छरो॥ उपर्युक्त प्रत्ययों का प्रयोग पउमचरिउ में स्वयंभुदेव द्वारा कर्ता व कर्म के एकवचन पुल्लिग व नपुंसकलिंग में है । 'उ' और 'अयो' का रूप प्राय 'उ' और 'प्रो' में निहित हो गया है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती प्रा-प्राप्य क्षेत्र के ग्रन्थों में जहां कि निविभक्तिक या प्रकारान्त रूपक वहीं यत्र-तत्र प्राकारान्त रूप भी मिल जाता है । पउमचरिउ काव्य में छन्दानुरोध से 'शब्दान्त' 'प्रा' रूप को प्रयुक्त किया है। कवि ने बहुधा उक्त प्रत्यय एकवचन में प्रयुक्त किया है, वैसे अपभ्रंश वैयाकरण 'मा' विभक्ति चिह्नक का भी निर्देश करते हैं । यथा तहि प्रोसपिरिण-काले गये कप्पयहच्छग्णा। अहो परमेसर कुल-यर-सारा। कोउहल्लु यहु एउ' भारा ॥ खेमज्जलि-राणा प्रवह अयाणा मेल्लि समि जह सक्षि जह समितउ ।। धीर-सरीर वीर तव-सूरा सम्पहुं जीवहुं प्रासाऊरा ॥ इन्दिय पसवण पर-उक्यारा ते कहिं पर पावन्ति भगरा ॥ बह देवहुं जें मज्झे संपा। तो किं कज्जे वाहण हा ॥ चन्दाइच-राहु-अंगारा। अग्णहो अग्ण होन्ति कम्मारा ॥ णिव्वियार जिणवर-परिव्या इव । रह-विहि विष्णाणियरिया इव ।। ए-प्रस्तुत वर्ग में एकारान्त रूप भी पूर्वी अपभ्रंश में सुलभ है-मअरन्दए <मकरन्दक, होमे <होमक, अब्ब्भासे <अभ्यास (सरहपा) । सम्बोधन इस विभक्ति में भी कर्ता व कर्म की भांति प्रत्ययों का सम्बन्ध है। इसके लिए प्रायः निविभक्तिक प्रयोग प्राये हैं। किसी-किसी स्थल पर 'उ' अथवा 'मा' प्रत्यय स्वयंभुदेव ने अपनाया है जय शाह सम्व-देवाहिदेव । किय-णाग-नरिन्द-सुरिन्द-सेव ॥ परमेसर दुज्जर बुट्ट खलु । चन्दोवर गायें अतुल-बलु ॥ तं णिसुरणेवि बम्पर चविड एव । हणवन्तु मुएवि को जाइदेव ॥ ताय-ताय मिलि साहणे गम्पिण स रामचन्यहो । जइ मल्लउ बहिमुह माम महु । तो तिणि विकण्णउ देहि वह ॥ मवे मवे अम्हहुं देज जिण गुण-सम्पति-भारा॥ बहुवचन-विभक्तियां-इस वर्ग में प्रा, उ, हो तथा शून्य (प्र) प्रत्यय का प्रयोग मिलता है । यथा मा-णारा, चवकारा, मचा, जसवन्ता, सरन्ता आदि। हो हो केण विट्ठ परम्पउ ॥ नपुंसकलिंग अकारान्त कर्ता व कर्म के बहुवचन में रूप पुल्लिग से भिन्न होता है । इसकी व्यवस्था अलग है जिसका रूप 'इ' है । यथा-णयणइं । संधि बत्तीस के नवें, दशवें तथा ग्यारहवें कड़वक में नपुंसकलिंग का सुन्दर प्रयोग देखा जा सकता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 अपभ्रंश भारती निविभक्तिक अथवा शून्य विभक्ति मालोच्य विभक्ति में कोई-कोई शब्द अपने मूल रूप में ही प्रयुक्त होकर कर्ता व कर्म तथा सम्बोधन का पूर्णरूपेण कार्य करते हैं। कभी-कभी प्रत्ययविहीन शब्द भी वाक्य एवं अर्थ की समीचीनता में बाधक सिद्ध नहीं होते । उत्तर-पश्चिमी अपभ्रंश में निविभक्तिक प्रयोग प्रल्प हैं । पउमचरिउ में सर्वत्र प्रकारान्त के स्थान पर उकारान्त प्रयोग मिलता है। फिर भी गहन अध्ययन से प्रकारान्त शब्द शून्य-विभक्त्यन्त मिले हैं। प्राच्य अपभ्रंश में निविभक्तिक के रूप बहुल हैं। पउमचरिउ काव्य में कतिपय शब्द प्रयोलिखित हैं किह वाणर गिरिवर उबहन्दि । बन्धेवि मयरहरु समुचरन्ति ॥ पुरिष पवल समन किउकलयलु । केहि मि घोसिउ बउबिहुमस्तु ।। सबमर बि कुवेर पहिहाणे । अट्ठमु कलसु लहउ ईसाणे ॥ मग्ण कलस उच्चाहय प्रणेहिं । लक्स-कोरि-प्रसोहिनिगहि ॥ 2. तिर्यक या विकारी कारक और प्रधिकरण एकवचन के विभक्ति रूप करण और अधिकरण अर्थ में समान प्रत्ययों का प्रयोग। एण पयाव-गवेसणेण, पेस-णेण, कन्दुम-सणेण, प्रत्याण-गिरवन्धणेण, अवलोयणेण, डोयण, पविहारणेण, मन्तणेण । बासु महा बसेपरेण प्रणबसेरण अवलोमतिहुवषु । एक एण का विधान मार्कण्डेय ने किया है । यथासोहेणं विलहेलं बोहम्रो गहन्यो । प्रमरम्परणेणं, संवरणेणं । एं-.-सोएं, खन्धाबारें स्वयंभुदेव ने पउमचरिउ में अधिकरण एकवचन में ऐं, ए, हिं, हों, ऍ, एं, उ, ए, इ प्रत्यय का प्रयोग किया है । किसी-किसी स्थल पर 'शून्य' प्रत्यय प्रयुक्त है। जबकि अपभ्रंश के अन्य ग्रन्थों में उपर्युक्त प्रत्यय के अतिरिक्त हि, अँ, अ, म्मि भी प्रयोग किया गया है । यथा एसीसे सि ऍ-वर-पलकें, पहु-पंगणएँ, अकें, परें, भवराइएँ, हिउत्सरसेड्ढिहिं, दाहिणसेड्ढिहिं, दिलिहि एंस-हत्थे, थवन्ते, कण्डे, खग्नें ऍ=लय-मण्डपे, खग्गे, सिरें इ=सूलपाणि, म्मिलक्खणम्मि निविभक्तिक अथवा शून्य प्रयोग पायाललङ्क बहुवचन विभक्तिरूप ... . मालोच्य कारक में हि और हिं प्रयुक्त हुआ है । संस्कृत का 'प' प्राकृत में 'ह' हो गया है। यही रूप अपभ्रंश में भी प्रचलित है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 25 ___एमिः> एमि> एहिं । एहिं> एहि विकास हुआ। दूसरा रूप (म) अहिं> अहि । देखिए अजयरेहि, सिरि-णासेहि, उर-कर-चरण-कण्ण-णयणासेहिं, करेहिं, सहस-सहजसरेहिं, उभय-करेहि, सहि, पायोरहिं । ऍ=करें उ=उज्वलु इंवायरणपुराण हि-तुरगेहिं, मत-मायंगेहि, सिविया-जणेहि, पवर-विपाणेहि, वाहणहिं निविभक्तिक प्रयोग - वर करवाल-हत्थ 3. संप्रदान, अपादान और संबंध एकवचन के विभक्ति रूप . .अपादान हे-वण-वणिमहे, सुह-जणिमहे, उज्जहे, दुग्गज्झहे एण-जमेण ए-हुप्रासे, काले, विणासे, अपभ्रंश साहित्य में सम्बन्ध कारक एकवचन के चिह्न सु, हो, हु, स्स, ह तथा अ या शून्य है परन्तु स्वयंभू ने अपने काव्य पउमचरिउ में 'हो' और 'स्स' का प्रयोग किया है। जिणिन्दहो, परणिन्वहो, गिरि-वेयड्डहो, रावणस्स । संप्रदान, अपादान और संबंध के बहुवचन के विभक्ति रूप हवरंगणाहँ, घेणुवाह, णराहिवाह, हुँ-गन्दगहुँ, सन्दणहुँ, णयवराहुँ। हयवराहुँ, मण्डलाहुँ, हलाहुँ, इस महाकाव्य में स्वयंभू ने सम्बन्ध कारक बहुवचन में हं का प्रयोग तो किया ही है, इसके अतिरिक्त हिं का भी प्रयोग सुलभ है। हं=कन्वरण रयणहं, मि-तिहुअण-परमेसरहं हिंप्रमर-कुमारेहि, उत्तरदाहिण-संड्ढिहिं स्त्रीलिंग प्रकारान्त या प्राकारान्त रूप स्त्रीलिंग अकारान्त व प्राकारान्त कर्ता व कर्म एकवचन में शून्य विभक्ति प्रत्यय प्रथवा कभी-कभी (बहुत कम) 'उ' प्रत्यय प्रयुक्त हुआ है तथा बहुवचन में 'उ' एवं 'ओ' का ग प्राप्त है। उक्त 'उ' प्रत्यय के विषय में तर्कवागीश का मत स्पष्ट है, "स्त्रियां सुपो लुक प्रकृतेश्च ह्रस्वः स्याद्वा न वा" अर्थात् स्त्रीलिंग में सु का लोप और प्रकृति को ह्रस्व विकल्प से होता है। तदन्तर इहान्यतोऽपिक्वचिद् उ प्रयोज्यो । 'राहीउ बालाउ कण्हु' राहीउ बालाउ= राधावाला । स्त्रीलिंग में प्रत्यय के विकल्प अल्प हैं। करण कारक एकवचन में ए (ह्रस्व रूप ह) बहुवचन में भी वही रूप, अपादान एवं सम्बन्ध कोरक एकवचन में है, बहुवचन में हुँ, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 अपभ्रंश भारती अधिकरण कारक एकवचन में हि, बहुवचन में हि, सम्बोधन कारक एकवचन व बहुवचन में शून्य विभक्ति का प्रयोग मिलता है, कहीं-कहीं बहुवचन में 'हो' का प्रयोग प्राप्त हो जाता है। कर्ता और कर्म एकवचन में शून्य विभक्ति का प्रयोग मिलता है यथा शून्य-अनंगकुसुम, चन्दलेह, गाहा-लक्खणु, तथा बहुवचन में 'उ' का यथा--- उ--- कण्ण उ करण एकवचन में एँ और बहुवचन में हि का प्रयोग स्वयंभू ने किया है यथाए-महिलाएँ हि-विज्जहिं तथा अपादान एकवचन में हे चिह्न का प्रयोग मिलता हैहे-सुमितहे, सीयहे और अधिकरण बहुवचन में हिं का प्रयोग, यथामन्दोदरि-सीयाएविहिं पउमचरिउ महाकाव्य में अपादान व सम्बन्ध कारक का बहुवचन तथा अधिकरण कारक का एकवचन स्त्रीलिंग अकारान्त व प्राकारान्त का प्रयोग शून्यवत है । स्त्रीलिंग अकारान्त शब्द के लिए जो प्रत्यय पउमचरित में प्रयुक्त हैं वे ही प्रत्यय स्त्रीलिंग में इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त, और ऊकारान्त में पाये जाते हैं । इस प्रकार स्त्रीलिंग शब्दों में अविकारी और विकारी कारकों का विधान अधिक स्फुट और स्पष्ट है और शून्य एवं हि विभक्ति से समृद्ध माधुनिक भारतीय भाषाओं में कारक विधान का आधार अपभ्रंश भाषा की संरचना का ही विकसित रूप है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पउमचरिउ' पर आधारित संधि-विधान -सुश्री प्रीति जैन अपभ्रंग में संधि का स्वरूप सर्वथा नया है, उसकी संरचना नई है । अाज तक इस पर विचार नहीं हया है। इसलिए आधुनिक भारतीय भाषाओं के व्याकरण में जहां कहीं भी संधि का परिच्छेद आता है वहां संस्कृत की नियमावलि उद्धृत करके उन भाषाओं में संस्कृत के शब्द ढूंढ कर उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत कर दिए जाते हैं। इनमें भाषा का मूलरूप पीछे छूट जाता है, पादत्त प्रधान हो जाता है और वही व्याकरण की परिसीमा में बांध दिया जाता है । इसलिए आधुनिक भारतीय भाषामों में सही संधि-नियम न खोजे-शोधे गए हैं और न पढ़े-पढ़ाए गए हैं । यह सभी जानते हैं कि इन भाषाओं की जननी अपभ्रंश है और अपभ्रंश के व्याकरणों में भी इस प्रोर कोई अंगुलिनिर्देश नहीं है। इसलिए यह सोचा गया कि अपभ्रंश में निगमनशैली से संधि रचना/संरचना के नियम देखे जाएँ जिससे उनका एक ढांचा तैयार हो सके । प्रादत्त शब्दों के कारण अपवादों का होना भी अपरिहार्य है अतः उनका निर्देश और उनसे न पड़नेवाले प्रभाव का संकेत दोनों ही नियम-निर्धारण में आवश्यक होते हैं। उन अपवादों की भी उस नियम की विस्तृति से सही-सही व्याख्या आवश्यक होती है । इस तरह के अध्ययन से अपभ्रंश के व्याकरण में एक नए अध्याय का प्रारंभ तो होगा ही, आधुनिक भारतीय भाषाओं की संधि-संरचना को खोजने-शोधने के लिये एक पीठिका भी तैयार होगी। इस संधि-रचना Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 अपभ्रंश-भारती को 'पउमचरिउ' के शब्द और रूप दोनों ही में निरखा-परखा गया है जिसका चंचूग्राही प्रयत्न विद्वानों के सामने है। शब्द संधि + नियम-1 यदि प्र (स्वर) के परे प्र (स्वर) हो तो पूर्ववर्ती प्र का लोप हो जाता है और परवर्ती प्र अपने मूलरूप में सुरक्षित रहता है, अर्थात् प्र+प्रअ, यथाकम्मट्ठ कम्म-+अट्ठ अअअ 1.1.4 वामद्ध वाम+अद्ध अ---अ-अ 1.6.8 गयणगण गयण+प्रङ्गण अ+अ अ 1.6.9 मोहन्धार मोह-अन्धार अ+अ ग्र 1.16.9 वामकरगुट्ठउ वामकर+अगु?उ प्र+अ= 2.7.4 णीलजण णील+अञ्जण प्र+ = 2.9.5 भरियञ्जलि भरिय+अञ्जलि अ+अ अ 2.16.9 कुसुमञ्जलि कुसुम+अञ्जलि अ+अग्र 2.17.5 झारणग्गि झाण+-अग्गि प्र+ = 3.2.3 वत्तीसट्ठारह वत्तीस+अट्ठारह अ+प्रअ 2.17.7 गोट्ठङ्गणे गोट्ठ+अङ्गणे अ+अ-अ 4.1.2 अवुहन्भन्तरे अवुह +अब्भन्तरे अ+ = 4.1.1 सव्वगु सव्व + अगु अ+प्र= 4.14.2 मउलञ्जलि मउल+अञ्जलि अ+ = 3.7.8 महण्णव मह-अण्णव अ- प्र-अ 5.16.3 पय--अई अ+ = 1.8.2 वयण वयण+प्रई अ+ = 1.8.1 + पयई अपवाद प्रमा नीचे दिये हुए शब्दों में प्र+प्रपा संधि का स्वरूप दीख पड़ता है। इसका कारण यह है कि ये अपभ्रंश के मूल और प्रचुरप्रयुक्त शब्द नहीं हैं। इन्हें संस्कृत से ज्यों का त्यों आदत्त किया गया है केवल ध्वनिसादृश्य से अपभ्रंश की ध्वनि में परिवर्तित भर किया गया है । अतः इन उदाहरणों से पहला नियम खण्डित नहीं होता, यथा कल्पामर कप्पामर पंचाणुव्रत पंचाणुव्वय धर्माधर्म धम्माहम्म कप्प+अमर पंच+अणुव्यय धम्म+अहम्म अ+ग्र=मा 2.1 अ-अप्रा 2.10 अ---ग्र=पा 3.11 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती कोपानल नराधिप शून्यारभ्य लब्धावसर गुणालङ्करिएं संसाराराएं चुगास सव्वाहरण सुविणावलि धरणंजयासिय कोवारणल गराहिउ अ + श्राश्रा, यथा परमायरिय भवियाया परमागम कमागय कम + आगय पवाहावङ्गिय पवाह + प्रावङ्गिय पुलिणालय पुलिण + प्रालकिय चन्दाणण भोयासत्तउ सुगारष्णु लद्धावसरेहि पुण्णाउस रणट्टारम्भु गोउराई मन्दिराई देवाविय नियम - 2 नियम को भाँति ही यदि श्र स्वर के परे श्रा स्वर हो तो पूर्ववर्ती श्र का लोप हो जाता है और परवर्ती या अपने मूलरूप में सुरक्षित रहता है, अर्थात् कोव + प्रणल र + हिउ सुष्ण+ धरण्णु लद्ध + प्रवसरेहि परम + आयरिय भविय + आयर परम - आगम गुण + प्रालङ्करिएं संसार + आराएं चुष्ण+प्रासङ्गे सव्व + श्राहरणु सुविरण + प्रावलि धरणंजय + प्रासिय चन्द + रणरण भोय + आसत्तउ पुण्ण + ग्राउस रगट्ट + आरम्भु गोउर + आई मन्दिर + आई देव + श्राविय परवर्ती अपने मूलरूप में सुरक्षित रहता है, पर्यात् इ प्र + इ = इ, प्र + ई = ई, यथामहिहरिन्दु जिवरिन्दु महिहर + इन्दु जिणवर + इन्दु अ + अ = श्रा 4.4 अ + अ = 4.12 अ + अ = श्रा 5.4 अ + अ = 5.12 - - अ + आ = श्रा अ + आ = श्रा अ + आ = अ + आ = अ + आ = अ + आ = अ + आ = श्रा अ + आ = नियम - 3 इसी प्रकार छ स्वर के परे इ स्वर हो तो पूर्ववर्ती का लोप हो जाता है और 1.1 1.1 1.2 1.2 1.2 1.2 1.2 अ + आ = 1.5 अ + आ = 1.14 अ + म्राया 1.14 अ + आ = श्रा 1.16 अ + मा 2.9 प्र + आ = श्रा 2.9 अ + आ = 2.9 अ + श्रा = श्रा 2.9 अ + आ = अ + आ = अ + आ = 1.7.7 1.7.7 1.8.3 29 अ+इइ 1.7 अ +इ = 1.16 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 कुन्द ग्रहमिन्दहु विसहरिन्द रिन्दहुं ईन्दु पंचिन्दिय कम्मिन्धणइं चामरिन्द सोहिल्ल दिट्ठी रिट्ठी भरतेश्वर परमेश्वर जिनेश्वर विमलेक्षु कुन्द + इन्दु हम + इन्द विसहर + इन्द गर + इन्दहुं ईसारण + इन्दु पंच - इन्दिय कम्म+इन्धराई चामर + इन्द सोह + इल्लं दिठ्ठी + ई रिट्ठ + ई तडुज्जल हत्थुत्थलिय सव्वजणुच्छवेरण गाणुज्जलु जम्पत्ति णीलुप्पल भर हेसर हो परमेसर हो जिणेसरेण farara भर ह + ईसर हो परम + ईसर हो जिण + ईसरे विमल + क्खुक्व अपवाद अ + ई = ए, अ + ई = ए इसके उदाहरण भी मूलतः संस्कृत के उदाहरण हैं जो सह-संधि अपभ्रंश की ध्वनियों से निर्गत हैं । इसमें संधि का कोई मूल प्राकार नहीं दीख पड़ता इसलिए ये उदाहरण भी अ +इ = इ, अ + ई = ई नियम को खण्डित नहीं करते । केसर + उग्घवियं कव्व + उप्पलं सुरभवण + उच्छलिय णारण + उग्ग महो तड + उज्जल हत्थ + उत्थलिय सव्वजण + उच्छवेण अ + इ = इ 3.1 अ इइ 3.4 अ णाण - उज्जलु जम्म+ उप्पत्ति गील + उप्पल इइ 3.4 अपभ्रंश-भारती अ - इ इ 3.4 अ - इ इ 3.5 अ +इ = इ 3.2 अ - इ इ 3.3 अ + इ = इ 3.3 अइ मं. अ + ई = ई मं. अ - ई = ई 1.14.9 नियम – 4 इसी पूर्वलिखित नियम के आधार पर प्र स्वर के परे उ स्वर हो तो पूर्ववर्ती प्र का लोप हो जाता है और परवर्ती उ अपने मौलिक स्वरूप में विद्यमान रहता है अर्थात् अ +उ = उ, यथा केसरुग्घवियं कव्वुप्पलं सुरभवच्छ लिय मह अ + ई = ए 3.13 अ + ई = ए 3.13 अ + ई = ए 4.13 अ- ! - ई=ए 5.1 अ +उ = उ 1 अ +उ = उ 1 अ +उ = उ 1.1 अ +उ = उ 1.1 अ +उ = उ अ +उ = उ अ + उ उ अ +उ = उ अ +उ = उ अ +उ = उ 1.2 1.3 1.5 1.7 1.16 2.2 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती एक्कुणसट्टि खणु पट्टणु रायगिहु सेहरु चरणोपरि चरणोवरि अष्टोत्तर अट्ठोत्तर शिलोपरि सिलोवरि मानुसोत्तर माणुसोत्तर दानोज्झर दाणोज्झरउ शीलोपवास सीलोववास षष्ठोपवास छट्टोववा अपरोप्पर अवरोप्पर a+ए=ए, यथा एक्क्कए अवरेrsहि कहि एक्क + उणसट्टि खण+उ पट्टण रायग+उ सेहर+उ अपवाद अ +उ = प्रो इसके अन्तर्गत आनेवाले शब्द भी मूलरूप से संस्कृत के शब्द हैं जो केवल ध्वनि आकार में भिन्न दिखते हुए भी अभिन्न हैं, इसलिए संस्कृत भाषा की ध्वनियों का अनुगमन करते हैं । इस कारण प्रपभ्रंश भाषा की शब्दावली की संरचना इनसे भी अव्याख्येय है । ये केवल काव्यभाषा की प्राचीनता का निर्देश भर करते हैं, संरचना का नहीं । चरण + उवरि एक्कमेक्क किले से वेणु +उ करेवि आयरेवि कुम्में समरे आ + ए = ए. यथामहए विहे अट्ठ + उत्तर सिल + उवरि + उत्तर नियम - 5 इस नियम में / श्रा स्वर के परे ए होने पर ए हो शेष रह जाता है और पूर्ववर्ती स्वर /श्रा का लोप हो जाता है । माणुस दाण + उज्झरउ सील + उववास छट्टु + उबवासे अवर + उप्पर एक्क + एक्कए अवर + एक्कहि अण्ण+ एक्कहि एक्कम + एक्क किलेस + एक्क + एक्क ra + एप्पिणु कर + एवि 'आयर + एवि अ +उ = उ 5.9 अ +उ = उ मं. 3 अ+उ= उ अ +उ = उ अ +उ = उ कुम्म+एं समर + ए 1.4.9 1.4.9 1.4.9 महा + एविहे अ +उ = प्रो 2.2 भ + उ = प्रो 2.1 अ +उ = प्रो 2.3 अ+उ=ओ 3.7 अ +उ = ओ 3.6 अ +उ = प्रो 3.11 अ +उ =ओ 5.3 अ +उ = ओ 6.7 अ + ए =ए 3.4 श्र+ए=ए 3.12 अ + ए =ए 3.12 अ + ए =ए 4. 7 अ+ए=ए 5.15 अ + ए =ए 1.1 अ+ए=ए 1.8.1 अ + ए =ए 1.8.1 31 अ + ए =ए 1.10.2 अ+ए=ए 1.10.2 अ+ए=ए 6.1 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 नियम - 6 इस नियम का निर्देश यह है अ/भा पूर्ववर्ती स्वर के अनन्तर यदि यो स्वर प्राए प्रो तो केवल ओ स्वर ही रह जाता है और संधि-प्रक्रिया में अ/प्रा लुप्त हो जाते हैं अ + प्रो = श्रो, यथा जलोह किरणोह विसोसहि जलोल्लिय जल + ह किरण + श्रोह् विस+सहि जल + बोल्लिय कप्पयरु + उच्छणा प्रपभ्रंश - भारती अ + प्रो = अ +ओ = नियम-7 जब स्वर की स्वर से अनुवर्तता होती है तो पूर्व का स्वर लुप्त हो जाता है और उत्तर का शेष रह जाता है, यथा उउउ, यथा कप्पयरुच्छण्णा रड्डा + प्रादु जाला + प्रावलि 1.2 2.6 अ +ओ = 97.4 - अ + ओ = 28.3 उ+उड 1.11 नियम – 8 नियम सं. 7 के सादृश्य पर अनुवर्तिता स्वरों की हो तो अन्तिम दीर्घस्वर शेष रह जाता है और पूर्व का लोप हो जाता है । आ + श्राश्रा, यथा रड्डाबद्धु जालावलि ग्रा+थाधा 1.3 प्रा+थामा 28.2.5 निष्कर्षत: प्रपभ्रंश भाषा की प्रकृति ह्रस्वीकरण की है। यह प्रकृति संधि-विधान और समास - विधान में भी दीख पड़ती है। यही अपभ्रंश के शब्द और रूपों की कहानी है। अपभ्रंश से निःसृत भाषाओं की भी यही प्रकृति है जिसे सामने लाने की आवश्यकता है, तभी उनकी सन्धि और समासों की व्यवस्था सही संदर्भ में संभव हो सकेगी। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयंभू और पक्ष-विचार -डॉ. छोटेलाल शर्मा 1.1 क्रिया के जिस रूप से व्यापार की विभिन्न स्थितियां, दशाएं या प्रक्रियाएं प्रतिभात होती हैं उसे 'पक्ष' कहते हैं। क्रिया माध्यम है और 'पक्ष' व्यापार की सूक्ष्म अवस्थाओं एवं कार्य-संपादन के विभिन्न भावों का प्रत्यायक-प्रदर्शक । इसलिए 'हॉकेट' 'पक्ष' को 'क्रिया की परिरेखा या समोच्च रेखा' कहता है ।1 'पक्ष' शब्द अंग्रेजी शब्द 'एस्पेक्ट' का रूपान्तर है और 'एसपेक्ट' रूसी शब्द 'विद' का । अंग्रेजी के इस शब्द की पाश्चात्य भाषाव्याकरगणों और विवेचनाओं में अनेक व्याख्याएं हैं। इसलिए इसके प्रयोग में विविधताजन्यभ्रांति का घटाटोप है। एक अोर रूप-रचना के छाए रहने के कारण 'प्रेजेंट सिस्टम', 'एग्रोरिस्ट सिस्टम' 'परफेक्टिव सिस्टम' आदि लकार-वर्गीकरण विद्यमान थे और इनके प्रभाव से 'ग्रीक' और 'अंग्रेजी' में लिखे 'हिटनी' के संस्कृत व्याकरण तक में 'इम्परफेक्टिवफार्म', 'एग्रोरिस्ट फॉर्म' प्रादि का प्रयोग हया है तथापि 'इम्परफेक्ट' के रूप वस्तुतः 'परफेक्टिव एस्पेक्ट' के हैं। इसी प्रकार अंग्रेजी के लकार के नाम 'प्रेजेन्ट परफेक्ट', 'पास्टपरफेक्ट' यह भ्रांति उत्पन्न करते हैं कि यहां 'परफेक्टिव एस्पेक्ट' है, यद्यपि वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। हिन्दी व्याकरण में 'पक्ष' पर कोई विचार नहीं है क्योंकि अंग्रेजी भाषा के अपने व्याकरणों में भी यह पृथक् संकल्पना नहीं थी और न ही संस्कृत व्याकरणों में । प्राकृत और अपभ्रश के व्याकरणों और विवेचनाओं में भी इस पर विचार नहीं है क्योंकि ये व्याकरण भी संस्कृत व्याकरण के अनुकरणों पर लिखे गए । प्राकृत ने ध्वनि ही बदली थी अपभ्रंश ने संरचना भी और अपने को देशी भी घोषित किया, फिर भी प्रभाव बना ही रहा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती क्योंकि देशी भाषाओं का भी यही भाग्य है। यह काल का उपांग ही बना रहा-'इससे अनेक अनिश्चय की अर्थ छवियाँ प्रस्तुत हैं, यहां तक कि आसन्न भविष्यत् भी....कृदन्त और क्रियापद के संयोग से 'काल' वैविध्य को प्रकट किया गया है। भूतकालिक कर्मवाच्यकृदन्त 'पासी' के साथ मिलकर पूर्ण भूत का भाव प्रकट करता है और 'सि' के साथ मिलकर पूर्ण वर्तमान का।'5 1.2 'पक्ष' एक अत्यन्त जटिल और उलझनभरी व्याकरणीक कोटि है। इसके लिए 'वृत्ति', 'दशा'7, और 'प्रकार' आदि पर्यायों का प्रयोग प्रचलित है। यह 'काल' और 'वृत्ति' से प्रायः मिश्रित दीख पड़ता है, इसीलिए डॉ. ज.म. दीमशित्स ने पक्ष' को काल का आश्रित कहा है, फिर भी 'काल' के साथ 'पक्ष' की उपस्थिति क्रिया को बहुत अधिक स्पष्टता तथा संबंधित समय में कार्य संपादन के सूक्ष्म भावों को व्यक्त करने की सामर्थ्य प्रदान करती है। 'काल' क्रिया की रूपरचना को प्रभावित करता है और 'वृत्ति' तथा 'पक्ष' वाक्य संरचना को। आधुनिक आर्य भाषाओं को 'योजक' और 'रंजक' क्रियानों की विशिष्टता प्राप्त होने के कारण 'पक्ष' की पहचान सरल है, फिर भी इनके परंपरागत व्याकरण इस बारे में सर्वथा मौन हैं। उन्होंने 'पक्ष' को विचार के योग्य भी नहीं समझा है। वे 'पक्ष' को 'काल' में ही निहित मानते हैं-'क्रिया के उस रूपान्तर को काल कहते हैं जिसमें क्रिया के व्यापार का समय तथा उसकी पूर्ण व अपूर्ण अवस्था का बोध होता है।' 'संस्कृत में भी 'काल' की निश्चित अभिव्यक्ति पर जोर नहीं दिया जाता था।'10 प्राचीन, आर्य भाषाओं में कालभेद के लिए क्रिया का वास्तविक रूप था ही नहीं, वहां भी पूर्णत्व, अपूर्णत्व, समयनिष्ठ, अव्याहत, पुनरार्थक, उपक्रामक, सातत्य द्योतक, प्रगति द्योतक, समाप्ति द्योतक आदि विभिन्न क्रियारूपों द्वारा 'काल' के सूक्ष्म भेदों को प्रकट किया जाता था। इनके द्वारा ही धीरे-धीरे 'काल' प्रणाली का विकास हा जिसका प्राचीन आर्यभाषाओं में दर्शन होता है।'11 भारोपीय भाषाओं में क्रियानों के सम्पन्न होने के क्षण (भूत, वर्तमान और भविष्यत्) का महत्व नहीं था, आवश्यक यह था कि क्रिया की कल्पना उसकी प्रगति की दृष्टि से हई है अथवा विकास की किसी निश्चित अवस्था की दृष्टि से, और क्या यह अवस्था प्रारंभिक काल की थी अथवा अंतिम काल की, या क्रिया केवल एक बार हुई या बार-बार, क्या उसकी समाप्ति हुई या उसका कुछ परिणाम हुआ या नहीं।12 1.3 'पक्ष' की पृथक् व्याकरणीक कोटि के रूप में संकल्पना और पहचान अभी अर्ध दशक से बनी है। इसके तात्विक विवेचन का प्रारंभ 'कामरी' की 'एस्पेक्ट' पुस्तक के प्रकाशन के साथ हया है, वैसे 'रूसी' प्रभृति 'रोमांस' भाषाओं में क्रिया के रूपान्तरण द्वारा पूर्णता-अपूर्णता आदि 'पक्ष' विभेदों को प्रदर्शित करने की पहल विद्यमान थी। आज भी इन भाषाओं में 'काल' की अपेक्षा 'पक्ष' की चेतना प्रधान है। 'स्लाव' भाषाओं में पाए जानेवाले 'पक्ष' संबंधी विभिन्न प्रकार्यों की चर्चा करते हुए जर्मन विद्वानों ने विशेषरूप से इस बात पर बल दिया है कि 'पक्ष' के दो निश्चित आयाम हैं। पहले आयाम का संबंध 'पक्ष' के वस्तुपरक संबंध से है जिसे क्रियार्थ का समय संबंधी प्रक्रिया विधि (प्राक्शन सार्ट) कहा जाता है। दूसरे पायाम का संबंध 'पक्ष' के भावपरक संदर्भ से है। ‘पक्ष' की वास्तविक स्थिति ये भावपरक संदर्भ तक ही मानते हैं। वास्तविक 'पक्ष' का संबंध उस समय की अभिव्यक्ति के साथ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रश-भारती 35 रहता है जिसका संदर्भ प्रोक्ति है। इसमें समय की सूचना मात्र क्रिया के अर्थ पर निर्भर नहीं करती, बल्कि पूरे वाक्यार्थ को अपना आधार बनाती है। क्रियार्थ की प्रक्रिया में निहित समय और प्रोक्ति के विषय में निहित समय एक नहीं होता और वास्तविकता तो यह है कि इस दो प्रकार के समय का परस्पर संबंध ही सही अर्थों में 'पक्ष' की प्रकृति को निर्धारित करता है। अतः 'पक्ष' के दो युग्म हैं-1. पूर्णकालिक बनाम अपूर्णकालिक तथा 2. पूर्ण बनाम अपूर्ण । 'पूर्णकालिक पक्ष' में विधेयवाची प्रक्रिया का समय अनिवार्यतः प्रोक्ति के विषय के दायरे के भीतर होता है और 'अपूर्णकालिक पक्ष' में विषय का समय विधेयवाची प्रक्रिया के समय के दायरे के भीतर । 'पूर्ण पक्ष' में पूरी प्रक्रिया वक्ता के दृष्टिकोण में रहती है और क्रिया अंतिम परिणति तक पहुंच चुकती है इसलिए आगे और होने की संभावना समाप्त हो जाती है, 'अपूर्णपक्ष' में काम शेप होने का भाव बना रहता है ।'13 कुछ विद्वान् 'पूर्णकालिक', 'अपूर्णकालिक' तथा 'पूर्ण', 'अपूर्ण' में भेद न कर इन्हें 'व्यापार' 'फल' से समीकृत करते हैं ।14 लेकिन बात बारीकी में नहीं उतर पाती। 1.4 आर्य भाषाओं में ही नहीं विश्व भाषाओं के व्याकरणों में भी 'पक्ष' का विवेचन बहुत स्पष्ट नहीं है, यद्यपि यह 'काल' की अपेक्षा अधिक प्राचीन, मूलभूत एवं व्यापक रहा है। 'संस्कृत' आर्य परिवार की सर्वाधिक प्राचीन भाषा है। उसके व्याकरणों में न 'पक्ष' या 'तात्पर्याय' शब्द ही है और न अंग्रेजी के 'एस्पेक्ट' अर्थ में विवेचन ही, हाँ 'धात्वर्थनिर्णय में प्रकारान्तर से संकेत अवश्य है। 'भर्तृहरि' ने क्रिया में क्रियातत्व के अस्तित्व के लिए क्रमिकता का निर्देश किया है यावत्सिद्धमसिद्धम् वा साध्यत्वेनाभिधीयते । माश्रितक्रमरूपत्वात् तत क्रियेत्यभिधीयते ।15 इसके छह भाव विकार हैं प्राविर्भाव, तिरोभाव, जन्म, नाश आदि । यही बात भर्तृहरि ने भी अपने वाक्यपदीय (1.3 ) में कही है आध्याहितकलां यस्य कालशक्तिमुपाश्रितः । जन्मादयो विकाराः षड्भावभेदस्ययोनयः ॥ प्राविर्भाव तिरोभाव जन्मनाशोतथापरे । षटसु भावविकारेषु कल्पितोव्यावहारिको 116 यास्क ने व्यापार की छह अवस्थानों-जन्म, नाश, वृद्धि, क्षय, परिवर्तन और स्थिति का निर्देश किया है जो 'पक्ष' के निकट हैं षडभाव विकाराः भवन्तीति वाायरिणः । जायतेऽस्ति विपरिणमतो वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यतीति ।17 ये क्रम से उत्पन्न होनेवाले अनेक अवयवीभूत व्यापार ही हैं जिन्हें संकल्पनात्मक प्रखंडबुद्धि से समग्ररूप में ग्रहण करना आवश्यक है। गुणाभूतैरवयवः समूहः क्रमजन्मनाम् । बुद्ध या प्रकल्पिताभेदः क्रियेतिव्यपदिश्यते ।18 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 अपभ्रंश-भारती 'पतंजलि' द्वारा 'अभ्यावृत्ति' शीर्षक के अन्तर्गत की गई चर्चाएं वैसे 'एस्पेक्ट' तो नहीं कही जा सकतीं, लेकिन बहत दूर भी नहीं हैं। 'अभिमुखीवृत्ति' ही 'अभ्यावृत्ति' है19 जो भिन्नकाल की क्रियाओं में होती है-'अभ्यावृत्तिहिभिन्नकालानां क्रियाणां भवति ।'20 'क्रियाभ्यावृत्ति' की तरह नित्य और 'पाभीक्ष्ण्य' भी क्रिया मे संबंद्ध हैं। बार-बार क्रिया की प्रवृत्ति 'अाभीक्ष्ण्य' है और जिस क्रिया को कर्ता प्रधानरूप से लगातार करता है, उसे 'नित्य' कहते हैं । इनमें अन्तर भी है-'पाभीक्ष्ण्य' में क्रिया की प्रावृत्ति प्रतीत होती है और 'नित्य' में क्रिया का अविच्छेद जान पड़ता है। इसी प्रकार “क्रिया समभिहार' शब्द भी क्रिया के बार-बार होने अथवा उसके तीव्र स्वरूप को व्यक्त करता है-'पौनः पुन्यभृशार्थो वा क्रियासमभिहारः' ।21 इस तरह 'धात्वर्थनिर्णय' में क्रमिक व्यापारयुक्त 'साध्यावस्था' भी निहित है और 'फल' रूप 'सिद्धावस्था' भी क्योंकि प्रत्येक क्रिया में 'व्यापार' के साथ 'फल' का योग होता है। फल और व्यापार के बीच जन्य-जनक संबंध है-फल जन्य है और व्यापार जनक । इस प्रकार अवयवभूत गौण क्रियाओं की क्रमिक अवस्था से जो व्यापार होता है उससे फल की निष्पत्ति होती है। इस तरह यहां 'पक्ष' का वैज्ञानिक विश्लेषण अछुता रह गया है और 'काल', 'वृत्ति' तथा 'पक्ष' तीनों को लकार से अभिहित कर दिया गया है। 1.5 'काल', 'पक्ष' और 'वृत्ति' भिन्न-भिन्न व्याकरणीक कोटियाँ हैं । 'काल' और 'पक्ष' का व्यापार के भौतिक अंग से संबंध है। इनकी सत्ता भी भापामात्र में निहित होती है। भाषा के बाहर का काल समय कहलाता है जो अनादि, अनन्त और अविभाज्य भी है और अविच्छिन्न रूप से निरंतर एक दिशा में गतिमान भी। काम चलाने के लिए इसको विभाजित कर लिया जाता है-क्षण इसकी सबसे छोटी इकाई है ज्यामितीय बिन्दु के सदृश जो सर्वथा पायामविहीन है । इसके तीन संघटक हैं-कोई एक संदर्भ बिन्दु या निर्देशांक, अवधि की कोई न कोई धारणा और आगे-पीछे का क्रम । समाज की दृष्टि से सार्वजनीन निर्देशांक ही महत्वपूर्ण है, इसलिए सामान्य और नियत घटना ईस्वी, विक्रमीय, संवत्, शती जैसे पायामों में की जाती है, साल, महीना, दिन, घंटा आदि अवधि के अवयव हैं। लेकिन भाषा में प्रोक्ति और प्रकथन में एकजनीन निर्देशांक और अवधि के दर्शन होते हैं क्योंकि वह वक्ताकेन्द्रित होता है। सामान्यत: जगत् का प्रत्येक कार्य व्यापार इस लौकिक समय के धरातल के किसी न किसी बिन्दु पर ही घटित होता है। जब यह व्यापार भाषा में समय-संदर्भ के प्रस्तुत होता है तो सामान्यतः प्रोक्ति का समय ही निर्देशांक का काम करता है जो उसे भूत, वर्तमान या भविष्यत् जैसे कृत्रिम खंडों में बांट देता है । यह कृत्रिम इसलिए कहा जाता है कि प्रवाह का कोई बिन्दु रोककर स्थिर नहीं किया जा सकता। यह संदर्भ बिन्दु ही उक्ति का शुन्य बिन्दु कहलाता है22 और इसके परिप्रेक्ष्य में विभाजित कालखंड व्याकरणिक काल । 1.6 'काल' समय नहीं है, समयबोध है-वक्तानिष्ठ, वक्ता का मनोभाषिक जगत् । यह लौकिक घटना संदर्भ की तरह निरपेक्ष और स्थिर नहीं है बल्कि गतिमान और सापेक्ष । अत: समयवाची क्रियाविशेषणों और परसर्गों का मूल्य भी सापेक्षिक है क्योंकि ये उक्ति समय पर नहीं, उसमें वर्णित या निहित किसी अन्य समय-बिन्दु पर आश्रित रहते हैं इस प्रकार 'काल' कार्य व्यापार के समय को किसी अन्य संदर्भ समय से जोड देता है जो उक्ति समय भी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 37 हो सकता है या उसमें निहित कोई अन्य समय बिन्दु भी। इस तरह काल घटना-समय और मंदर्भ समय के बीच विद्यमान संबंध का व्यतिकरण या व्याकरणीकरण है। वक्ता कभी एक समय बिन्दु से बंधा नहीं होता, वह तो एक समयावधि में फैला होता है, और यह समयावधि कितनी छोटी बड़ी है, यह भी वक्ता पर ही निर्भर होता है, इसलिए समय बिन्दु का प्रयोग न होकर समय विस्तृति का प्रयोग होता है। इसी व्यक्ति निष्ठता के कारण 'काल' को डाइक्टिक कहा गया है। वक्ता वर्तमान में रहते हए भी वर्तमान से बंधता नहीं है, वह प्रतीत की घटना का 'स्मरण' करता है और भविष्य की घटना की प्रत्याशा' । यह 'स्मरण' और 'प्रत्याशा' की शक्ति उसे समय के बंधन से थोड़ा बहत मुक्त कर देती है। उसकी 'कल्पना' और 'तर्कणाशक्ति' उसके निर्देशांक के वर्तमान से हटाकर भूत या भविष्य में स्थापित कर सकती है। इस प्रकार निर्देशांक के आगे-पीछे खिसकने से और 'स्मरण' तथा 'प्रत्याशी' के संयोग से अनेक 'काल' स्थितियां बन जाती हैं। __ 1.7 'काल' संरचना के स्तर पर क्रिया कोटि है और अर्थ संरचना के स्तर पर वाक्यात्मक कोटि क्योंकि यह वाक्य के अन्य समय सूचक तत्वों से प्रभावित प्रतिबंधित होता है । कभी-कभी 'पक्ष' तथा 'वृत्ति' में भी 'काल' का अप्रत्यक्ष बोध निहित रहता है । यह क्रिया पद बंध के भीतर भी सर्वथा पृथक इकाई नहीं है। भाषा में कोई भी ऐसा 'काल', 'वृत्ति', या 'पक्ष' नहीं है जिमका प्रार्थी क्षेत्र केवल वहीं तक सीमित हो जहां तक उसके व्याकरणिक नाम से व्यक्त-संकेतित होता है। 'काल' का समय विभाजन अन्तत: मनोवैज्ञानिक है और मुल्यमापेक्षिक । 'पक्ष' तथा 'काल' के प्रार्थी क्षेत्र भी इतने अन्तमिश्रित हैं कि प्रायः व्याकरणों में इन दोनों के क्रिया रूपों को संयुक्त रूप से प्रस्तुत करने की परंपरा रही है। इनके बीच कई ऐसे महत्वपूर्ण सह प्रयोगात्मक संबंध हैं जो अन्यथा स्पष्ट नहीं हो सकते 123 1.8 यह बात अब स्पष्ट है कि क्रिया व्यापार का एक बाहरी काल होता है और दूसरा भीतरी जिमका बाहरी या लौकिक धरातल की नापजोख से कोई संबंध नहीं होता है क्योंकि इसका फैलाव कार्यारंभ से कार्यान्त तक रहता है। असल में कार्य-व्यापार के इस प्रांतरिक क्षेत्र का बोध ही 'पक्ष' है जो केवल भाषा में ही संभव है। यह प्रांतरिक काल बोध इतना स्वतंत्र भी है कि जो न लौकिक काल से जुड़ा है, न उक्ति के शून्य बिन्दु से और न काल खंड से । यह केवल कार्य-व्यापार की पूर्णता-अपूर्णता की किसी अवस्था का बोध कराता है। यह अलग बात है कि इस पूर्णता-अपूर्णता की अवस्था का बोध मानसिक रूप से भूत या वर्तमान के साथ मिश्रित कर दिया जाता है और जो बाहरी संरचना में वांछित काल-चिह्नक के साथ प्रकट होता हो, फिर भी यह कोई अनिवार्यता नहीं है। यह काल-चिह्नक बिना भी व्यक्त हो सकता हैं। इनमें भूतकालिक रूप पहले से ही विवादास्पद रहे हैं । डॉ. रवीन्द्र श्रीवास्तव इसे 'काल' निरपेक्ष मानते हैं और कामताप्रसाद गुरु तथा अशोक केलकर इसे कालयुक्त क्रिया और सामान्यभूत के नाम से अभिहित करते हैं । 24 ___1.9 कामरी ने 'पक्ष' को कार्य-व्यापार के प्रांतरिक 'काल' क्षेत्र को देखने की विभिन्न दृष्टियां कहा है ।25 इस प्रकार 'पक्ष' के अन्तर्गत केवल वह समय-विस्तार पाता है जो व्यापार या घटना के प्रारंभ से अंत तक फैला रहता है और जो केवल प्रांतरिक क्षेत्र है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 अपभ्रंश-भारती इसमें व्यापार या घटना के लौकिक जगत् में वास्तविक रूप से घटित होने का भाव अन्तनिहित रहता है, संभावित या संकल्पित व्यापार से इसका कोई संबंध नहीं है। इस तरह पक्ष का बोध मूलतः केवल उन्हीं कार्य-व्यापारों के संबंध में संगत है जो लौकिक धरातल पर घटित हो रहे हैं अथवा हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त जो कार्य-व्यापार लौकिक जगत् में घटित नहीं हुए हैं और जो वक्ता के मस्तिष्क में ही इच्छा, अभिवृत्ति, संभावना प्रादि के रूप में निहित हैं, उनका संबंध 'वृत्ति' से होता है, 'पक्ष' के क्षेत्र में वे नहीं पाते । इस तरह ‘पक्ष' कार्य व्यापार की भौतिक अवस्था है और 'वृत्ति' मनोवैज्ञानिक । यही कारण है कि नोवेल 'वृत्ति' को कार्यव्यापार का मनोवैज्ञानिक 'पक्ष' कहते हैं, 'वृत्ति' कार्य-व्यापार की उस अवस्था या रीति को व्यक्त करती है जिसे वक्ता मानसिक स्तर पर अपनी चेतना तथा दृष्टिकोण से देखता है । उसकी यह दृष्टि इच्छा, कल्पना, संकल्प या अनुमान आदि से प्रेरित हो सकती है । इस प्रकार 'वृत्ति' से कार्य-व्यापार के प्रति वक्ता की अभिवृत्ति या कर्ता और कार्य-व्यापार के संबंध में उसके दृष्टिकोण का बोध होता है। अतः 'पक्ष' और 'वृत्ति' के भिन्न आयाम हैं। __2.0 आधुनिक भाषाविद् 'पक्ष' की घटनापरक व्याख्या से ही संतुष्ट नहीं है, वे उसकी विकासात्मक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार 'पक्ष' अब केवल किसी व्यापार या घटना के ही संदर्भ में नहीं देखा-समझा जाता है ।26 इससे व्यापार की वास्तविक कालावस्था-प्रांतरिक कालक्षेत्र के अलावा, व्यापार से एक दम पूर्व या बाद की वे कालावस्थाएं भी शामिल हैं जो घटना या व्यापार के 'पक्ष' बोध को प्रवाहित करती हैं। यहां क्रिया-व्यापार की परिधि प्रांतरिक 'काल' क्षेत्र से कुछ बाहर तक आ जाती है, और 'पक्ष' के तीन आयाम हो जाते हैं-पूर्ववर्ती, समवर्ती और परवर्ती। इससे अलग 'पक्ष बोध' का एक अन्य आयाम भी है जो 'पक्ष' के प्रांतरिक समय-विन्यास का निर्माण करता है । इसका बाह्य संदर्भ-समय या लौकिक समय से कोई संबंध नहीं है, यह तो 'पक्ष' बोध में निहित व्यापार के प्रांतरिक समय का विन्यास या बुनावट है जिसये यह बोध होता है कि व्यापार क्षरणपरक है या विस्तारपरक, एक बार घटित होता है, या बार-बार अर्थात् एकल घटना है या पावृत्तिपरक, प्रक्रियांत अथवा अवस्थान्त, स्थित्यात्मक है या प्रक्रियात्मक, उपलब्धि है या कार्यसिद्धि । ये सभी 'पक्ष' के लक्षण हैं जो 'पक्ष' को गहनता और विशिष्टता प्रदान करते हैं । 'पक्षबोध' का यह आयाम रेखीय न होकर उत्तराधर क्रमिक है। कुछ क्रिया विशेषण वाक्य के क्रियारूपों द्वारा व व्यक्त 'पक्ष' बोध को परिमाणित या परिसीमित करते हैं और प्रायः समधर्मी 'पक्षों के साथ सहप्रयुक्त होते हैं । ये क्रिया विशेषक विस्तार या अवधि सूचक होने के कारण परिमाणक कहे जाते हैं और रेखीय होते हैं । इनके विपरीत क्षणपरक क्रियाओं के साथ निश्चित समय बिन्दु या क्षण को सूचित करनेवाले क्रिया विशेषण प्रयुक्त होते हैं । ये 'पक्ष' परिमाणक क्षणपरक क्रिया विशेषण कहलाते हैं। प्रावृत्तिपरक व्यापार को सूचित करनेवाले क्रिया विशेषणों का प्रयोग अभ्यास के साथ रहता है । कुछ व्यापार ही ऐसे हैं जिनमें प्रकृति से ही प्रावृति भाव निहित रहता है । कभी-कभी कालचिह्नक योजक क्रियामों के प्रयोग से भी 'पक्ष' के मूल्यों में सूक्ष्म अन्तर पा जाता है। अत: पक्ष के भेदोपभेदों को नीचे के पारेख से प्रकट किया जा सकता है ।27 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती पूर्णत्वद्योतक 1 प्रारम्भत्वद्योतक 2 3 अपूर्णत्वद्योतक स्थित्यात्मक सातत्यद्योतक प्रारंभत्व प्रारंभ पूर्वस्व द्योतक द्योतक यक्ष 1 12. T पौनः पुन्य द्योतक 2.10 भूतकालिक कृदन्त + रंजक क्रिया 'प्रासी' 1. hard सच्चु जं दिपा प्रसि 2. 3. 4. कहिउ प्रासि महु परम जिरिन्दें 1 29 पेसिय वेवि प्रासि देसन्तर 130 नित्यत्वद्योतक 5. 6. · 7. 8. कहि सि सि जो चरणेहि । 35 9. 10. 11. 5 उत्परिवर्तनद्योतक सातत्यद्योतक वर्धमानत्व द्योतक 2.1 पूर्णत्व बोधक पक्ष — इसमें व्यापार समग्ररूप से पूर्ण होता है और घटनारूप में देखा जाता है जो प्रकरण अथवा संदर्भाश्रित रहता है । इसमें 'रंजक क्रिया' की वरिंका कार्य व्यापार की पूर्णता को एक निरपेक्ष प्रायाम प्रदान करना है जो प्रांशिक पक्षात्मक लक्षणों से युक्त होने के कारण 'नियमित चिह्नक वर्ग' में नहीं आती। इसका मुख्य क्रियाओं से सह प्रयोगात्मक संबंध है । यह क्रिया के कोशीय अर्थ को तो प्रभावित करती है, लेकिन व्याकरणिक अर्थ में नहीं । स्वयंभू ने 'आसी' और 'सि' रंजक क्रिया का चिह्नक रूप में अधिक प्रयोग किया है अभ्यास प्रगतिद्योतक द्योतक 28 विज्भु इमु मंडलु, बहुचिन्तिय फलु, सि समप्पिड वप्पें 131 मित्तियहि प्रासि जं वुत्तउ | 32 अट्ठाव होन्तु ण वि तावट्टइ प्रासि माएँ गिलिउ 133 जाश्रो सि सि कासी विसऍ 1 34 जासि श्रासि हउं सरण पयट्टउ 136 जं लइ श्रासि पुण्णेहि विणु......... रिसि णिसियरि ऍ प्रसि जं गिलियउ ....... 137 138 एउ गं जाणहुं प्रासि किउ अम्हहिं को प्रवराहो 139 39 2.11 भूतकालिक कृदन्त + रंजक क्रिया 'सि' - 1. रिणमन्ति सि इन्द्रेणदेव 140 2. लाइ तुज्भु जुज्भु एत्तडउकाल, ढुक्का सि सीहदन्तन्तरालु 141 सो लक्खि सिसई लोयहि 142 3. समाप्तिद्योतक Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 अपभ्रंश भारती ___2.2 अपूर्णत्व बोधक पक्ष-यह व्यापार के स्वभावतः पूर्ण होने की प्रक्रिया है जिसकी परिणति मुख्यतः सहायक पद चिह्नक' रचना के द्वारा होती है। यह किसी न किसी रूप में मूल 'पक्ष' प्रत्ययों के प्राशय को गुणात्मक रूप में प्रभावित करती है। इससे कार्य व्यापार की पूर्णता या अपूर्णता से सम्बद्ध किसी विशिष्ट ‘पक्ष' का उद्घाटन भी होता है । 'वृत्ति' सूचक रचनाएं प्राय: ‘पक्ष' निरपेक्ष होती हैं और 'पक्ष सापेक्ष' रचनाएं 'काल' निरपेक्ष । केलान ने सामान्य अवस्था को ही काल निरपेक्ष रचना माना है और उसे फिर पूर्ण-अपूर्ण क्रिया से जोड़ा है। उसके अनुसार सामान्य अपूर्ण क्रिया 'पक्ष' वह क्रिया-रूप है जो 'काल' निरपेक्ष है और क्रिया 'पक्ष' के अनुसार अपूर्ण । इसके अनेक प्रकार बताए जाते हैं जिनका विवरण नीचे दिया गया है। 2.2 10 प्रारंभत्वद्योतक पक्ष-इसके द्योतन में स्वयंभू ने प्रमुखतः 'लग्ग' रंजक क्रिया का प्रयोग किया है, कुछ स्थल संदर्भाश्रित भी हैं जिनमें क्रिया का क्रमिक अन्वय मौर वर्तमानकालिक कृदन्त की पुनरूक्ति प्रमुख है2.2.11 धातु+-क्रियार्थक प्रत्यय+रंजक क्रिया लग्ग 1. ................."णासेवि सलिल पिएवऍ लग्गा । 2. .................."चिन्तेवएँ लग्गु विसण्ण मणु । 3. मउडेण मउडु तु वि लग्गु................... 145 4. दददुर रडेवि लग्ग णं सज्जण ।46 5. वेतालऍ महि कंपणहे लग्ग 147 6. मगहाहिउ पुणु वेदणहं लग्गु 148 2.2.12 धातु + वर्तमान तिङतरूप+रंजक क्रिया लग्ग 1. अवरोप्परु मुहई णिएह लग्ग 149 .........."लग्ग वियारेहिं दुग्णयसामिरिण । 2.2.13 धातु+इज्ज+वर्तमान तिङतरूप-रंजक क्रिया लग्ग 1. सो विहि छन्देण सामण्णहि मि तुलिज्जइ लग्गउ ।।। 2.2.14 वर्तमानकालिक कृदन्तीय क्रमिकता एवं पुनरूक्ति 1. छिज्जन्तमहग्गयगरु अगत्त, णिवडन्त समुदय धवल छत्तु ।।2 2. तणुतावइ लावइ पेम्म जरु, पायल्लइ सहुई कुसुमसरु । विधति काम उक्कोवई, रोवइ उज्जंगल लोयगई।53 2.2.2 प्रारंभपूर्वत्व बोधक पक्ष-प्रारंभ से पूर्व की स्थिति में उक्ति के शुन्य बिन्दु तथा कार्यारंभ बिन्दु के बीच के अन्तर को क्षीण करने या न करने का वक्ता का मानसिक प्रयास रहता है जिसे मानसिक घटना या वृत्ति के रूप में नही बल्कि कार्यारंभ की पूर्व सूचना या कार्यारंभ के एकदम पूर्व के व्यापार के रूप में लिया जा सकता है इसमें कार्यारंभ की तात्कालिकता का बोध निहित रहता है। 2. .... Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 2.2.20 पातु+कियार्थक प्रत्यय 1. रणं मुच्छऍ किउ सहियत्तणउ, जं रक्खिउ जीवुगमणमणउ ।।4 2. अज्ज वि ममरेहिव कमल-सरे । अच्छेवउ वरिस विराड घरे ।।4ए 3. प्राय सव्वई वचेवाइं, इंदियई पंच खंचेवाई। 54बी 2.2.21 क्रियार्थक रूप + कर्तृत्व प्रत्यय 1. सामिय पसाय-सय-रिण-मणाहं, वन्दियजण-अरिणवरिय-धणाहूँ ।। 2. तुहुँ दीसइ दणु माहप्प चप्पु 156 ___3.. हरि धुरे देप्पिणुधएँ विजउजणहों पेक्खन्तहों। णिग्ग उ इन्दइ णं बंधणारु हणुवन्तहों । 2.2.22 पक्षपरिमाणक जाम-ताम+क्रियाभ्यास 1. लेइ ण लेइ जाम मरु णन्दणु, ताम पधाइउ वरणु स-सन्दणु 158 2. करें धणुरुह लेइ ण लेइ जाम, सकलत्तउ लक्खणु दिट्ठ ताम 150 . 3. किरजाम भिडन्ति भिडन्ति णं वि ताव णिवारिय वारऍहिं 160 4. भिडइ ण भिडइ जाम्ब णल-पील गरवराहँ, ताम्ब विहीसण रहु दिण्णअंतराले 161 2.23 पक्ष परिमाणक जाम-ताम+तात्कालिक व्यापारसूचक मूल क्रिया 1. एव भणेवि लेइ किरजावहिं, लोरिणउ जेम विलेविय तावहिं 162 2. एत्तडिय परोप्परु बोल्लजाम, चित्तंगुस-सन्दणु पाउताव 163 3. किर अवरु चाउ करें चडइ जाम्ब, सयखंड-खंडुरह कियउ ताम्ब 164 उप्पएँ विजाम, किरधरइ पुरन्दरु पत्तुताम । 5. हणुवन्ते महोअरु सिडिउजाम, सोजम्बुमालि सम्पत्तु ताम्ब 166 6. धणु सव्वहाँ लक्खण विरहियेह, लइउलइउ हत्थहों पडइ । 22.24 कारण-कार्य विपर्यय 1. मणि रोसु पवट्ठिउ वल्लहहों, किरदेइ दिट्ठतरु पल्ल्वहो । सातत्य बोधक पक्ष-सातत्य बोधक 'पक्ष' से कार्य-व्यापार के उक्ति के शून्य बिन्दु या किसी संदर्भ समय में जारी रहने की अस्थिर अवस्था का ज्ञान होता है। इसमें प्रवधिपरक क्रिया विशेषणों का प्रयोग संभव है। स्वयंभू ने इस प्रकार के व्यापार से संबंधित अनेक मंगिमानों को गूंथा-पिरोया है2.3.0 वर्तमानकालिक कृदन्तरंजक क्रिया 1. णिय लील( सीया-सुरवइ, सई अच्छरहिं रमन्तु थिउ 169 2. जे विरमन्ता मासि लक्षण रामहु संकेवि । परवड सुरयासत्त प्रावण थिय मुहु ढंकेवि । 70 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 3. कसु केरउ एवड्डु दुहु, वणे अच्छहों जेण रूअन्तियउ ।।1 4. पुणु विपलाउ करन्ति ण थक्कइ, कुढे लग्गउ लग्गउ जो सक्कइ2 5. सहुँ साहणेण कंटइय देहु, प्रावन्तउ दीसइ कवणु एहु ।73 2.2.31 क्रियार्थक क्रिया+मूल क्रिया 1. रयणिहि-भवणु व णिदिवउ, किर उट्ठवण करेइ पडीवउ । 2.2.2 पूर्वकालिक क्रिया+मूल क्रिया 1. परियंचेवि णवे वि थुणेवि रिणविट्ठ, सयल विजणुवय लयन्तुदिट्ठ ।75 2. एम भणेवि तेण हक्कारिउ, 'कहिँ तियले विजाहि' पच्चारिउ । . 2.2.33 क्रियायंकाभ्यास 1. कहिं वि घोर-भंडणं, सिरोह देह खंडणं । णरिन्द-विन्द दारणं, तुरंग-मग्ग वारणं ।77 2.2.34 वर्तमानकालिक कृदन्ताभ्यास 1. भज्जतं महरहाई जुज्झतं सुहडाई, णिग्गंत अंताई । भिज्जत गत्ताई, लोहंत चिन्हाई, तुटुंत छत्ताई ।78 2. वुच्चइ मरह णराहिवइ, सर मज्झि तरन्ततरन्ताई।79 3. तेहएँ वि महारणे, मेइणि कारणे, रहोतरन्तितरन्ति पर 180 2.2.35 भाववाच्याभ्यास 1. अहो धरहि विहीसण जत्ताई, वणे मेच्छहि पिट्टिज्जन्ताई ।81 2.2.36 अनुकरणात्मक क्रियाभ्यास 1. दुमुदुमु दुमंत दुंदुहि वमाल घुमु घुमु, घुमंत घुमुक्कतालु । सिमि, सिमि सिमंत झल्लरि णिहाउ ................ 182 2: कत्थइ वोल्लावोल्लि वरावरि, कत्थइ ढुक्का ढुक्कि धराधर 183 2.2.37 अवधिपरक क्रियाविशेषण/गरणनीय/प्रगणनीय 1. जो जाय-दिणहों लग्गेवि सणेहु, सोबल-लक्खणहं खयहाँ णेहु ।84 2. अज्जहों लग्गेवि तुहं महु राणउ ।85 3. वसुहार पवरिसिय पुणु विताम, अण्णु वि अट्ठारह पक्खजाम 186 4. तीस पक्ख पहु पंगणऍ, वसुहार वरिट्ठी ।87 5. तहाँ दिवसहों लग्गेवि अधु वरिसु, गिन्वाण परिसिय रयण वरिसु ।88 2.2.38 प्रकरणाश्रय/संदर्भाश्रय 1. जिह जिह मारुइ समरें णभज्जइ, तिह तिह कण्ण णिरारिउ रज्जइ ।89 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 43 2. का विकन्त सिरे बन्धइ फुल्लई, वत्थई परिहावेइ अमुल्लई 190 3. पुणु तिहि मि जगहुँ दरिसावियउ, सिव-साण-सिवाले हिँखावियउ 191 2.2.39 क्रमिकता-क्रियान्वयता 1. जं असहेज्जी मुक्क वणन्तरें, मुच्छउ एन्ति-जन्ति तहिँ अवसरें 2 2. रणे परिसक्कन्ति भमन्ति किह, चल चंचल विज्जुल पुंजजिह 193 3- ण जलद्द ण चन्दण कमल सेज्ज, ढुक्कन्ति जन्ति, अण्णोण्ण वेज्ज । 4 4. वट्टइ तल्लवेल्ल सत्तमयहाँ मुच्छउ एन्तिजन्ति अट्ठमयहो । 5 5. तहिँ तिणि वि कइ वि दिवस थियइँ, जिण पुज्जउ जिण-ण्हवणइं कियइं । 2.2.4 वर्धमानत्वघोतक पक्ष-मूलक्रिया के साथ सातत्यपक्ष जुड़ा होने पर इसका भान होता है । यह सातत्यपक्ष का एक विशिष्ट रूप भर है1. तिण्णि वि कण्णउ परिवढियउ, णं सुक्कइ कहउ रसवड्ढियउ । 2. जाई वि ढिल्ली होन्ताई, ताइ मि रण रस पुलउग्गयइं । णिएँ वि परोप्परु चिन्धाइं, सूहडहं कवयइँ फूटविगयइं 198 3. अभिटु परोप्परु जुज्झु घोरु, सरि सोत्त-सउत्तर पहर थोरु । छिज्जन्त महग्गय गरुअगत्त, णिवडन्त समुद्धय-घवल छत्त । 2.2.5 पौनः पुन्य घोतक पक्ष-इस 'पक्ष' के द्वारा कथन के क्षण में व्यापार के बार-बार होने की सूचना मिलती है। यह एक प्रकार से समय विस्तार का बोध है। 2.2.50 वर्तमानकालिक क्रियाभ्यास 1. लब्धइ पेसणे सामिय पसाउ, लभइ किएँ विणऍ जणाणुराउ । 100 2. साहारु ण वन्धइ एइजाइ, अरहट्टजन्ते णव घडिय णाई 1101 2.2.51 पक्ष परिमाणक क्रियाविशेषण+वर्तमान कालिक क्रियारूप 1. जेत्तिय दणु दु-जउ संभवइ, तेत्तिय पहरन्तहुँ जसु भमइ ।102 2.2.6 अभ्यासद्योतक पक्ष-सामान्यतः अभ्यासद्योतक पक्ष के लक्षण आवृत्ति, नित्यता या अनुक्रम माने जाते हैं, परन्तु जिन व्यापारों का संबंध भौतिक या मानसिक अवस्था से होता है, उन पर प्रावृत्ति, नित्यता या अनुक्रम लक्षणों को उस रूप में प्रारोपित नहीं किया जा सकता, जिस रूप में प्रावृत्तिपरक या प्रक्रियात्मक व्यापारों पर । प्रतः अभ्यासद्योतक पक्ष में अवस्था-विस्तार और सुदूरता निहित लक्षण रहता है। इसमें 'सातत्य' तथा 'वर्धमानत्व' की अपेक्षा अधिक गहनता और तीव्रता होती है। 2.2.60 बच्छोलता दुज्जण मुह इव विन्धण सीलई, विस-हल इव मुच्छावण लीलई।103 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 2. विण्णि वि तण-ते याहय-तिमिर, विण्णि वि जिण-चरण-कमल-ण मिर ।104 3. णिल्लोणु मुमइ सलोणु सरइ णिय सहाउ ऍउ तियमइहे ।105 2.2.61 नित्यता और प्रावृत्ति 1- अहि प्रसइ तो वि सिहि महरवाणि 1106 2. मणु जुज्झहों उप्परि तासु णिरारिउ अच्छहइ ।107 3. खल खुद्दई दुक्कियकाराई, णारइय णरय-पइसाराई ।108 4. अच्चंत सहंत चिंततिहि मि, पहुसेव सुदुक्कर सब्वहम्मि । 100 2.2.7 प्रगति द्योतक पक्ष-इससे व्यापार के निरन्तर विकास की प्रक्रिया सूचित होती है अर्थात् ब्यापार पूर्ण नहीं हुआ है, बल्कि उसके विकास की प्रक्रिया प्रगति पर है। 2.2.70 भूतकालिक कृदंत+धातु+इज्ज+वर्तमान कलिक तिङ्तरूप पत्तिय एवहि रावणु जिज्जइ, णिय मणे सयल संकवज्जिज्जइ । मिलिउ विहीसणु सुलंक पईसहो, लग्गउ करयले सीयहलीसहो ।110 2.2.71 भूतकालिक कृदन्तों को विकसनशीलता _.......... परिउली दिवसु अत्थमिउ मित्तु । अणुरत्त सज्ज ण वेस अाय, णं रक्खसिरत्तारत्तजाय । बहलन्षयार पुणु ढुक्कु राइ, मसि खप्परु विहिउ समत्थ णाई।11 2.2.72 वर्तमानकालिक विकसनशील क्रियाभ्यास 1. भीसण रयणि हिं भीसण अडइ, खाइ व गिलइ व उवरि व पडइ ।112 2. वइरई ण कुहन्ति जज्जरई, हउ हणई णिरुत्त सत्तमवन्तरइं ।113 2.2.8 समाप्ति घोतक पक्ष-इसमें कार्य की पूर्णता प्रांतरिक काल क्षेत्र के भीतर से तथा प्रारंभ, मध्य और अन्त प्रादि विभिन्न चरणों से बनी एक प्रक्रिया की समाप्ति के रूप में देखी जाती है। /हो, लग्गा, /ग्रासी, कर आदि रंजक क्रियाएं इसकी द्योतक हैं। 2.2.80 विशेषण+रंजक क्रिया हो । 1. कि दुव्वलि हूयउ कुमार तुहुँ ।14 2. मुहली हूयउ कम जुयलु किं रणेउर सदें ।115 3. गउ वन्दणं उत्तिएँ जिणवरासु, पासण्णी हूउ महीहरासु । 4. गय पाएं बुड्ढी हूयएँ ण मऍण जि कह व ण मारियइं ।117 2.2.81 विशेषण+रंजक क्रिया कर् 1. जेण णिरत्थी किउ णलकुव्वर ।18 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 45 2.2.82 भूतकालिक कृदन्त+रंजक क्रिया 'पासो' 1. णिसि णिसियरिएँ प्रासि, जं गिलियउ णाई पविउ जउ उग्गिलियउ ।119 2.2.83 भूतकालिक कृदन्त 1. पुण्ण-महक्खएँ पेक्खु किह वज्जमएँ वि खम्मे घुणु लग्गउ ।120 2.3 स्थित्यात्मक पक्ष- इसमें स्थित का बोध क्रिया रूप से न होकर संपूर्ण वाक्य द्वारा होता है और विशेष अस्तित्व या स्थिति की सूचना देता है जिसकी कालावधि अनिर्धारित होती है । इसलिए इसे 'कालानुवर्तन हीनता' नाम भी दिया गया है । 121 वर्तमानकालिक अस्तित्ववाचक क्रिया में कालावधि के आदि और अंत को सीमित नहीं किया जा सकता हैं । 122 2.31 वर्तमानकालिक कृदन्त-+रंजक क्रिया अच्छ् __ 1. पहिलऍ पहरद्ध वि चिन्तमाणु, अच्छइ णिगूढ पुरिसेहि समाणु ।123 2.3.2 क्रियार्थक क्रिया--रंजक क्रिया सक्क 1. सिरिमाल धणुद्धरुरणुमुहे, दुद्धरु घरेवि ण सक्किउ सुखरेहि ।124 2.3.3 पक्ष परिमाणक1. जेत्थु पईवु तेत्थु सिंहणज्जइ, जेत्थु अणंगु तेत्थु रइ जुज्जइ । जेत्थु सरणेहु तेत्थु पणयंजलि, जेत्थु पयंगु तेत्थु किरणावलि ।125 . 2. थिय चउपासे परम जिणिन्दहों, णं तारागह पुण्णिम-चन्दहों। वइरई परिसेसिव थिय वणयर, महिस तुरंगम केसरि कुंजर ।126 2.3.4 नित्यत्व बोधक पक्ष—इससे कार्य व्यापार की प्रावृत्ति या एक अनिश्चित अवधि तक विस्तार का बोध होता है जो वर्तमानकालिक अन्वय में गृहीत रहता है । 1. जो णरवइ अस सम्माणकरु, सो पत्तिय अत्थ-समत्थहरु ।127 2. चोर-जार-अहि-वइरहुं, हुअवहुऽमरहुं, जो अवहेरि करइ णरु । सो अइरेण विणासइ, वसणु पयासइ मूलतलुक्खउ जेमतरु । 128 अपरिक्खिउ किज्जइ कज्जण वि ।129 4. णिग्गुण जइवि धम्मु परिचत्ता, ते जि बन्धु जे अवसर पत्ता 1130 गाह ण होइ एहु भल्लारउ, सव्वहं जणण-वइस वड्डारउ ।131 6. कोदीसइ अत्थमिएं सूरें । 132 7. सच्चु महन्तउ सव्वहीं पासिउ ।133 8. सुहिजे सूलु पडिकूलउ, परजें सहोयरु जो अणुअत्तइ ।134 2.4 उत्परिवर्तन घोतक पक्ष-उक्त पक्ष से किसी अन्य या प्रागत व्यापार या साधन से प्रभावित होकर परिवर्तित होने का भाव द्योतित होता है ।135 यह एक प्रकार का कर्मवाच्य है । 136 और मुख्यतः भूतकालिक कृदन्त में संग्रथित है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 1. 5. 6. 7. 2. 8. अपभ्रंश-भारती 3. यह स्वयंभू के 'पक्ष' विचार का चंचुग्राही प्रयास है । जब आधुनिक भारतीय भाषात्रों में 'पक्ष' संबन्धी अनेक रूप अन्वेष्य हैं तो उसके प्रारंभिक रूप में भी वे बीज विद्यमान होने चाहिए जो प्रागे जाकर वृक्ष बने हैं। हिन्दी के अनेक रूप तो वैसे के वैसे ही हैं । अतः यह प्रारंभिक होते हुए भी विचारोत्तेजक होगा और हिन्दी प्रभृति आधुनिक भारतीय भाषाभों का अपभ्रंश से द्रवीभूत रूप में सम्बन्ध जोड़ने में दिशा-निर्देशक भी, प्रभाव का संकेत बहिरत्व का सूचक होता है, न कि अपनत्व और प्रान्तरिकता का । जहँ चन्दकन्तिमणि चंदियउ ससि मरणेवि प्रनदियेहे जे वंदियउ । जहँ सुरकन्तिमरिण विप्रियउ, रवि मरणेवि जलाई मुमन्ति दिय । 137 ऐत्तडउ जाम जंपइ वयणु, गउताम दिवायरु प्रत्थवणु । पडवण्णु रयणि वित्थरिउ तमु, कउहंतर कसणि करण खमु 138 छुडु जे छुडु जे सरहो आगमणे, सच्छाय महादुमजायवरणे | 139 1. हाकेट, ए कोर्स इन मार्डन लिंग्विस्टिक्स, न्यूयार्क, 1958, पृ. 273 । 2. ल्योन्स, इंट्रोडक्शन टु थ्यॉरीटीकल लिंग्विस्टिक्स, 1968 पृ. 313 । 3. 4. रमानाथ सहाय, हिन्दीकाल, वृत्ति और पक्ष, गवेषणा, 1978 अंक 31, पृ. 20-33 । (अ) पालित्तणरइया वित्थरो तस्सदेसी वयहि, पदालिप्त सूरि, याकोबी, सनकुमार चरित की भूमिका, 1921 पृ. 178 ৷ ( आ ) पाययभासा रइया भाहट्ठयदेसी वयणणिबद्धा, उद्योतन सूरि, लीलावई की भूमिका, भा. वि. भ. पृ. 178 । (इ) भारिणीयं च पिययभाए रइयं मरहट्ठ देसी भासाए, कोऊहल लीलावईगाहा, 13/30 1 (ई) सक्कयपायय पुलिरणालंकियदेसी भासा उभयतडुज्जल । स्वंयभू पउमचरिउ, भयारणी, 1953, 1.2.3-4 । ( उ ) ण हउं होमि वियव खणु ण मुररामि लक्खणु छंद देसिण वियारणमि । पुष्पदन्त, महापुराणु, डॉ. हीरालाल जैन, भा. दि. जैन ग्रंथमाला बंबई, 1941 1.8.10 । (ऊ) ततो देशे देशे प्रति विषयं लोक: पामर जनो यया यया गिरा भ्रष्ट्या । पं. दामोदर, उक्ति व्यक्ति प्रकरण श्लोक 37, विवृति । (ए) देसिल वचना सवजन मिट्ठा, विद्यापति, कीर्तिलता, 1.21-22 डॉ. भयाणी, पउमचरिउ, भाग-1, भा. वि. भ., 1953, भूमिका पृ. 68.69.71 । डॉ. बाबूराम सक्सेना, सामान्य भाषा विज्ञान, हि. सा. स. प्रयाग, 1965, पृ. 142 । वेन्द्रियेज, अनु. बलवीर, भाषा इतिहास की भाषा वैज्ञानिक भूमिका, सूचना विभाग उत्तरप्रदेश, लखनऊ 1966, पृ. 120 । डॉ. राजगोपालन, हिन्दी का भाषा वैज्ञानिक व्याकरण, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान प्रागरा, 1971, q. 74 1 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 9. 10. 11. 12. 13. डॉ. भोलानाथ तिवारी, (सं.) हिन्दी वाक्य संरचना, साहित्य सहकार दिल्ली, 1986, रवीन्द्र श्रीवास्तव, 'पक्ष एक पुनर्विचार', पृ. 403-406 डॉ. डॉ. एस. तोम्बा सिंह, व्याकरणिक कोटियों का अध्ययन, ज्ञानभारती दिल्ली, 1984, q. 210 1 15. भर्तृहरि वाक्यपदीय, 3.12 । 16. वही, 3.26 1 14. ज. म. दीमशित्स, हिन्दी व्याकरण की रूपरेखा, दिल्ली, 1966, पृ. 174 डॉ. बाबूराम सक्सेना, सामान्य भाषा विज्ञान, हि. सा. स., 1965, पृ. 145 । येस्पर्सन द् फिलासफी अव् ग्रामर, लन्दन, 1951 पृ. 286 । वेन्द्रियेज, अनु. बलवीर, भाषा इतिहास की भाषा वैज्ञानिक भूमिका, लखनऊ, 1966 पृ. 120 1 47 17. दुर्गाचार्य, निरूक्तभाष्य, बम्बई, 1942, 1.1.1 । 18. भर्तृहरि, वाक्यपदीय, 3.4 । 19. पतंजलि, महाभाष्य, भाग 3, बम्बई, 1982, 5.4.19 । 20. वही, 5.4.17 । 21. वही, काशिका, 3.1.22 । 22. लायन्स, सेमेटिक्स, जि. 1, 2, क्रेम्ब्रिज सी. यू. प्रेस, पृ. 682 । 23. डॉ. सूरजभान सिंह, हिन्दी वाक्यात्मक व्याकरण, साहित्य सहकार, q. 117-120 1 डॉ. रवीन्द्र श्रीवास्तव, भाषा, हिन्दी भाषा विज्ञान अंक, 'काल और पक्ष', पृ. 206 । कॉमरी, 'एस्पेक्ट', क्रेम्ब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस, 1976, पृ. 3 । 27. 24. 25. 26. जोन्सन, एयूनीफायड टेम्पोरल ब्यॉरी अव्टेन्स एंड एस्पेक्ट इन टेडेस्वी, न्यूयार्क अकादमी प्रेस, 1981, पृ. 152 सं. भोलानाथ तिवारी, हिन्दी भाषा की वाक्य संरचना, साहित्य सहकार, दिल्ली 1986, हिन्दी में पक्ष-एक विश्लेषरण, ले. रघुवंशमरिण पाठक, पृ. 297 पउमचरिउ, डॉ. भयाणी, सिंघी जैन ग्रंथमाला, बम्बई, 22.12.3 । 35. वही, 40.4.5 36. वही, 44.2.2 37. वही, 19.10.9 38. वही, 23.12.6 28. 29. वही, 1.12.8 30. वही, 2.15.1 31. वही, 4.4.9 32. वही, 2.5.9 33. वही, 19.8.10 34. वही, 6.15.2 39. वही, 2.13.9 40. वही, 16.13.5 1985, Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अपभ्रंश भारती 41. वही, 10.10.8 42. वही, 40.4.5 43. वही, 2.10.5 44. वही, 39.11.1 45. वही, 37.8.4 46. वही, 28.3.2 47. वही, 10.2.4 48. वही, 1.9.1 49. वही, 10.2.4 50. वही, 35.9.3 51. वही, 77.5.10 52. वहीं, 65.9.3 53. रिठेणेमिचरिउ, 28.6.3-4 54. पउमचरिउ, 36.7.4 54.A रिट्ठणेमिचरिउ, 28.1.4 54.B वही, 28.1.9 55. पउमचरिउ, 3.7.4 56. वही, 31.15.3 57. वही, 53.3.10 58. वही, 20.8.2 59. वही, 31.16.2 60. वही, 43.6.11 61. वही, 66.5.2-3 62. वही, 89.11.5 63. वही, 16.9.3 64. वही, 64.11.6 65. वही, 17.8.9 66. वही, 64.15.1 67. वही, 75.5 10 68. रिट्ठणेमिचरिउ 28.8.3 69. पउमचरिउ 90.1.9 70. वही, 23.1.9 71. वही, 19.9.10 72. वही, 38.15.1 73. वही, 44.2.2 74. वही, 55.4.3 75. वही, 18.1.8 76. वही, 38.16.8 77. वही, 61.4.1 78. रिट्ठणेमिचरिउ. 7.6 79. पउमचरिउ, 79.10.9 80. वही, 17.2.9 81. वही, 9.10.8 82. रिट्ठणेमिचरिउ, 8.9 83. पउमचरिउ, 52.9.2 84. वही, 86.8.2 85. वही, 20.11.8 . 86. वही, 1.16.7 87. वही, 1.14.9 88. वही, 1.16.4 89. वही, 48.13.1 90. वही, 59.3.8 91. बही, 9.11.2 92. वही, 81.12.3 93. वही, 64.3.8 94. वही, 22.5.5 95. वही, 38.5.8 96. वही, 34.9.7 97. वही, 47.2.4 98. वही, 8.5.11 99. वही, 65.9.2-3 100. वही, 69.12.4 101. वही, 45.7.9 102. वही, 71.13.6 103. वही, 63.10.5 104. रिट्ठणेमिचरिउ, 28.16.5 105. पउमचरिउ, 69.6.11 106. वही, 16.7.3 . 107. वही, 16.3.10 108. वही, 33.12.5 109. रिट्ठणे मिचरिउ, 28.1.5 110. पउमचरिउ,57.10.6-8 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 49 - 107 111. वही, 86.16.2-4 112. वही, 19.3.2 113. वही, 33.7.9 114. वही, 18.5.9 115. वही, 1.13.9 116. वही, 1.8.5 117. वही, 75.6.10 118. वही, 20.4.7 119. वही, 23.12.6 120. वही, 76.14.9 121. डॉ. राजगोपालन, हिन्दी भाषा वैज्ञानिक ब्याकरण, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान प्रागरा, ___1971, गवेषणा, 18, पृ. 75। 122. डॉ. रवीन्द्र श्रीवास्तव, काल और पक्ष, भाषा विज्ञान अंक, 1973, प. 203 । 123. पउमचरिउ, 16.3.2 124. वही. 17.4.10 125. वही, 73.11.7-8 126. वही, 3.10.8 127. वही, 36.13.1 128. वही, 71.12.10 129. वही, 19.4.7 130. वही, 74.15.6 131. वही, 77.15.9 132. वही, 77.8.8 133. वही, 23.2.9 134. वही, 57.1.9 135. पाठक रघुवंशमणि, हिन्दी की व्याकरणिक धाराएं, शोध प्रबन्ध, संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी। 136. डॉ. राजगोपालन, गवेषणा 18, प.75 137. पउमचरिउ, 6.7.4.5 138. रिटठणेमिचरिउ, 28.9.3-4 139. पउमचरिउ, 32.2.2 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'एउ ण जाणहो एक्कु पर' ..........."चवइ रहुणन्दणु, 'नाणमि सीयहे तरणउ सइत्तण । जाणमि जिह हरि-वंसुप्पण्णी, जाणमि जिह वय-गरण-संपण्णी। जाणमि जिह जिण-सासरणे भत्ती, जारणमि जिह महु सोक्खुप्पत्ती। जा अणु-गुण-सिक्खा-वयधारी, जा सम्मत्त-रयण-मणिसारी । जाणमि जिह सायर-गम्भीरी, जाणमि जिह सुर-महिहर-धीरी। जाणमि अंकुस-लवण-जणेरी, जाणमि जिह सुय जणयहो केरी। जाणमि सस भामण्डल-रायहो, जारणमि सामिणि रज्जहो पायहीं। जाणमि जिह अन्तेउर-सारी, जाणमि जिह महु पेसरण-गारी। घत्ता-मेल्लेप्पिणु रणायर-लोऍण, मह घरे उभा करें वि कर। जो दुज्जसु उप्परें चित्तउ, एउ ण जाणहो एक्कु पर।' - रघुनन्दन (राम) कहते हैं- [ मैं ] सीता का सतीत्व जानता हूँ। वह हरिवंश जैसे [वंश] में उत्पन्न हुई [यह] जानता हूँ। [वह ] व्रतों और गुणों से जिस प्रकार संपन्न है, जानता हूँ। [वह] जिस प्रकार जिन-शासन में आस्था रखती है, जानता हूँ, मुझे जिस प्रकार सुख देती रही है, जानता हूँ। जो अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रतधारी है, जो सम्यग्दर्शन आदि रत्न-मणियों से युक्त है। [वह] सागर जैसी गंभीर है, जानता हूँ, सुमेरु पर्वत जैसी धीर है [यह] जानता हूँ । [वह] लवण और अंकुश की जननी है [यह भी] जानता हूँ, राजा जनक की पुत्री है [यह भी] जानता हूँ। वह राजा भामण्डल की बहन है, जानता हूँ, यह भी जानता हूं कि वह इस इस राज्य की स्वामिनी है । जानता हूँ कि वह अन्तःपुर में श्रेष्ठ है, वह जिस प्रकार मेरी सेवा करनेवाली है (मैं यह भी) जानता हूँ। किंतू नागर-जनों ने मिलकर मेरे घर पर हाथ ऊँचे कर (कर) के यह कलंक क्यों लगाया ? मैं यह नहीं जानता। पउमनरिज 83.3 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरिउ का एक प्रसंग व्याकरणिक विश्लेषण -डॉ. कमलचन्द सोगारणी 'पउमचरिउ' महाकवि स्वयंभू की अमर कृति है । अपभ्रंश भाषा में निबद्ध यह एक उच्चकोटि का महाकाव्य है। इसी ग्रन्थ में से हमने एक प्रसंग का चुनाव करके उसकी भाषा का व्याकरणिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है । इससे अपभ्रंश भाषा के व्याकरण को प्रयोगात्मक रूप से समझने में सहायता मिलेगी। व्याकरण को प्रस्तुत करने में जिन संकेतों का प्रयोग किया गया है वे नीचे दे दिए गए हैं। यहाँ उस प्रसंग का अनुवाद भी किया गया है । यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि भाषा का व्याकरण और अनुवाद एक दूसरे से घनिष्ठरूप से संबंधित होते हैं। 27.14.9 वरि पहरिउ वरि किउ तवचरणु वरि विसु हालाहलु वरि मरण । वरि अच्छिउ गम्पिणु गुहिल-वणे गवि णिविसु वि णिवसिउ अवुहयणे ॥ वरि (प्र) =अधिक अच्छा पहरिउ (पहर (भूकृ)-+पहरिप्र) भूकृ 1/1. किउ (कि-किन) भूकृ 1/1 तवचरण [(तव)-(चरण) 1/1] विसु (विस) 1/1 हालाहलु Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 अपभ्रंश भारती (हालाहलु) 1/1 मरणु (मरण) 1/1 अच्छिउ (अच्छ-अच्छिा ) भूकृ 1/1 गम्पिणु! (गम+एपिणु गमेपिणु (ए का लोप)→गम्पिणु) संकृ गुहिल-वणे [ (गुहिल) वि-(वण) 7/1] गवि (अ)=नहीं रिणविसु-णिमिस (अ) पल भर वि (अ)=किन्तु रिणवसिउ (णिवस-+णिवसिम) भूकृ 1/1 प्रवहयणे [ (अवुह=प्रबुह) वि (यण) 7/1], (9) 1. गम् में संबंधक कृदन्तप्रर्थक प्रत्यय 'एप्पिणु' और 'एपि' को लगाने पर आदिस्वर 'एकार' का विकल्प से लोप हो जाता है। यहाँ बनना चाहिए 'गम्प्पिणु' पर यहाँ 'गम्पिणु' प्रयोग पाया जाता है, (हे. प्रा. व्या. 4-442) । (व्यक्तियों के द्वारा) (यदि) प्रहार किया गया है, (तो) अधिक अच्छा (है), (यदि) तप का आचरण किया गया (है), (तो) (भी) अधिक अच्छा (है), (यदि) हालाहल विष (पिया गया है), (तो) (भी) अधिक अच्छा (है), मरना (भी) अधिक अच्छा (है), गहरे वन में जाकर टिके हुए (होना) (भी) अधिक अच्छा (है), किन्तु पल भर (भी) मूर्ख जन में ठहरे हुए (रहना) (अच्छा ) नहीं (है)। 27.15 तो तिष्णि वि एम चवन्ताई । उम्माहउ जणहों जणन्ताइँ ॥1॥ दिण-पच्छिम-पहरें विरिणग्गयाई । कुञ्जर इव विउल-वरणहो गयाइँ ॥ 2 ॥ वित्थिण्णु रण्णु पइसन्ति जाव । रणग्गोहु महादुमु दिठ्ठ ताव ॥3॥ गुरु-वेसु करें वि सुन्दर-सराई । णं विहय पढावइ प्रक्खराइ॥4॥ वुक्करण-किसलय क-क्का रवन्ति । वाउलि-विहङ्ग कि-क्की भणन्ति ॥ 5 ॥ वरण-कुक्कुड कु-क्कू प्रायरन्ति । अण्णु वि कलावि के-क्कइ चवन्ति ॥ 6 ॥ पियमाहवियउ को-क्कउ लवन्ति । कं-का वप्पीह समुल्लवन्ति ॥7॥ सो तरुवर गुरु-गणहर-समाणु । फल-पत्त-वन्तु अक्खर-णिहाणु ॥8॥ घत्ता-पइसन्तेहि असुर-विमद्दणेहि सिरु णाम वि राम-जणदणे हि । परिपञ्चेवि दुमु दसरह-सुऐंह अहिणन्दिउ मुणि व सइंभुऍहि ॥ १॥ तो (अ)=तब तिष्णि (ति) 1/2 वि वि (म)=ही एम (अ)=इस प्रकार से चवन्ताई (चव+चवन्त) वकृ 1/2 उम्माहउ (उम्माहप्र) 2/1 'अ' स्वार्थिक जणहो। (जण) 6/1 जणन्ताई (जण+जणन्त) वकृ 1/2, 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) । विण-पच्छिम-पहरे [(दिण) - (पच्छिम) वि-(पहर) 7/1] विणिग्गयाई= विणिग्गयाइं (विणिग्गय) भूकृ 1/2 अनि कुञ्जर (कुञ्जर) 1/1 इव (अ)=की तरह विउल-वणहो [(विउल) वि-(वण) 6/1] गयाई=गयाइं (गय) भूकृ 1/2 अनि, (2) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 53 (5) ___1. मात्रा को ह्रस्व करने के लिए यहां ।' लगाया गया है। (हे. प्रा. व्या. 4-410) 2. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हे. प्रा. व्या. 3-134)। वित्थिण्णु (वित्थिण्ण) भूक 2/1 अनि रण्ण' (रण्ण) 2/1 पइसन्ति (पइस+पइसन्त (स्त्री)+पइसन्ति) वकृ1/2 जाव (अ) = ज्योंहि जग्गोहु (णग्गोह) 1/1 महादुमु [ (महा)(दुम) 1/1] विट्ठ (दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि ताव (अ)=त्योंहि, (3) 1'गमन' अथं में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है । गुरु-वेसु [ (गुरु)-(वेस) 2/1] करें वि (कर+एवि) संकृ सुन्दर-सराई [ (सुन्दर)(सर) 2/2] णं (अ)=मानो विहय (विहय) 2/2 पढावइ (पढ+प्राव) व प्रे. 3/1 सक प्रक्खराइ (प्रक्खर) 2/2, (4) वुक्कण-किसलय [(वुक्कण=बुक्कण)- (किसलय) 2/2] कस्का (कक्का) 2/2 रवन्ति (रव) व 3/2 सक वाउलि-विहङ्ग [(वाउलि=बाउलि)-(विहङ्ग) 1/2] कि-क्की (कि-क्की) 2/2 भणन्ति (भण) व 3/2 सक, कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम. प्रा. व्या. 3-137) । वण-कुक्कुट | (वण)- (कुक्कुड) 1/2] कु-क्कू (कु-क्कू) 2/2 पायरन्ति (पायर) व 3/2 सक अण्णु (अण्ण) 1/1 वि वि (अ)=तथा कलावि (कलावि) 1/2 के-क्कइ (के-क्कई) 2/2 चवन्ति (चव) व 3/2 सक, पियमाहविय [पिय)-(माहविया) 1/2] उ (अ)=पाद-पूर्ति को-क्कउ [कोक्ऊ) 2/2 लवन्ति (लव) व 3/2 सक कं-का (कं-का)2/2 वप्पीह (वप्पीह=बप्पीह)1/2 समुल्लवन्ति (समुल्लव) व 3/2 सक, सो (त) 1/1 सवि तरुवरु [(तरु)-(वर) 1/1 वि] गुरु-गणहर-समाणु [(गुरु)(गणहर)-(समाण) 1/1 वि] फल-पत्त-वन्तु [(फल)-(पत्त)-(वन्त) 1/1 वि] अक्खरणिहाणु [(अक्खर)-(गिहाण) 1/1], (8) पइसन्तेहिं (पइस→पइसन्त) 3/2 असुर-विमद्दणेहि [(असुर)-(विमद्दण) 3/2] सिरु (सिर) 2/1 णामेवि (णाम+एवि) संकृ राम-जणद्दणेहि [(राम) वि-(जणदण) 3/2] परिपञ्चेवि (परिअञ्च+ एवि) संकृ दुमु (दुम) 1/1 बसरह-सुएहि [(दसरह)(सुप्र) 3/2] पहिणन्दिउ (अहिणन्द-+अहिणन्दिन) भूकृ मुणि (मुणि) 1/1 व (अ)= की तरह सईभएहिं (सइंभुन) 3/2, (9) तब तीनों ही (राम, लक्ष्मण व सीता) (उस) मनुष्य में अतिपीड़ा को उत्पन्न करते हुए (और) इस (उपर्युक्त) प्रकार से कहते हुए (1) दिन के अन्तिम प्रहर में बाहर निकल (6) (7) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश - भारती हुए गए (और) हाथी की तरह घने वन में चले गये ( 2 ) । ज्योंही विशाल वन में प्रवेश करते (वे ) ( श्रागे बढ़े ), त्योंही ( उनके द्वारा ) बरगद का महावृक्ष देखा गया ( 3 ) । ( वह वृक्ष ऐसा था) मानो शिक्षक के रूप को धारण करके सुन्दर स्वर व अक्षर पक्षियों को पढ़ाता हो ( 4 ) । कौए नये कोमल पत्तों (वाली टहनी) पर (बैठे हुए) क - क्का, कक्का बोलते थे (और) बाउलि पक्षी कि क्की, किक्की, कहते थे ( 5 ) । जलमुर्गे कुक्कू, कुक्कू कहते थे, और भी मोर (तथा) के-क्कई, के-क्कई बोलते थे ( 6 ) । कोयले को - क्कऊ, को-क्कऊ बोलती थीं (तथा) पपीहा कंका, कंका बोलते थे ( 7 ) । इस तरह से ) वह श्रेष्ठ वृक्ष फल-पत्तों वाला था (और) गुरु गणधर के समान अक्षरों का भण्डार था ( 8 ) । ( 54 असुरों का नाश करनेवाले दशरथ के पुत्र, राम-लक्ष्मण द्वारा वन में प्रवेश करते ही ( बरगद का ) वृक्ष मुनि की तरह नमन किया गया और ( उसकी ) परिक्रमा करके (उनके द्वारा ) स्वयं अपनी भुजाओं से ( उसका ) अभिनन्दन किया गया । सीय स-लक्खणु दासरहि पसरइ सु-कइहे कव्वु जिह 28.1 तरुवर-मूलें परिट्ठिय जावे हिं । मेह-जालु गयणङ्गणें ताबें हिं ॥ सीय (सीया ) 1 / 1 स - लक्खणु ( स - लक्खण ) 1 / 1 वि दास रहि ( दास रहि ) 1 / 1 तरुवर - मूले [ (तरु) - (वर) वि- (मूल) 7 / 1 ] परिट्ठिय (परिट्ठिय) भूकृ 1 / 1 अनि जावेहि= जाहि (प्र) = ज्योंही पसरइ 1 ( पसर) व 3 / 1 अक सु-कइहे 2 ( सु-कइ ) 6 / 1 कव्वु ( कव्व ) 1 / 1 जिह ( अ ) = की भाँति मेह-जालु [ ( मेह) - ( जाल ) 1 / 1 ] गयणङ्गणे [ ( गयण) +(अङ्गणे ) ] [ ( गयण ) - ( अङ्गण ) 7 / 1] तावेहिं तावहिं ( अ ) = त्योंही । 1. वर्तमान काल का प्रयोग कभी कभी अतीत काल के लिए होता है । 2. अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 156 । ज्योंही दशरथ - पुत्र (राम) और सीता लक्ष्मण के साथ ( उस ) श्रेष्ठ वृक्ष के नीचे के भाग में टिके त्योंही सुकवि के काव्य की भाँति बादलों के सघन समूह प्रकाश के प्रांगन में चारों ओर फैल गए । । पसरइ मेह-विन्दु गयणङ्गणे । पसरइ जेम सेण्णु समरङ्गणें ॥ 1 ॥ पसरइ जेम तिमिरु अण्णा हो पसरइ जेम बुद्धि बहु - जागहों ॥ 2 ॥ पसरइ जेम पाउ पाविट्ठहों । पसरइ जेम धम्मु षम्मिट्टहों ॥। 3 11 पसरइ जेम जोन्ह मयवाहहों । पसरइ जेम कित्ति जगरगाहहों ॥ 4 ॥ पसरइ जेम चिन्त धण होणहो । पसरइ जेम कित्ति सुकुलीणहों ॥ 5 ॥ पसरइ जेम सदु सुर-तूरहों । पसरइ जेम रासि हे सूरहों ॥ 6 ॥ पसरइ जेम दवग्गि वरणन्तरे । पसरइ मेह-जालु तिह अम्बरे ॥ 7 ॥ afsasuss uss घणु गज्जड । जारगइ रामहो सरण पवज्जइ ॥ 8 ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 अपभ्रंश-भारती घत्ता-अमर-महाषण-गहिय-करु मेह-गइन्दे च. वि जस-लुद्धउ । उप्परि गिम्भ-रणराहिवहाँ पाउस-राउ णाई सण्णद्धउ ॥9॥ (5) पसरइ (पसर) व 3/1 अक मेह-विन्दु [(मेह)-(विन्दु) 6/2] गयणगणे [(गयण) + (अङ्गणे)] [गयण)-(अङ्गण) 7/1] जेम (अ)=जिस प्रकार सेण्ण (सेण्ण) 1/1 समरङ्गणे [ (समर)+ (अङ्गणे) ] [ (समर)-(अङ्गण).7/1], __ (1) तिमिरु (तिमिर) 1/1 अण्णाणहो (अण्णाण) 6/1 वुद्धि (बुद्धि) 1/1 वहुजाणहो (वहु-जाण) 6/1 वि, (2) ___पाउ (पान) 1/1 पाविट्ठहो (पावि+ इ81- पाविट्ठ) 6/1 वि धम्मु (धम्म) 1/1 धम्मिट्ठहो (धम्म+इट्ठ→धम्मिट्ठ) 6/1 वि, (3) 1. इट्ठ = इष्ट (तुलनात्मक विशेषण के लिए लगाया जाता है) अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 261 । जोण्ह (जोण्हा) 1/1 मयवाहहो [ (मय)-(वाह) 6/1 वि] कित्ति (कित्ति) 1/1 जगणाहहो [ (जग)-(णाह) 6/1], (4) चिन्त (चिन्ता) 1/1 धण-हीणहो [(धण)-(हीण) 6/1] कित्ति (कित्ति) 1/1 सुकुलोणहो (सु-कुलीण) 6/1, सद् (सद्द) 1/1 सुर-तूरहो [(सुर)-(तूर) 6/1] रासि (रासि) 1/2 पहे (रणह) 7/1 सूरहो (सूर) 6/1, दवग्गि (दवग्गि) 1/1 वणन्तरे [ (वण) + (अन्तरे)] [ (वण)-(अन्तर) 7/1] मेह-जालु [ (मेह)-(जाल) 1/1] तिह (अ)= उसी प्रकार अम्वरे (अम्बर) 7/1, (7) तडि (तडि) 1/1 तडयडइ (तडयड) व 3/1 अक पडइ (पड) व 3/1 अक घणु (घण) 1/1 गज्जइ (गज्ज) व 3/1 अक जाणइ' (जाणई) 6/1 रामहो (राम) 6/1 सरणु' (सरण) 2/1 पवज्जइ (पवज्ज) व 3/1 सक, (8) 1. जाणई=जानकी, 2. 'गमन' अर्थ में द्वितीया का प्रयोग होता है। अमर-महाधणु-गहिय-करु [(अमर)-(महा) वि-(धणु)-(गहिय) भूक(कर) 1/1] मेह-गइन्दे [(मेह)-(गइन्द) 7/1] चडेवि (चड+एवि) संकृ जस-लद्धउ [(जस)-(लद्ध) भूक 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक] उप्परि (अ)=ऊपर गिम्भ-गराहिवहो [(गिम्भ)-(रणराहिव) 6/1] पाउस-राउ [(पाउस)-(राय) 1/1] णाई=णाई (अ)=मानो सण्णद्धउ (सण्णद्ध) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक, (9) जिस प्रकार युद्ध के क्षेत्र में सेना फैलती है (और) आकाश के क्षेत्र में जल-कणों का समूह फैलता है (1); जिस प्रकार प्रज्ञान (रूपी अँधेरी रात) का अन्धकार फैलता है, जिस प्रकार बहुत प्रकार के ज्ञान रखनेवाले की बुद्धि फैलती है (मजबूत होती है) (2); (6) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 अपभ्रंश भारती जिस प्रकार अत्यन्त पापी का पाप फैलता है, जिस प्रकार अत्यन्त धार्मिक का धर्म फैलता है। ( 3 ) ; जिस प्रकार मृग को धारण करनेवाले ( चन्द्रमा) का प्रकाश फैलता है, जिस प्रकार जिनदेव की महिमा फैलती है ( 4 ) ; जिस प्रकार धन से रहित (व्यक्ति) की चिन्ता उभरती है, जिस प्रकार अत्यधिक शालीन का यश फैलता है ( 5 ); जिस प्रकार देवों की तुरही का शब्द फैलता है, जिस प्रकार सूर्य की किरणें आकाश में फैलती हैं ( 6 ) ; जिस प्रकार दावाग्नि ( जंगल की आग ) जंगल के मध्य में फैलती है, उसी प्रकार बादलों का समूह प्रकाश में फैला है ( 7 ) ; बादल (समूह) गरजा (और) बिजली ने तड़-तड़ किया (और) ( पृथ्वी पर ) पड़ी, मानो ( वह ) जानकी (और) राम की शरण में गई हो ( 8 ) । ( सारा दृश्य ऐसा प्रतीत हो रहा था ) मानो पावस ( वर्षा ऋतु का ) राजा जो यश का इच्छुक ( है ), ( जिसका ) हाथ इन्द्रधनुष को पकड़े हुए ( है ), ( बह) मेघरूपी हाथी पर चढ़ कर ग्रीष्म- राजा के ऊपर ( आक्रमण के लिए ) तैयार ( हो ) ( 9 ) । (2) जं पाउस गरिन्दु गलगज्जिउ । धूलो र गिम्मेरण विसज्जिउ ॥ 1 ॥ गम्पिणु मेह-विन्दे श्रालग्गउ । तडि करवाल - पहारेहिँ भग्गउ ॥ 2 ॥ जं विवरम्मुह चलिउ विसालउ । उट्ठिउ 'हणु' भणन्तु उण्हालउ ॥ 3 ॥ धग धग धग धगन्तु उद्घाइउ । हस हस हस हसन्तु संपाइ ॥ 4 ॥ जल जल जल जल जल पचलन्तउ । जालावलि-फुलिङ्ग मेल्लन्तउ ॥ 5 ॥ धूमावलि धय दण्डुठभेप्पिणु । वर- वाउल्लि-खग्गु कट्ठेप्पिणु ॥ 6 ॥ झड झड झड झडन्तु पहरन्तउ । तरुवर - रिउ भड थड भज्जन्तउ ।। 7 । मेह - महागय- घड विहडन्तउ । जं उण्हालुउ बिट्टु भिडन्तउ ॥ 8 ॥ घत्ता • धणु प्रफालिउ पाउसेर तडि-टङ्कार-फार दरिसन्तं 1 चोऍवि जलहर-हत्थि हड गोर-सरासणि मुक्क- तुरन्ते ॥ 9 ॥ जं ( अ ) = जब पाउस - णरिन्दु [ ( पाउस ) - ( गरिन्द) 1 / 1 ] गलगज्जिउ [ गलगज्जगल + गज्जिन ) भूकृ 1 / 1] धूली- रउ [ ( धूली ) - ( रय-र ) 1 1 / 1] गिम्भेरण (गिम्भ ) 3 / 1 विसज्जिउ (विसज्जिन ) भूकृ 1 / 1 अनि, (1) 1. रय = वेग गम्प 1 ( गम + एपिणु = गमेपिणु ( एका लोप) (विन्द ) 2 7 / 1 ] प्रालग्गड ( अलग्ग अलग्गन ) [ ( तडि ) - ( करवाल ) - ( पहार ) 3/2] भग्गउ ( भग्ग ) 1. देखें 27-14-9. → गम्पिणु) संकृ मेह-विन्वे [ ( मेह) - भूकृ 1 / 1 तडि-करवाल - पहारे हिँ भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक, (2) 2. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है | ( हेम प्राकृत व्या. 3-137 ) । 'गमन' अर्थ में द्वितीया होती है । जं ( अ ) = जब विवरम्मुहु ( विवरम्मुह ) 2 / 1 वि चलिउ ( चल + चलिन) भूकृ 1 / 1 विसाल ( विसाल अ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक उट्ठिउ ( उट्ठि) भूकृ 1 / 1 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती अनि हणु (हरण ) विधि व 2 / 1 सक भणन्तु ( भणभणन्त ) वकृ 1 / 1 उण्हालउ ( उन्ह + प्राल उण्हाल + उण्हाल ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक, (3) 57 धग धग धग धगन्तु ( धग धग धग धग ) वकृ 1 / 1 उद्घाइउ ( उद्धाइ ) भूकृ 1 / 1 अनि हस हस हस हसन्तु ( हस हस हस हस ) वकृ 1 / 1 संपाइउ ( संपाइल ) भूकृ 1/1 अनि, (4) जल जल जल जल जल ( जल जल जल जल जल ) व 3/1 अक पचलन्तउ ( प चल + पचलन्त - पचलन्त ) वकृ 1 / 1 'अ' स्वाधिक जालावलि - फुलिङ्ग [ ( जाला ) + (आवलि) + (फुलिङ्ग)] [ ( जाला ) - ( प्रावलि ) - ( फुलिङ्ग) 2/2] मेल्लन्त मेल्लन्त + मेल्लन्तन) वकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक, (मेल्ल (5) धूमावलि धयदण्डुभेप्पिणु [ ( धूम) + ( प्रावलि) + ( धय) + (दण्ड) + ( उब्भेष्पिणु ) ] [ ( धूम ) - ( प्रावलि ) - ( धय ) - ( दण्ड ) + ( उब्भ + एप्पिणु) संकृ] वरवाउलि-खग्गु [(वर) वि - (वाउल्लि ) - (खग्ग) 2 / 1 ] कड्ढेष्पिणु (कड्ढ + एप्पिणु) संकृ, (6) झडझड झड झडन्तु ( झड झड झड झड ) वकृ 1 / 1 पहरन्तउ ( पहर पहरन्तन ) वकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक. तरुवर - रिउ - भड - थड [ (तरु) - ( वर ) वि (भड ) - ( थड) 2 / 1 ] भज्जन्तउ ( भज्ज - भज्जन्त े भज्जन्त ) वकृ 1 / 1 'अ' पहरन्त ( रिउ ) - स्वार्थिक, (7) - महाग - घड [ ( मेह) - (महा) वि - ( गय ) - ( घड ) 2 / 1 ] विहडन्त विहडन्त विहडन्त) वकृ 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक जं ( अ ) = ( विहड | = जब उण्हालउ ( उण्हाला ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक दिट्ठ (दिट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि भिडन्त ( भिड भिडन्त भिडन्त) व 1 / 1 'अ' स्वार्थिक, (8) (a) 1 / 1 अप्फालिउ ( प्रष्फल ( प्रे.) प्रप्फाल (भूकृ ) + अप्फालिन ) भूकृ 1/1 पाउसेण ( पाउस) 3 / 1 तडि - टङ्कार - फार [ ( तडि ) - ( टङ्कार ) - ( फार ) 2 / 1] दरिसन्ते ( दरिस रिसन्त) व 3 / 1 चोएवि ( चोप्र + एवि ) संकृ जलहर - हत्थि [ (जलहर ) - (हत्थि ) 2/2] हड (हड) 2/2 वि गीर - सरासरिण [ ( णीर) - ( सरासरण (स्त्री) → सरासणी) 1/2 ] मुक्क (मुक्क) भूकृ 1 / 2 अनि तुरन्ते ( अ ) - तुरन्त, = (9) जब पावस ( वर्षा ऋतु का ) राजा गरजा, (तो) ग्रीष्म द्वारा धूल - वेग ( आँधी) भेजी गई ( 1 ) | ( वह ) ( धुल ) मेघ - समूह से जाकर चिपक गई, (फिर) बिजली रूपी तलवार के प्रहारों से (वह) (धूल) छिन्न-भिन्न कर दी गई ( 2 ) । ( इसके परिणामस्वरूप ) जब (धूल) विमुख चली (तो) भयंकर उष्ण ( ऋतु) (पावस राजा को ) 'मारो' कहती हुई उठी ( 3 ) | (और) खुब जलती हुई ऊँची दौड़ी (तथा) उत्तेजित होती हुई ( पावस - राजा की ओर प्रवृत्त हुई ( 4 ) और ( उस प्रोर) कूच करती हुई तेजी से जली, (तब ) ( उष्ण) लपट की श्रृंखला से चिनगारियों को छोड़ते हुए ( आगे चली ) (5) । ( औौर) जब उष्ण ( ऋतु ) धूम की श्रृंखला के ध्वजदण्डों को ऊँचा करके, तूफानरूपी श्रेष्ठ तलवार को खींचकर ( 6 ), झपट मारते हुए और प्रहार करते हुए, श्रेष्ठ वृक्षों रूपी शत्रु योद्धा - समूह को Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 अपभ्रंश-भारती नष्ट करते हुए (7), मेघरूपी महा हाथियों की टोली को खण्डित करते हुए (पावस राजा से) भिड़ती हुई दिखाई दी (8)।। बिजली की टंकार और चमक दिखाते हुए पावस के द्वारा धनुष ताना गया और बादलरूपी हाथीघटा को प्रेरित करके (उसके द्वारा) जलरूपी तीर तुरन्त छोड़ दिए गए। जल-वाणासणि-घायहिं घाइउ । गिम्भ-नराहिउ रणे विणिवाइउ ॥1॥ दद्दुर रडेवि लग्ग णं सज्जरण । णं गच्चन्ति मोर खल दुज्जण ॥ 2 ॥ णं पूरन्ति सरिउ अक्कन्दं । कइ किलकिलन्ति प्राणन्दें ॥ 3 ॥ णं परहुय विमुक्क उग्घोसें। णं वरहिण लवन्ति परिप्रोसें ॥4॥ णं सरवर बहु-अंसु-जलोल्लिय । णं गिरिवर हरिसें गजोल्लिय ॥ 5 ॥ णं उण्हविन दवग्गि विनोएं । णं पच्चिय महि विविह-विणोएं ॥ 6 ॥ रणं प्रथमिउ दिवायर दुक्खें । रणं पइसरइ रयरिण सइँ सुक्खें ॥7॥ रत्त-पत्त तरु पवणाकम्पिय । 'केण वि वहिउ गिम्भु' णं जम्पिय ॥8॥ घत्ता-तेहएँ काले भयाउरएँ वेण्णि' मि वासुएव-वलएव । ___ तरुवर-मूले स-सीय थिय जोगु लएविणु मुणिवर जेम ॥ 9 ॥ जल वाणासणि घाहिं [(जल) (वाणासण (स्त्री)--वागासणी→वाणासणि1)(घाय) 3/2] घाइउ (घाय=घाअ→घाइप) भूकृ 1/1 गिम्भ-नराहिउ [(गिम्भ)(नराहिन) 1/1] रणे (रण) 7/1 विरिणवाइउ (विणिवाइअ) भूकृ 1/1 अनि, (1) __1. समास में रहे हुए स्वर परस्पर में ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व अक्सर हो जाया करते हैं । (हेम प्रा. व्या. 1-4)। वदुर (ददुर) 1/2 रडे (रड) 7/1 वि (अ)=इसलिए लग्ग (लग्ग) भूकृ 1/2 अनि एं (अ) =की तरह सज्जण (सज्जण) 1/2 णच्चन्ति (णच्च) व 3/2 अक मोर (मोर) 1/2 खल (खल) 1/2 वि दुज्जण (दुज्जण) 1/2 वि, (2) णं (अ) =मानो पूरन्ति (पूर) व 3/2 सक सरिउ (सरि) 1/2 प्राक्कन्द (प्राक्कन्द) 3/1 कइ (कइ) 1/2 किलकिलन्ति (किलकिल) व 3/2 अक प्राणन्हें (प्राणन्द) 3/1, (3) रणं (अ)=मानो परहुय (परहुय) 1/2 विमुक्क (विमुक्क) भूकृ 1/2 अनि उग्घोसें। (उग्घोस) 3/1 वरहिण (वरणिह) 1/2 लवन्ति (लव) व 3/2 सक परिप्रोसे (परिमोस) 3/1, __1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3-137)। __णं (म)=मानो सरवर [(सर)-(वर) 1/2 वि] वहु-अंसु-जलोल्लिय [(वहु) वि-(अंसु)-(जल)-(उल्लिय) 1/2 वि] गिरिवर [(गिरि)-(वर) 1/2 वि] हरिसें (हरिस) 3/1 गजोल्लिय (गजोल्लिय) 1/2 वि, (5) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 59 णं (अ) वाक्यालंकार उण्ह (उण्ह) 6/1 वि विप्र (अ)=मानो दवग्गि (दवग्गि) 6/1 विप्रोएं (विप्रोग्र) 3/1 रणं (अ)=वाक्यालंकार रणच्चिय (णच्च) भूक 1/1 महि (महि) 1/1 विविह-विरगोएं [(विविह) वि-(विणोम) 3/1] ___ण (अ)=मानो अत्थमिउ (अत्थमिम) 1/1 वि दिवायरु (दिवायर) 1/1 दुक्खें (दुक्ख) 3/1 रणं (अ)=मानो पइसरइ (पइसर) व 3/1अक रयणि (रयणि) 1/1 सइँ=सई (अ)=स्वयं सुक्खें (सुक्ख) 3/1 रत्त-पत्त [(रत्त) भूकृप्रनि-(पत्त)1/2] तरु (सरु)6/1 पवरणाकम्पिय [(पवण)+ (आकम्पिय)] [(पवण)-(प्राकम्पिय) भूकृ 1/1] केण (क) 3/1स वि (अ)=पादपूरक वहिउ (वह-+वहिप्र)→ भूकृ 1/1 गिम्भु (गिम्भ) 1/1 णं (म)=मानो जम्पिय (जम्प→जम्पिय) भूकृ 1/1 तेहए (तेहप्र)7/1वि 'अ' स्वार्थिक काले (काल)7/1 भयाउरए [(भय)+ (प्राउरए)] [(भय)-(प्राउरअ)7/1 वि 'अ' स्वार्थिक] वेण्णि (वे)1/2वि मि (अ)=ही वासएव-वलएव [(वासुएव)-(वलएव) 1/2] तरुवर-मूले [(तरु)-(वर) वि-(मूल)7/1] स-सीय [ (स) वि-(सीया)1/1] थिय (थिय) भूकृ 1/2 जोग (जोग)2/1 लएविणु (ल+ एविणु) संकृ मुणिवर [ (मुणि)-(वर) 1/1वि] जेम (अ)=की भांति ___ जलरूपी तीरों के प्रहारों से चोट पहुंचाया हुआ ग्रीष्म राजा युद्ध में (मार कर) नीचे गिरा दिया गया (1) । इसलिए मेंढक सज्जनों की तरह रोने लगे और शरारती मोर दुष्टों की तरह नाचे (2)। (ऐसा प्रतीत हो रहा था) मानो रोने के कारण नदियों ने अपने को) (आँसू रूपी जल से) भरा हो (और) मानो (वर्षा से प्राप्त) अानन्द के कारण कवि प्रसन्न हुए हों(3)। मानो कोयलें ऊँची आवाज में (बोलने के लिए) स्वतन्त्र की गई (हों) (और) मानो मोर संतोष के कारण बोले हों(4) । मानो बड़े तालाब विपुल आँसूरूपी जल से भरे हुए (हों और) मानो बड़े पर्वत हर्ष के कारण पुलकित (हों) (5)। मानो दावाग्नि के वियोग से धरती विविध विनोद के कारण नाची (हो) (6)। मानो दुःख के कारण सूर्य अस्त हुआ हो (और) मानो सुख के कारण रात स्वयं व्याप्त हो गई हो(7)। वृक्ष के पत्ते सुहावने हुए (और) पवन से हिले-डुले, मानो (उनके द्वारा) (यह) बोला गया (है) (कि) ग्रीष्म किसके द्वारा नष्ट किया गया (है)(8) ? ___ उस जैसे समय में दोनों ही भयातुर राम और लक्ष्मण सीता के सहित (उस) बड़े वृक्ष के मूल भाग में योग ग्रहण करके महामुनि की भाँति बैठ गये (9)। संकेत सूची (म) -अव्यय (इसका अर्थ= ___ लगाकर लिखा गया है) -अकर्मक क्रिया -अनियमित प्रक अनि प्राज्ञा कर्म -कर्मवाच्य (क्रिविन) -क्रिया विशेषण अव्यय (इसका अर्थ लगाकर लिखा गया है) -तुलनात्मक विशेषण -प्राज्ञा तुवि Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती भक संकृ -पुल्लिग -प्रेरणार्थक क्रिया -भविष्य कृदन्त भवि -भविष्यत्काल भाव -भाववाच्य -भूतकाल -भूतकालिक कृदन्त -वर्तमानकाल वकृ -वर्तमान कृदन्त वि -विशेषण विधि -विधि विधिकृ -विधि कृदन्त -सर्वनाम -सम्बन्धक कृदन्त सक -सकर्मक क्रिया सवि -सर्वनाम विशेषण -स्त्रीलिंग -हेत्वर्थ कृदन्त ( ) -इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रक्खा गया है। [( )+( )+( )....] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर+चिन्ह किन्हीं शब्दों में संधि का द्योतक है। यहां अन्दर के कोष्ठकों में गाथा के शब्द ही रख दिए गए हैं। [( )-( )-( )....] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर '-' चिन्ह समास का द्योतक है। • जहां कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1/1, 2/1.."प्रादि) ही लिखी है वहां उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है। स्त्री • जहां कर्मवाच्य, कृदन्त आदि अपभ्रंश के नियमानुसार नहीं बने हैं वहां कोष्ठक के बाहर 'अनि' भी लिखा गया है। 1/1 अक या सक -उत्तम पुरुष/ एकवचन 1/2 प्रक या सक -उत्तम पुरुष/ बहुवचन 2/1 अक या सक -मध्यम पुरुष/ एकवचन 2/2 प्रक या सक -मध्यम पुरुष बहुवचन 3/1 प्रक या सक -अन्य पुरुष एकवचन 3/2 अक या सक -अन्य पुरुष/ बहुवचन 1/1-प्रथमा/एकवचन 1/2-प्रथमा/बहुवचन 2/1-द्वितीया/एकवचन 2/2-द्वितीया बहुवचन 3/1-तृतीया/एकवचन 3/2-तृतीया/बहुवचन 4/1-चतुर्थी/एकवचन 4/2-चतुर्थी/बहुवचन 5/1-पंचमी/एकवचन 5/2-पंचमी/बहुवचन 6/1-षष्ठी/एकवचन 6/2-षष्ठी/बहुवचन 7/1-सप्तमी/एकवचन 7/2-सप्तमी/बहुवचन 8/1-संबोधन/एकवचन 8/2-संबोधन/बहुवचन Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयंभू की भाषा-शब्द-सम्पदा -प्रो. कैलाशचन्द्र भाटिया अपभ्रंश भाषा के इतिहास में महाकवि स्वयंभू का अप्रतिम स्थान है । निर्विवाद रूप से अपभ्रंश के सर्वश्रेष्ठ कवि स्वयंभू हैं। आप महाकवि, कविराज, कविराज चक्रवर्ती जैसी उपाधियों से विभूषित थे। स्वयंभू को जहाँ अपभ्रंश का प्रथम महाकवि होने का श्रेय है वहाँ सर्वाधिक यशस्वी कवि रहे हैं । महापंडित राहुल सांकृत्यायन जैसे विद्वान् ने स्वयंभू को हिन्दी का प्रथम कवि एवं पउमचरिउ को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य स्वीकार किया है । संस्कृत काव्य-गगन में जो स्थान कालिदास का है, हिन्दी में तुलसीदास का है, प्राकृत में जो स्थान हाल ने प्राप्त किया, अपभ्रंश के सारे काल में स्वयंभू वही स्थान रखते हैं । डॉ. नामवर सिंह तो स्वयंभू को अपभ्रंश का वाल्मीकि मानते हैं । अपभ्रंश को साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता उनके ग्रंथों-पउमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ, तथा स्वयंभूछन्द से मिली जिनमें मानव-जीवन का बड़ा स्वाभाविक, रसपूर्ण, मनोहारी तथा हृदयस्पर्शी वर्णन किया गया है । जनभाषा के स्तर से उठाकर इस भाषा को महाकाव्य के स्तर तक पहुंचाने का श्रेय स्वयंभू को ही है। विद्वान याकोवी ने 'भविसयत्तकहा' में कहा कि उस समय अपभ्रंश एक मिश्रित भाषा थी जिसमें शब्दकोश का अधिकांश साहित्यिक प्राकृतों से ग्रहण किया गया और व्याकरणिक गठन देश्य भाषाओं से । शब्दावली भी देश्य ग्रहण की गई जिसपर संक्षिप्त वि बाद में प्रस्तुत करेंगे । राहुलजी ने उसी तथ्य को प्रकारान्तर से इस प्रकार कहा कि अपभ्रंश ने नये सुबन्तों और तिङन्तों की सृष्टि की। ऐसी उस युग की विकसनशील भाषा को पूर्णतः Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 अपभ्रंश-भारती विकसित करने का श्रेय स्वयंभू को है। डॉ. भायाणी ने भी स्वयंभू की भाषा की व्याकरणिक संरचना का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया । शब्दों के रूपों में तत्कालीन ध्वनि प्रक्रिया का प्रभाव पड़ा है, जैसेन के स्थान पर ण - नारायण - णारायण के स्थान पर - ज्ञान - गाण म के स्थान पर व - हरिदमन -- हरिववण -- प्रणाम - पणवेप्पिणु इसका विपरीत भी व के स्थान पर म - परिवृत्त - परिमिय - सिविर -सिमिर . इस प्रकार 'रणकार' युक्त शब्दों की भरमार मिलती हैआदि णर, णारायण, णीसरन्त मध्य विण्णि, भिण्ण, पहाणेहि अन्त - संघारण, भिण्ण । संधि होकर भी नये शब्दरूप बन गये हैंण + पायउ = णायउ (न आया) जड पुणु कहवि तुल लग्गें णायउ । ण + प्रावमि णावमि (न पाऊँ), जइ एम वि णावमि । . ण + आणमि णाणमि (न लाऊँ), जइ णाणमि तो सत्त मए दिणे। इस प्रकार न (नकारात्मक) युक्त शब्दरूप पर्याप्तरूप में प्रचलित हो गये। पर यह प्रवृत्ति अन्य शब्दरूपों में भी मिलती है, जैसेपडल + प्रोवरे पडलोवरे (पटल के ऊपर) चामीयर-पडलोवरे अवर + एक्कु प्रवरेक्कु (ऊपर एक) अवरेक्कु रणंगणे दुज्जयासु । पर + पाइउ (व) पराइउ (व) (पर आये) सिद्धत्थु पराइउ । किंचित् + उठ्ठियो किंचिदुट्ठिो (किंचित् उठा हुआ) विहि वि किंचिदुट्ठियो । कत् + दिवसु कदिवसु (किसी न किसी दिन) कद्दिवसु वि अवस पयाणउ । संधि की इस वृत्ति से तथा प्रांतरिक स्वरों की संधि से नये-नये शब्दों का विकास हुआ। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती 63 संस्कृत में जिस प्रकार विशेषणों के रूप भी विशेष्य के अनुसार होते थे उसी प्रकार स्वयंभू के काव्य में रूप विकसित हुए, जैसे प्रासंकिय-मणेण के अनुसार विहीसणेण इस प्रकार की नई शब्दावली के साथ-साथ सूक्तियाँ भी विकसित हुईं, जैसेजइ णासइ सियालु विवराणणु । तो कि तहों रूसई बंचारणणु॥ (यदि शृगाल गुफा का मुख नष्ट कर दे तो क्या इससे सिंह रुष्ट होता है ?) अपभ्रंश के सुधी विद्वान् डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन के अनुसार 'लिखी गई भाषा से जब बोली गई भाषा दूर जा पड़ती है तो उसमें स्थिरता और गतिशीलता, मानक और देशी तत्त्वों का प्रश्न पैदा होता है। मानकीकरण के बावजूद भाषा आगे बढ़ती है और देशीकरण प्रदेशीकरण में बदलता है।' . स्वयंभू के काव्य में कुछ ठेठ शब्दों का प्रयोग द्रष्टव्य हैढोर – 'ढोर' का प्रयोग तुलसी ने भी "ढोर पशु नारी" में स्पष्ट किया है । अच्छे बैल के लिए 'धवल' का प्रयोग मिलता है । मराठी में 'ढवल' प्रयोग में आता है। स्वयंभू के दुब्बल ढोरई पंकेइव (पंक-कीचड़ में फंसे ढोर की तरह)। सफेद बैल को भी धौरधौरा कहते हैं । डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन ने इसकी व्युत्पत्ति स्वीकार की है धवल >धउर >धोर >ढोर। ढोल - डोल तथा ढोल हिलने के अर्थ में आता है। हिन्दी में डोलना की जगह हिलना प्रयोग में प्राता है। झीना-झीना' कम घने के लिए प्रयोग में आता है । कबीर ने भी 'झीनी झीनी बीनी चद रिया' लिखा है । स्वयंभू ने भी प्रयोग किया हैझीरगउ दुराउलेण वरदेसु व (दुष्ट राजकुल से जैसे सुन्दर देश क्षीण हो जाता है वैसे ही सीता के वियोग में राम हैं ।) इस प्रकार 'झीण' का ही दूसरा रूप 'झीना' मिलता है। स्वयंभू के समक्ष अपभ्रंश का कोई आदर्श नमूना नहीं था । स्वयंभू ने भावप्रकाशन की क्षमता अपभ्रंश भाषा में बढ़ाई, उसे क्षमताभरी बनाया। युद्ध-वर्णन में भाषा का वेग प्रचंड बरसाती नदी की भांति तो श्रृंगारवर्णन में मंथर-मंथर गति से प्रवाहित धारा की भांति । अपभ्रंश की सरलता पर वह स्वयं मुग्ध है और सहज रूप में उसको गति प्रदान करता है। यह सहजता ही उसकी परम विशेषता है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सील जे मण्डणउ ................."दोच्छिउ रावण राहव-भज्जएँ। 'केत्तिउ रिणयय-रिद्धिमह दावहि, अप्पउ जगहों मझे दरिसावहि । एउ जं रावण रज्जु तुहारउ, तं महु तिण-समाणु हलुभारउ । एउ जं पट्टणु सोमु सुदंसण, तं महु. मणहो पाइं जमसासणु । एउ जं राउलु रगयण-सुहंकर, तं महु णाई मसाणु भयंकरु । एउ जं वावहि खणे जोव्वणु, तं महु मणहों णाई विस-भोयण । एउ जं कण्ठउ कडउ स-मेहलु, सील - विहूणहं तं मलु केवलु। रहवर-तुरय-गइन्द-सयाइ मि, प्रायहि मसु पुणु गण्णु ण काइ मि । घत्ता-सग्गेण वि काइँ जहिँ चारित्तहों खण्डणउ । ... किं समलहणेण महु पुणु सोलु जे मण्डणउ ॥ -रामपत्नी (सीता) ने रावण की भर्त्सना की-तुम अपनी कितनी ऋद्धि मुझे दिखाते हो ? इसे (तो) अपने लोगों के बीच दिखायो । हे रावण ! तुम्हारा यह राज्य मेरे लिए तिनके के समान तुच्छ है । तुम्हारा यह सौम्य-सुदर्शन नगर है वह मेरे लिए यमशासन के समान है। यह नेत्रों के लिए प्रानन्दकर राजकूल वह मेरे लिए भयंकर श्मशान के समान है। (तुम) जो क्षण-क्षण में अपना यौवन दिखाते हो वह मानो मेरे मन के लिए विष-भोजन है । ये कण्ठा, कड़ा, मेखला आदि प्राभूषण हैं ये शील-प्राभूषणवालों के लिए केवल मल है। सैंकड़ों रथ, घोड़े, हाथी (ये सब तुम्हारा वैभव) मेरे लिए मान्य (गिना-माना जाने योग्य) नहीं है। उस स्वर्ग से भी क्या (लाभ) जहां चारित्र का खण्डन हो । मेरे पास शील का मण्डन (आभूषण) है फिर कुछ (अन्य) प्राप्त करने से क्या (लाभ) ? पउमचरिउ 42.7 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक भाषा का सम्प्रयोजन सम्प्रेषण है लेकिन काव्य की भाषा का प्रभान्विति है । इसे ही भाव-योग या साधारणीकरण कहा गया है । यह प्रभाव जब मूर्त होता है तब इन्द्रियों का विषय होता है । इन्द्रियों में सर्वप्रमुख हैं नेत्र ग्रौर श्रोत्र । अतः काव्य में चाक्षुष चित्र और नाद चित्र विशेष महत्त्व के होते हैं । पउमचरिउ में ये दोनों ही प्रकार के चित्र मिलते हैं । इन चित्रों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है 1 रंग चित्र व्यतिरेकी रंगीय चित्र स्थिर 2 स्थिर पउमचरिउ के काव्यचित्र - डॉ. सुषमा शर्मा केवल प्रकाशीय चित्र प्राथमिक रंगीय चित्र गतिशील स्थिर गतिशील गतिशील स्थिर प्रकाश चित्र एकवर्णी रंगीय चित्र स्थिर गतिशील प्रकाश - छाया से निर्मित चित्र गतिशील Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-भारती रेखीय चित्र मुखरित गतिशील स्थिर गतिशील स्थिर 4 नाद चित्र स्थिर गतिशील मिश्रित स्थिर गतिशील 1. रंग चित्र प्र-व्यतिरेकी रंगीय गतिशील चित्र चित्रों में व्यतिरेकी रंगों की संयोजना का महत्त्व यह है कि एक रंग दूसरे रंग की चटक को उभारता है । ऐसे ही कुछ रंग चित्र यहां प्रस्तुत हैं दोसइ णासइ विप्फुरइ परिभइ धउद्दिसु कुंजरहों। चलु लक्खिज्जइ गयण-यले णं विज्जु-पुंजु णव जलहरहों ।। यह एक ऐसा चित्र है जिसकी रेखाएँ गति-चक्र में विलीन हो गई हैं और गति की तीव्रता के कारण रह गए हैं केवल रंग । आकाश के नीचे काला हाथी गोल घेरे में चक्कर काट रहा है और उसके चारों ओर रावण घूम रहा है। इस गति से तीन रंग उभरते हैंअाकाश का नीलापन लिये हुए सफेद रंग, उसमें घुमड़ते काले बादल और काले बादलों के बीच और कभी पास-पास बिजली की सुनहली कौंध । सब कुछ गतिमय है। इसी से कभी कहीं काला रंग चमकता है और कभी उसके बीच में और कभी इधर-उधर सुनहला प्रकाश कौंध जाता है । सफेद फलक पर काला रंग और काले की पृष्ठभूमि में सुनहला रंग सभी एक दूसरे की चटक को उभार रहे हैं और गति इनको एक विशेष चमक और झिलमिलाहट दे देती है। इसी प्रकार व्यतिरेकी रंगों की चटक लिये एक भव्य चित्र उस समय उभरता है जब रेवा नदी में सहस्रकिरण और उसके अन्तःपुर की जलक्रीड़ा का दृश्य सामने आता है....." अवरोप्परु जल-कोल करन्तहुं । धण - पाणालि-पहर मेल्लन्तहुँ । कहि मि चन्द-कुन्दुज्जल-तारेंहिं । धवलिउ जलु तुट्टन्तते हि हारेहि ॥ कहि मि रसिउ उहि रसन्तेहिं । कहि मि फुरिउ कुण्डले हि फुरन्तेहि ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश - भारती कहि मि सरस तम्बोलारत्तउ । कहि मि वउल- कायम्बरि-मत्तउ ॥ कहि मि फलिह कप्पूरेहि वासिउ । कहि मि सुरहि मिगमय वामोसिउ ॥ कहि मि वहल - कुङ्कुम-पिञ्जरिउ । कहि मि मलय-चन्दरण रस भरियउ ॥ कहि मि जक्खकद्दमेरण करविउ । कहि मि भमर रिछोलिहि चुम्बिउ || विदुम मरमय इन्दरगील सय चामियर वहु-वष्णुज्जलु णावइ णहयलु सुरघणु घरण हार संघाएँ । विज्जु वलायहि ||2 - - रमणियों का छूटा हुआ काजल, सुगन्धित चूर्ण के धुल जाने से जल पर मंडराते भ्रमरदल प्रकाश में स्थित मेघों की भांति कलौंहे हैं, कहीं गिरे हुए मणिमय आभूषणों के लाल, हरे, नीले, सुनहरे रंग तो कहीं केसर श्रादि चूर्ण से पीले पड़े जल में मानो इन्द्रधनुष ही उतरा है । चन्द्रमा और कुन्द पुष्पों से हुए शुभ्र निर्मल जल में बिजली की कौंध है और टूटेगिरे मोतियों के हारों में उड़ती बगुलों की पांति की धवलता और गति का भ्रम । नदी भी सजधज गई है | इन्द्रधनुष, मेघ, बिजली और बगुलों के साथ आकाश ही नदी में उतर आया है । इस पूरे रंग चित्र को विशेषता यह है कि किसी भी रंग का नाम कहीं नहीं लिया गया, केवल रंग के साथ जुड़ी विशिष्ट वस्तु की सहज उपस्थिति से ही रंगों की योजना है। व्यतिरेकी और प्राथमिक रंगों की सन्निधि है अतः चटक और चमक सामान्य से अधिक उत्तेजक है । वह इतनी अधिक है कि वस्तुओंों की रेखाएँ कहीं रह ही नहीं जाती, रह जाते हैं कुछ रंग और प्रकाश और उनकी कौंध । इस प्रकार नदी के रूप में धरती - आकाश एक हो गए हैं 'छिति, जल, पावक, गगन और समीर' सभी अभिन्न । 67 व्यतिरेकी रंगीय स्थिर चित्र - कवि ने व्यतिरेकी रंगों की सन्निधि के सौंदर्य को केवल गति में ही नहीं पकड़ा है, स्थिर चित्रों में भी उनकी चटक बिखेरी है । एक ऐसा स्थिर चित्र कवि ने उस समय प्रस्तुत किया है जब वह वन में रावण के अन्तःपुर का वर्णन करने में दत्तचित्त है · तं तेहउ रावण केरउ अन्तेउरु संचल्लियउ 1 रणं सभमरु मारणस - सरवरें कमलिरिंग वणु पष्फुल्लियउ || सीता के पास वन में रावण का अन्तःपुर चल कर आया है । सभी पास-दूर की चुनी हुई सुन्दरियां हैं, गौर वर्ण है, शृंगार की दीप्ति एवं हाव-भाव से युक्त हैं । उनके मुखमण्डल रक्तिम प्राभा से युक्त हैं । खाने-पीने और बड़े होने की एक निराली चमक है । उनके चेहरे खिले हुए हैं, स्निग्ध और कोमल हैं । मुख के आस-पास अलकें बिखरी हुई है । रानियां दुग्ध-धवल मोतियों के बने हार-दोरु पहने हैं । मोतियों की दुग्ध धवलिमा में सफेद - स्वच्छ मानसरोवर की भ्रान्ति उत्पन्न हो रही है । पूरा चित्र इस प्रकार उभरता हैदुग्ध-धवल जलवाले मानसरोवर में लाल कमल खिले हैं जिन पर रसपान के लिए काले भौंरे मंडरा रहे हैं । इन रंगों में श्रृंगार की एक तरलता घुली हुई है । लाल, काले और सफेद रंग से बने इस चित्र में प्राथमिक रंगों की चमक है और व्यतिरेक की चटक भी । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 अपभ्रंश-भारती इसी प्रकार कवि ने संध्या के माध्यम से सृष्टि या शून्य के विराट चित्र का निर्माण तब किया है जब वह हनुमान के द्वारा विध्वंस प्रक्रम के वर्णन में रमा है तं एवड्डु दुक्खु पेक्षेप्पिणु, रवि अत्यमिउ पाइँ असहेप्पिणु ।। अहवइ गह-पायवहाँ विसालहा, सयल-दियन्तर-दीहर-डालहों ॥ उवदिस-रङ्खोलिर - उवसाहहों, सञ्झा-पल्लव-णियर - सरणाहहों ।। वहुवव अब्भ-पत्त-सच्छायहों, गह-णक्खत्त - कुसुम - संङ्घायहाँ ।। पसरिय-अन्धयार-भमर-उलहों, तहो प्रायास-दुमहों वर-विउलहों ।। णिसि-पारिऍ खुड्डेवि जस लुद्धएँ रवि फलु गिलिउ गाइ रिणयसद्धएँ । वहल-तमाले जगु अन्धारिउ, विहि मि वलहें एं जुज्झु णिवारिउ ॥ . वे वि वलइँ वरण-णिसुढिय गत्त, णिय-रिणय-प्रावासहों परियत्त ।। रवि अस्त हो गया । अाकाश एक विशाल वट-पादप है, दिशाएँ जिसकी लम्बी-लम्बी डालें हैं, उपदिशाएँ जिसकी शाखाएँ हैं और संध्या जिसके पल्लव है, बादल जिसके पत्ते हैं, ग्रह-नक्षत्र जिसके कुसुम हैं, अन्धकार भ्रमरकुल है, इसमें वृक्ष की विराटता है, कोयलों में संध्या की लालिमा है और बादलों में पत्तों का रंग, चमकीले ग्रह-नक्षत्रों में विविध फूलों की आभा है। अन्धकार के कालेपन से भ्रमरों का कालापन एकीकृत है । इस तरह यह पूरा चित्र लाल, काले, हरे और चमकीले सफेद.रंग से मिल कर बना है । व्यतिरेकी रंग एक आश्रय में अंगांगी भाव से जुड़े हैं और एक विराट चित्र का सृजन करते हैं । सृष्टि का एक ऐसा ही विराट चित्र गीता के पन्द्रहवें सर्ग में मिलता है जहां कहा गया है—"हे अर्जुन, आदिपुरुष परमेश्वररूप मूलवाले और ब्रह्मरूप मुख्य शाखावाले संसाररूपी पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं तथा वेद जिसके पत्ते कहे गए हैं उस संसाररूपी वृक्ष को मूलसहित तत्त्व से जानता है वह वेद के तत्त्व को जाननेवाला है । और हे अर्जुन ! उस संसार की गुणरूप जलद्वारा बढी हई एवं विषयभोगरूप कोयलोंवाली देव, मनुष्य और तिर्यक प्रादि योनिरूप शाखाएं नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य योनि में कर्मों के अनुसार बांधनेवाली अहंता, ममता और वासना रूप जड़ें भी ऊपर और नीचे सभी लोकों में फैली हैं।''5 प्राथमिक रंगीय स्थिर चित्र-चित्रों में प्राथमिक रंगों का अपना ही महत्त्व है । ये मूल रंग हैं, अपने आप में शुद्ध । किन्ही रंगों के मिलने से ये नहीं बनते । इनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है और एक दूसरे में घुल-मिलकर अनेक रंग बनाते हैं जो द्वितीय रंग कहलाते हैं । घुल-मिलकर नए द्वितीय रंग में भी इनकी चमक तिरोहित नहीं होती । अतः चित्रों में इन रंगों की संयोजना का सौंदर्य यह है कि ये परस्पर एक दूसरे की चटक को उभारते हैं, अपनी चमक और चटक में कोई कमी नहीं आने देते हैं, साथ ही अपने द्वितीय रंग की प्राभा भी चारों ओर छिटकाते हैं । कवि स्वयंभू की सौंदर्य-चेतना ने इस सौंदर्य को पकड़ा है और चित्रों में रूपायित किया है जहां दर्शनिक संकेत और काव्यात्मक अर्थ एकीकृत हो गए हैं केक्कय-सुएण णमंतऍण सिरु रहुवइ-चलणंतरें-कियउ । वोसइ विहिं रत्तुप्पलहें गोलुप्पलु मज्झे गाई थियउ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69 अपभ्रंश भारती प्राथमिक रंगों से निर्मित यह चित्र उस समय उभरता है जब भरत राम के चरणों में सिर झुका कर नमन करते हैं। राम के चरण लाल हैं और केशपाश से प्राच्छादित सिर श्याम । लाल चरणों पर रखा हुआ सिर ऐसा प्रतीत होता है मानो दो लाल कमलों के बीच एक नीला कमल खिला हो [ साहित्य में नीला और काला समान रंग माने जाते हैं ] । इससे कविसमय की भी पूर्ति हो गई है कि सिर और चरण दोनों ही कमल से उपमित हैं और साथ ही रंग साम्य भी है। साथ ही दार्शनिकता का रूप भी उभर आया है-- -- प्रास्था और अनुराग में सब समान हो गया है । एक अन्य चित्र प्राथमिक रंगों की रंजित एक योद्धा का दृश्य सामने आता संयोजना से उस समय | योद्धा के वक्ष में बारण उभरता है जब रक्त से केवल प्रविष्ट ही नहीं हैं, बल्कि छाती फोड़कर दूसरी तरफ निकल गए हैं जहां वे ईषत् उठे हुए दीख रहे हैं । योद्धा रक्त से रंजित है और बाण काला है अतः वह काला भ्रमर जैसा दीख पड़ता है और रक्त से रंजित वक्षस्थल लाल कमल - समूह जैसा प्रतीत होता । रक्तिम आभा से युक्त गहरे चटक लाल रंग के कमल खिले हैं और फूलों पर भ्रमर रस-पान के लिए ठहरे हुए हैं । इस प्रकार यह - चित्र काले और लाल रंग से पूरा होता है। दोनों रंग अपनी-अपनी चटक और दीप्ति लिये हैं, एक दूसरे को भी उद्दीप्त कर रहे हैं और एक अन्य रंग की आभा भी विकीर्ण कर रहे हैं । एकवर्णी रंगीय चित्र — व्यतिरेकी श्रौर प्राथमिक रंगों से निर्मित चित्रों के अतिरिक्त पउमचरिउ में एकवर्णी तकनीक से निर्मित रंग चित्र भी मिलते हैं, यथा विन्भमहाव-भाव-भू भङ्गरच्छराई । जायइँ सुर - विमाणइं धूलिधूसराई ॥ ताव हेइ घट्टणेण करालउ । उच्छलियउ सिहि-जाला - मालउ ॥ सिवियहिँ छत्त - घऍहिँ लग्गन्ति । अमर - विमाण सयाइँ बहन्ति ॥ पुणु पच्छले सोणिय जल धारउ । ताहिं असेसु दिसामुहु सित्तउ । प्रणउ परियत्तउ गयरगङ्गहों । जय वसुन्धरि रुहिरायम्विरि । करि - सिर- मुत्ताहले हिँ विमोसिय । रय पसमरणउ हुप्रास - रिणवारउ ॥ थिउ गहु णाई कुसुम्मऍ घित्तउ ॥ णं घुसिणोलिउ णह - सिरि- श्रङ्गहीँ ॥ सरहस - सुहड - कबन्ध - पणच्चिरि संझ व ताराइण्ण पदोसीय || युद्ध क्षेत्र में छत्र पताकाएँ - पालकियाँ आदि जल रहे हैं, आग की कराल लपटें उठी हैं । युद्ध भूमि रक्तपात से लाल है । धूल उड़ रही है । गज-मोती बिखरे पड़े हैं । यह दृश्य संध्या के चित्र में रूपायित होता है जो एकवर्णी तकनीक के आधार पर एक लाल रंग के विविध प्रभाभेदों की संयोजना से निर्मित है— पीत प्राभा लिये आग का लाल रंग, रक्त का गहरा चमकदार लाल रंग, मटमैला लाल रंग, कुसुम्भ व कुमकुम का लाल रंग, ये सब प्रभाभेद संध्या का चित्र बनाते हैं जो कल्पना के सादृश्य में कौंधते हैं । लाल रंग प्राथमिक रंग भी है जो अपनी मूल चटक और चमक को बनाए रहता है और अनेक अन्य रंग छवियों को भी बिखेरता रहता है | इस एकवर्णी तकनीक से चित्र में दृक् की व्यापकता, काल की गति, Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 अपभ्रंश भारती प्रकाश व छाया आदि संश्लिष्ट रूप में संवेद्य हुए हैं। लालिमा की इस पृष्ठभूमि में श्वेत चमकते गज-मोती तारों से भरी संध्या का चित्र ही पूरा नहीं कर देते हैं, उसे दीप्ति भी देते हैं और अधिक गहरा व चटकीला भी बना देते हैं । 3. रेखीय चित्र - रेखीय गतिशील मूक चित्र वि पुरन्दरु णिग्गउ श्रइरावऍ चडिउ | णं विज्झहों उपरि सरय - महाघणु पायडिउ 118 'पउमचरिउ' के कम ही चित्र रेखीय हैं, प्रायः मिश्रित ही मिलते हैं । उक्त चित्र की प्रमुख रेखाएँ ऊँचाई और विस्तार संबंधी हैं, साथ ही भौतिकी की गति के नियम से हैं । प्रकाश को छूता ऊँचा, चारों ओर फैला, वनस्पति से भरा विन्ध्याचल पर्वत है । रंग भी उसका काला है । उस पर शरद के धवल धूसरित बादल मंद-मंथर गति से प्रा-जा रहे हैं । बादलों की गति ने पर्वत को भी गति प्रदान कर दी है। इनमें आभिजात्य घुला-मिला है और प्रभाव के रूप में छिटका पड़ रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि ऊँचे फैले और काले हाथी पर इन्द्र बैठा हो । इन्द्र ऐश्वर्य का प्रतीक है, प्रशासन और संरक्षण का अर्थात् श्राभिजायका । रेखाएँ काले और श्वेत रंग में उभरी हुई हैं और वक्र हैं । रेखीय मुखरित गतिशील चित्र पहन्तरे भयङ्करो । वलो व्व सिङ्ग - दोहरो । कहिँ जे भीम - कन्दरो कहि जि रत्तचन्दणो । कहि जि दिट्ठ-छारया । कहि जिसीह - गण्डया । कहि जिमत्त - भिरा । कहि जि पुच्छ - दोहरा । कहि जि थोर कन्धरा । कहि जि तुङ्गङ्गया । कहि जि श्रारणुष्णया । 11 साल- छिण्ण-कक्करो रिणयच्छिम्रो महीहरो ॥ भरन्त-रगीर - णिज्झरो ॥ तमाल - ताल - वन्दणो || लवन्त मत्त मोरया || धूणन्त-पुच्छ - वण्डया गुलुग्गुलन्ति कुंजरा || किलिक्लिन्ति वाणरा ।। परिब्भमन्ति सम्बरा ।। हयारि- तिक्खसिङ्गया || कुरङ्ग वुण्ण - कण्णया ||१ 11 - चित्र वंशस्थल के पर्वत का है । इस में सूक्ष्म - स्थूल रेखाएं हैं, विविध नैसर्गिक ध्वनियां हैं और एक संश्लिष्ट गति है । प्रकृति का प्रायाम ही इसके द्वारा विस्तृत हुआ है, गहराई भी बढ़ी है, स्वच्छन्दता और विविधता भी उभरी है। हिंस्र जीवों के विशेषण 'दीहरा', 'थोर', 'तुंग', 'तिक्ख' [ लम्बा, स्थूल, तीखा, ऊँचा ] पर्वत के अंग बन गए हैं- इस प्रकार दोहरे हो एक हैं और भौतिकी के द्रव्यमान की अवधारणा पूरी करते हैं । शिखर ऊँचे शृंगों में ही नहीं दीख पड़ते, पूरा पर्वत ही वनैला पशु हो गया है । इस तरह पर्वत में पशुभाव और Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती पशुओं मे पदार्थभाव के आयामों के प्राभास ने उन्हें एक बना दिया है- प्रविभाजित और पूर्ण । हाथियों की गुलगुलाहट, सुअरों की घुरघुराहट, बन्दरों की किलकिलाहट, झरनों की झरझराहट, मोरों की केका और सिंहों की पूंछों की फटकार ने समूचे पर्वत को भयंकर ध्वनि से भर दिया है कि पर्वत का हर भाग बोलता, दहाड़ता, डराता प्रतीत होता है । चित्र के उपसंहार में हिरन की अप्रस्तुत दौड़ को दो रेखानों में समेट लिया गया है उनके कान खड़े हैं, मुंह लटका है मानो वे भी भीत- त्रस्त । अंश की गति सम्पूर्ण को गतिशील बना देती है जिसमें फिर रेखा और शब्द अलग नहीं रह जाते । रेखीय मूक स्थिर चित्र हिसिंचिय सीयल-चन्दर रेग पड वाइय वर कामिणिजणेण । श्रासासिय सुन्दरि पवण - पिय । णं थिय तुहिणाहय कमल सिय || जलतत्त्व यह एक ऐसा चित्र है जिसमें कमल का पुष्प हिम से आहत है । उसका निकल चुका है, इसलिए उसका रंग भी विवर्ण हो गया है । उसकी ऊर्जा भी समाप्त हो गई है । वह बेबस हो कर शव की तरह लटक गया है और जिसके सहारे लटका है उसे भी अपने बोझ से झुका रहा है अर्थात् शव की तरह विवर्ण और बोझिल । इसी प्रकार अनेक रेखीय स्थिर और मूक चित्र 'पउमचरिउ' में मिल जाते हैं । 71 एक और उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है वेलन्धर - घरे - मुक्क पयाणउ । थिउ वलु सरयब्भ-उल समारगउ |111 रेखाओं से निर्मित इस चित्र में कवि ने शरद ऋतु के आकाश का दृश्य प्रस्तुत किया है । शरद ऋतु के मेघ पावस ऋतु की तरह घने और गतिशील नहीं होते ग्रपितु वे दूर-दूर छितरे और ठहरे हुए होते हैं । निर्मल नीला खुला आकाश है और उसमें यहां-वहां कुछ-कुछ दूरी पर रुई जैसे सफेद बादल जमे हुए हैं। यह स्थिर चित्र उस समय उभरता है जब रावण की सेना की टुकड़ियाँ वेलंधर पर्वत पर यहाँ-वहाँ जगह-जगह डेरा डालकर जम जाती हैं । 4. छाया चित्र छाया-प्रकाश गतिशील चित्र विहि मि निरन्तर वावरणे सर-जालु पहावइ । fare सो मज्झे थिउ घण डम्बरु णावइ || 12 प्रस्तुत चित्र शत्रुघ्न और मधु राजा के बीच संग्राम - व्यापार में उभरा है। दोनों निरन्तर तीक्ष्ण तीव्र बारण छोड़ रहे हैं । बारण विविध दूरी पर गिर रहे हैं और विविध गति से ऊँचाई को पार कर रहे हैं । वे ऐसे दीखते हैं मानो विन्ध्याचल और सह्य पर्वत के बीच आतिशबाजी छूट रही हो । इन में दोनों पर्वत हरे और काले हैं । प्रातिशबाजी रात्रि के काले अन्धेरे में ही निखरती है, दिन के प्रकाश में तो ग्राहट ही प्राहट रह जाती है, रंग नहीं दिखलाई पड़ते । मालूम ऐसा पड़ता है कि बाण एक-दूसरे से टकराकर चिंगारियां छोड़ रहे हैं । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 अपभ्रंश-भारती कवि ने इस चित्र को उपयुक्त पृष्ठभूमि में मूर्त किया है जो यथा-तथ ही नहीं अपितु सुन्दर और चटकदार भी हो गया है । प्रकाश और छाया से निर्मित एक गतिशील चित्र कवि श्रीमाला के स्वयंवर का वर्णन करते समय प्रस्तुत करता है पुर उज्जोवन्तिय दीवि जेम । पच्छह अन्धार करन्ति तेम ॥13 श्रीमाला गौर वर्ण की है और गौर-वर्ण भी सुनहली आभा से युक्त है । काले हाथी पर बैठी वह स्वयंवर में सभा-मडंप में जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे आगे-आगे प्रकाश फैलता जाता है उसके पीछे-पीछे अन्धकार छा जाता है। उसके मुख की दीप्ति बिजली की कौंधवाली है, दीप-शिखा जैसी है और पीछे धनी काली केशराशि है। काले हाथी की पृष्ठभूमि में व्यतिरेक से मुख की दीप्ति और भी अधिक चटक हो गई है। प्रतः यह चित्र उभरता है कि एक दीपशिखा पागे-मागे प्रकाश करती हई पीछे-पीछे अन्धकार छोड़ती जाती है । इन्दुमती के स्वयंर में कालिदास ने भी एक ऐसा चित्र उकेरा है सञ्चारिणी दीपशिखेव रात्रौ ययं व्यतीयाय पतिवंरा सा । नगेन्द्रभागा इव प्रपेदे विवर्ण भाव सस भूमि पालः । रघुवंश 6.67 छाया प्रकाश स्थिर चित्र रावण घरें जय तूर अप्फालिय । राहव-वले मुह। पाइँ मसि-महलिय: ॥14 रावण और राम के बीच चल रहे युद्ध में जब कभी रावण की जीत होती है तब रावण की सेना में हर्षोल्लास फूट पड़ता है और राम की सेना का मुंह स्याही से पुत जाता है । चित्र का एक हिस्सा काला है और दूसरा उज्जवल । छाया और प्रकाश प्रात्मग्लानि व दुःख तथा उल्लास को मूर्त करते हैं। ऐसा ही एक और चित्र तब सामने आता है जब कवि रावण के उपवन में बैठी सीता का वर्णन करने में लीन है तहों वणहों मझे हवन्तेण सीय णिहालिय दुम्मणिय । णं गयण-मग्गे उम्मिल्लिय चन्दलेहवीयहें तणिय ॥15 सीता रावण के उपवन में है, विमन बैठी है मुख की कान्ति धीरे-धीरे काली पड़ती जा रही है, कहीं-कहीं लालिमा बच गई है। सीता के मन में प्राशा-निराशा के भाव प्रा-जा रहे हैं। निराशा का विचार कालेपन की कूची से उसके चेहरे को पोत सा जाता है और पाशा की किरण उसमें कभी-कभी भटकी दीप्ति जैसे दीख पड़ती है। कवि को वह चन्द्रमुखी अब केवल द्वितीया के चन्द्रमा जैसी दीख रही है। यहां सीता के मन का तूफान क्षीण और अस्थाई प्रकाश से प्रतीत हुआ है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती प्रकाशीय चित्र 'पउमचरिउ' में कुछ ऐसे भी चित्र हैं जिनमें केवल प्रकाश ही प्रकाश है यथा tories वारणें छिण्णु छत्तु णं खुडिउ मरालें सहसवत्तु । णं सूरहों जेमन्ते हों विसालु, वियलिउ कराउ कलहोय थालु || है युद्ध क्षेत्र में छत्र कट कट कर गिर रहे हैं । बारण उनमें उलझे हुए हैं । कवि को वे हंसों द्वारा क्षुटित लालकमल पुष्प प्रतीत होते हैं या विशाल सूर्य जैसे दीखते हैं । लेकिन कवि को इसमें संतोष नहीं होता है । वह उस चित्र को पूरा-पूरा उतार नहीं पाया है । लालकमलों के टूटे पड़े होने पर भी उनमें संश्लेष नहीं और सूर्य की विशालता में बाण नहीं है । दोनों कल्पनाओं में चित्र में कुछ छूटा रह गया । श्राकांक्षा रह गई है । काले बाण भी सुनहरे छत्र के प्रकाश के परावर्तन से स्वर्णमय हो गए । इसलिए यहां कवि एक नया चित्र प्रस्तुत करता है कि सोने के थाल से किरणें निकल रही हैं, यहां कवि ने उन दोनों बिन्दुओं को मिला दिया है जहां स्वर्ण आभा जन्मती है और जहां से फूट-फूट कर बिखरती है । सर्वत्र प्रकाश ही प्रकोश है, इकट्ठा भी और छिटका भी । 5. नाद चित्र कवि ने एक विराट् शब्द-चित्र उस समय निर्मित किया है जब उसका एक पात्र रावण के वन को भंग करने में व्यस्त है— वणु भंजमि रसमसकसमसन्तु । महिवीढ गाढ़ विरसोरसन्तु ॥ गायउल- विउल-चुम्भल-वलन्तु । रुक्खुक्खय-खर खोणियं खलन्तु || गोसेस - दियन्तर - परिमलन्तु । कङ केल्लि - वेल्लि - लवली - ललन्तु ॥ तुङ्गङ्ग-भिङग - गुमुगुमुगुमन्तु । तरु - लग्ग - भग्ग - दुमुदुमुदुमन्तु ।। एला कक्कोलय कडयडन्तु । वड - विडव - ताड-तडतडतडन्तु ॥ करमरकरीर करकरयरन्तु प्रासत्यागत्थिय - थरहरन्तु मड्डड्ड मड्डु सय-खण्ड जन्तु । सत्तच्छय - कुसुमामोय 1 73 || दिन्तु 1117 मिश्रित चित्र ध्वनियाँ अनेक हैं, नाद एक है और ये ध्वनियां रसमस, कसमस पेड़ों के खींचने की, नागों के भागने की चुंभलता, पेड़ों के उखड़ने और भूमि में गड्ढा होने की खलखलाहट, लवली (लौंग) आदि का ललकना, भौंरों का गुमगुमाना, पेड़ों के आपस में टकराकर टूटने की दुमदुमाहट, ऐला [ इलायची ] की कड़कड़ाहट, और वह ताड़ों की तड़तड़ाहट, करमर [करील ] की करकराहट, अश्वत्थ [ पीपल ] की थरथराहट सर्वत्र सुनाई पड़ रही है और सब ध्वनियाँ मिलाकर विराट् नाद का निर्माण कर रही हैं जो विध्वंस के क्रिया व्यापार को मूर्त करता है । वरणमाल नियतेवि भग्गमारण । गय लक्खरण-राम सुपुज्जमारण || थोवेन्तरे मच्छुत्थल्ल देन्ति । गोला - णइ बिट्ठ समुव्वहन्ति ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती सुंसुपर - धोर - घुरघुरुहरन्ति । करि - मयरड्डोहिय - डुहुडुहन्ति । डिण्डीर - सण्ड - मण्डलिउ देन्ति । दद्दुरय - रडिय - दुरुदुरुदुरन्ति । कल्लोलुल्लोलहिं उव्वहन्ति । उग्घोस - घोस घवघवघवन्ति ॥ पडिखलण-वलण-खलखलखलन्ति । खलखलिय-खडकक-खडकक देति ॥ ससि-सङ्ख कुन्द-धवलोज्झरेण । कारणडुड्डाषिय - उम्वेरण ॥18 गोदावरी नदी का एक अद्भुत गतिशील बोलता चित्र स्वयंभू के काव्य में ही हो सकता था। इसमें गति कहीं ध्वनि से मूर्त हुई है तो कहीं रंग से और कहीं ज्यामितीय कोणों और स्थितियों में वह रुक सी गई है । वेग से बहते जल का नाद जब घड़ियाल के मुंह से निकलता है तो नदी घुरघुराने लगती है, जब मेंढ़कों के गले में भर कर बाहर आता है तब वह दुरदुराने लगती है। तरंगों में गति के फूटने से वह छपछपाती है, मोड़ों पर मुड़ते हुए और झरनों के गिरने पर खलखलाती है और चट्टानों पर बहते हुए सरसराती है। इस संगीत के बीच नदी की गति भी समतल नहीं रहती, वह चढ़ती-उतरती है। हाथियों और मगरों के क्रीड़ा-पालोड़न से उठते-गिरते वेग के रूप में नदी हडुहाने का शब्द करती है और वह भंवर की भांति फैलते-मुड़ते फेन उगलती जाती है । इस आवाज और चाल के साथ-साथ नदी का एक रंग भी है जो शंखों, चन्द्रमा और कुन्द के श्वेत पुष्पों से मिलकर उजलाता है और मछलियों के शल्कों की चमक व उनकी उछल-कूद से कौंधता जाता हे-श्वेत पर धवलिमा की कौंध, कुछ पीताभ श्वेत और दुग्ध धवल, सबसे मिलकर एक उठता हा प्रकाश का भभूरा जिसने गति का पकड़ना भी असंभव बना दिया है। नदी वेग में बदल गई है । रूप में यह चित्र मिश्रित है, इसमें रेखाएं हैं, रंग हैं, ध्वनि है, गति है और प्रकाश है, अर्थ में यह संश्लिष्ट है । ऐसा चित्र कवि तभी दे सकता है जब उसकी चेतना अनेक प्रकार के इन्द्रियबोध के स्तर पर एक साथ सक्रिय हो सके, संष्लिष्ट रूप से कार्य कर सके ऐसे चित्र स्वयंभु के व्यक्तित्व और उसकी दृष्टि की समग्रता के परिचायक हैं। निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि कवि स्वयंभू ने सभी प्रकार के काव्य चित्र खड़े किए हैं वे रूप, रंग, रेखा सभी दृष्टियों से अनुपम हैं। इनके विषय विविध हैं, कुछ में प्रकाश की झलक है कुछ में छाया का बिखराव, कहीं रंगों की भास्वरता है तो कहीं नाद की लय । कुछ चित्र एकायामी हैं और कुछ अनेकायामी । इन चित्रों द्वारा प्रत्यक्ष प्रभाव, मूर्तिमत्ता की सृष्टि हई है। ये पाकर्षक और मोहक चित्र चमत्कार के माधन नहीं हैं। इनसे अर्थ अधिक गहरा, संवेद्य और सृजनशील हुआ है। कवि ने जहां प्रकृति के विराट् चित्र दिए हैं और धरती तथा प्राकाश में धरती के जो चित्र प्रस्तुत किए हैं, उन्हें एक कर दिया है। वहां सहजता से ही यह अर्थ अनुभूत होता है कि सिद्धान्त और व्यवहार के एकरूप होने में ही पूर्णता है। उच्च ने निम्न को क्रोड में समेट लिया है और निम्न शिवरगामी हो गया है । इसी तरह प्राथमिक रंगों की संयोजना अनायास ही इस दार्शनिक विचार की अनुभूति करा देती है कि प्रपंच का मूल कारण प्रपंच में भी है और प्रपंच से परे भी। स्वयंभू ने अनेक दीखनेवाले विरोधी रंगों को एक पाश्रय में सम्पूरक रूप में इस प्रकार नियोजित किया है कि उनका विरोध मिट गया है और सहयोग विस्तृत व गहरा हो गया है—एक संपूर्ण सृजन जो घटने-बढ़ने से घटता-बढता नहीं है। स्वमंभू के काव्य-चित्रों में अनुभूति और विचार, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 75 भाव और बुद्धि, राग और दर्शन की अलग प्रतीति नहीं होती । इनका अविभाज्य संश्लिष्ट रूप मिलता है । इन चित्रों में कवि की समग्र चेतना का शब्द, रेखाओं और रंगों से उन्मुक्त मिलन है । कला का अर्थ भी यही है । कला के विषय में केवल फोसीलन ही नहीं कहते, स्वयंभू के ये चित्र स्वयं ही बार-बार बोलते हैं – “कला संवेदना को रूप का परिधान मात्र नहीं पहनाती है वरन् कला संवेदना में रूप का उदय भी करती है।" 1. पउमचरिउ 11.6.9 2. वही 14.6.1-9 3. वही 49.11.10 4. वही 63.11.2-9 5. गीता 15.2 6. पउमचरिउ 79.1.9 7. वही 17.2.1-8 8. वही 16.14.9 9. वही 32.3.1-12 10. वही 19.16 8-9 11. वही 20.3.7 12. वही 80.9.9 13. वही 7.3.8 14. वही 6.3.11.10 15. वही 49.7.10 16. वही 48.10.6 17. वही 51.1.2-8 18. वही 31.3.1-7. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरिउ में बिंब -डॉ. जे. एस. कुसुमगीता बिंब काव्य का अनिवार्य उपादान है। वास्तव में बिंब ही काव्य में भाव तथा विचार का साधक है । संसार की सभी भाषाओं के साहित्य में बिंब की प्रधानता रही है। कवि के ऐंद्रिक संवेदनों की राग-संपृक्त अभिव्यक्ति ही बिंब का रूप धारण करती है । अपने वर्ण्य विषय की सफल सार्थक अभिव्यंजना के लिए कवि किसी अन्य साधन का उपयोग करे या न करे, बिंबों का उपयोग वह अवश्य करता है। बिंब अनिवार्य रूप में मूर्त ही होता है । चूंकि ऐंद्रिय अनुभवों में चाक्षुष अनुभव-रूप सर्वाधिक मूर्त होता है, बिब में रूप-तत्त्व की प्रधानता होती है । स्वयंभू के 'पउमचरिउ' में बिंबों की भरमार है और अधिकांश बिंब प्रकृति के क्षेत्र से गृहीत हैं। इन बिंबों को सात वर्गों में बांटा जा सकता है 1. जलीय बिंब 2. प्राकाशीय बिंब 3. पार्थिव बिंब 4. वायव्य-बिंब 5. तेजस बिंब 6. ऋतु एवं काल संबंधी बिंब 7. मानवेतर प्राणी-बिंब । संवेदनों के आधार पर बिंब पांच प्रकार के हो सकते हैं1. चाक्षुष या दृश्य 2. श्रव्य 3. स्पर्श 4. प्रास्वाद्य 5. घ्राण । 'पउमचरिउ' में उपर्युक्त सभी बिंब पाये जाते हैं । 1. दृश्य बिब प्रत्येक कवि के काव्य में दृश्य-बिंब ही अधिक होते हैं। स्वयंभू के काव्य में भी इसी की बहुलता है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती ___ श्याम रंग की यमुना एवं उज्ज्वल गंगा का सुन्दर बिंब कवि यों प्रस्तुत करता है कि यमुना पार्द्र मेघों के समान श्यामरंग की थी जो नागिन की भांति काली थी और जल से ।.........."मानो धरती पर खींची गई काजल की लकीर हो । गंगा की तरंगें जल से एकदम स्वच्छ थीं, चंद्रमा और शंख के समान जो शुभ्र थीं। ......"जा प्रलय-जलय-गवलालि वण्ण । जा कसिरण भअंगि व विसहो भरिय । कज्जल रेह व णं धरए धरिय ।। थोवंतरे नल - णिम्मल तरंग । ससि-संख-समप्पह दिट्ठ गंग ॥ 69.7.6-8 प्रभात का वर्णन करते हुए कवि प्रकृति का एक सुंदर बिंब खड़ा कर देता है। सवेरे चंद्रमारूपी पक्षी उड़ गया और अंधकाररूपी मधुकर चला गया। रात्रिरूपी पेड़ के नष्ट होने पर तारारूपी फल भी झड़ गए। चंद-विहंगमे समुड्डावियए (गय) अन्धार महुयरे ।। तारा कुसुम-णियरें परियलिएँ मोडिए रयणि तरुवरे । 70.1-1 राम और रावण की सेनाओं में युद्ध हो रहा था । सूर्य डूब गया । लगता था प्राकाशरूपी वृक्ष में सूर्यरूपी सुंदर फल लग गया है। दिशाओं की शाखाओं से वह वृक्ष शोभित हो रहा था। संध्या के लाल-लाल पत्तों से वह युक्त था। बहविध मेघ उसके पत्तों की छाया के समान लगते थे । ग्रह और नक्षत्र उसके फूलों के समूह थे । भ्रमर-कूल की भांति उस पर धीरे धीरे अंधकार फैलता जा रहा था। वह अाकाशरूपी वृक्ष बहुत बड़ा था। परन्तु यश की लोभिन निशारूपी नारी ने उसके सूर्यरूपी फल को निगल लिया। घने अंधकार ने संसार को ढक लिया मानो उसने दोनों सेनाओं के युद्ध को रोक दिया। "सयल - वियंतर - दोहर-डालहों। उदिस-रंखोलिर-उवसाहहो । संझा - पल्लव-णियर - सणाहहों ॥ वहुवव प्रभ-पत्त-सच्छायहों । गह एक्खत्त - कुसुम - संघायहो। पसरिय अंधयार-भमर-उलहों । तहो पायास-दुमहों वर-विउलहो । णिसि णारिएँ खड्डे वि जस-लुद्धएँ। रवि फलु गिलिउ णाई णियसद्धए । वहल तमाले जगु अंधारिउ । विहि मि वलह णं जुज्झु रिणवारिउ ॥ 63.11.3-8 शरद् के आगमन से वनवृक्षों की कांति और छाया सहसा सुन्दर हो उठी । नई नलिनियों के कमल ऐसी हंसी बिखेर रहे थे मानो कामिनीजनों के मुख ही हंस रहे हों। दृश्य ऐसा लग रहा था मानो अपने निरंतर निकलनेवाले धनरूपी धवल कलशों से प्राकाशरूपी महागज ने शरदकालीन वसुधा की सौंदर्य-लक्ष्मी का अभिषेक कर उस प्रबोधिनी को कभगिरि पर अधिष्ठित कर दिया हो। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 अपभ्रंश भारती छडु में छुडु में सरयहाँ प्रागमणे, सच्छाय महादुम जाय वणें ॥ णव णलिणिहें कमलइँ विहसियइँ, गं कामिणि-वयण पहसियइँ ॥ धवलेण पिरंतर - रिणग्गएण, घण - कलसे हिंगयण - महग्गएँण ॥ अहिसिंचेवि तक्खणे वसुइ-सिरि, णं थविय प्रवाहिणि कुम्भइरि ॥ 36.2.2-5 स्वयंभू नर्मदा को प्रिय से अनुरक्त बाला के रूप में कल्पित करके कैसा सुन्दर बिंब प्रस्तुत करते हैं, देखिए समुद्र के पास जाते हुए उसने शीघ्र अपना प्रसाधन कर लिया। जो उसमें जल के प्रवाह का घवघव शब्द हो रहा है, वही उसके नूपुरों की झंकार है, जितने भी कांतियुक्त किनारे हैं वे ही उसके ऊपर ओढ़ने के वस्त्र हैं, जो जल खलबल करता हुआ उछलता है, वही रसनादाम है । उसमें उठनेवाले प्रावतं ही उसके शरीर की त्रिवलियों रूपी लहरें हैं । उसमें जलगजों के कंभ ही उसके प्राधे निकले हए स्तन हैं। फेन, जो उठ रहे हैं, वे ही हार हैं, जलचरों के युद्ध से रक्तरंजित जल ही उसके तांबूल के समान है, मतवाले गजों से जो उसका पानी मैला हमा, वही मानो उसकी आँखों का काजल है, ऊपर नीचे होनेवाली तरंगें उसकी भौहों की भंगिमा है, जो उसमें भ्रमरमाला व्याप्त है वह उसकी केशावली है । णम्मयाएँ मयरहरहों जन्तिएँ । पाइँ पसाहणु लइउ तुरंतिए । घवघवंति जे जल-पन्भारा । तो जि पाइँ ऐउर-झंकारा ॥ पुलिणइँ जाइँ वे वि सच्छायई । ताई जे उड्ढणाई णं जाय ॥ जं जलु खलइ वलइ उल्लोलइ । रसरणा-दामु तं जि णं घोलइ ॥ जे मावत्त समुट्ठिय चंगा । ते मि गाई तणु-तिवलि तरंगा ॥ जे जल-हस्थि-कुम्भ सोहिल्ला । ते जि पाई थण अधुम्मिल्ला ।। जो हिण्डीर-णियर अंदोलइ । णावइ सो जें हारु रखोलइ ।। जं जलयर-रण-रंगिउ पाणिउ । तं जि गाई तंबोलु समारिण उ ॥ मत्त-हस्थि-मय-मइलिउ जं जल । तं जि णाई किउ प्रक्खिहिं कज्जलु ॥ जाउ तरंगिरिणउ प्रवर-मोहउ । लाउ जि मंगुराउ णं भउहउ ॥ जाउ भमर-पतिउ मल्लीरगउ। केसावलिउ ताउ रणं दिण्णउ ॥ 14.3.1-11 2. श्रव्य बिब स्वयंभू के काव्य में श्रव्यबिंबों की बहुलता है जो कवि की श्रवणसंवेदना के बहुमुखी रूप का परिचायक है। भयंकर नाद, मेघ-गर्जन, सिंह-गर्जन, सागर-गर्जन, नदी का कल-कल नाद, पक्षियों का कलरव, वज्राघात की ध्वनि, आनंदभेरी, डमरुनाद, घंटों की ध्वनि प्रादि अनेक ध्वनियों को स्वयंभू ने प्रस्तुत किया है । ____ गोदावरी नदी का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि गोदावरी में मछलियाँ उछलकूद मचा रही थीं। शिशुमारों में घोर घुरघुराती हुई, गज और मगरों के पालोडन से Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 79 डुहडुहाती हुई,".......मेंढकों की ध्वनि से टर्राती हुई, तरंगों के उद्वेल से बहती हुई, उद्घोष के शब्दों से छप-छप करती हुई, जल-प्रपातों के स्खलन और मोड़ से खलखल करती हुई और चट्टानों पर सरसराती हुई वह बह रही थी। .........."गोला गइ दिट्ट समुन्वहंति ॥ सुसुपर - घोर - धुरुधुरुहुरंति । करि - मयरड्डोहिय - डुहडुहन्ति । डिण्डोर-सण्ड - मण्डलिउ देन्ति । ददुरय - रडिय - दुरुदुरुदरन्ति ॥ कल्लोलुल्लोलहिं उब्वहन्ति । उग्घोस - घोस . घवघवघवन्ति । पडिखलण-वलण-खलखलखलन्ति । खलखलिय • खलक्क-झडक्क देन्ति । 31.3.2-6 क्षेमंजलि-राज द्वारा फेंकी गयी शक्ति धकधकाती हुई समरांगण में इस तरह दौड़ी मानो नभ में तड़तड़ करती बिजली ही चमक उठी हो। धाइय धगधगन्ति समरंगणे । णं तडि तडयडन्ति णह - अंगणे ॥ 31.11.7 हनुमान का विमान घंटों की टन-टन ध्वनि से झंकृत हो रहा था। रुनझुन करती हुई किंकिणियों से मुखर था । घवघव और घर-घर शब्द से गुंजित था। ........."टणटणंत - घंटा-वमालए। रणरणंत - किकिणि - सुघोसए । घवघवंत - घग्घर - विघोसए ॥ 46.1.2-3 ........... राम ने रावण के ऊपर अभियान किया। तरह-तरह के रण-वाद्य बज उठे । डउँ डउँ-डउँ डमरु शब्द, तरडक-तरडक नाद, धुम्मुक-धुम्मुक ताल, -रु-रुं कल-कल, तक्किसतक्किस मनोहर स्वर, दुणिकिरि-दुरिगकिरि वाद्य और गेग्ग दु-गेग्गदु-घात इत्यादि अनेक भेदसंघातों से युक्त तूर्य बज उठे। डउँ-डउँ-उउँ-डउँ-डमरुप्र-सद्देहिं । तरडक-तरडक - तरडक-पढ़े हि ॥ धुम्मुकु-धुम्मकु - धुम्मकु ताले हिं । 5-3-रुंजंत वमाले हिँ ॥ तक्किस-तक्किस-सरे हि मरणोज्जे हिं। दुणिकिटि-दुरिणकिटि-थरिमदि वज्जे हिं॥ गेग्गदु - गेग्गदु . गेग्गदु-घाऍहिं । एयाणेय - भेय संघाऍहिं ।। 56.1.8-11 ऐसे अनेक उदाहरण स्वयंभू के काव्य में पाये जाते हैं । 3. स्पर्श बिंब स्पर्श संवेदना प्रों के अंतर्गत शीतलता, दाहकता, कठोरता, चिक्कणता तथा रुक्षता प्रादि पाती हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 अपभ्रंश भारती सीता राम से जल मांगती है जो हिम-शीतल और शशि की तरह निर्मल हो । जलु कहि मि गवेसहो रिणम्मलउ । जं तिस-हरु हिम-ससि सीयलउ । ___27.12.3 सीता मालती-माला की तरह कोमल हाथों से राम का आलिंगन करती है। जं प्रालिंगइ वलय - सणाहहिँ । मालइ - माला - कोमल वाहहिँ ॥ 38.4.5 दधिमुख नगर में एक भी सरोवर सूखा नहीं था मानो वे पर-दुःख-कातरता से शीतल थे। जहिं ण कयावि तलायई सुक्कई । णं सोयलइँ सुठ्ठ पर-दुक्खइँ ॥ 47.1.4 इसी प्रकार दाहकता एवं कठोरता की संवेदनात्मक अनुभतियों से संबंधित बिक स्वयंभू के काव्य में पाये जाते हैं । 4. प्रास्वाद्य बिब स्वयंभू ने प्रास्वाद्य बिंब अधिक नहीं दिये हैं । ये प्रायः वचनों की तिक्तता, क्षार या मधुरता के व्यंजक बनकर आये हैं । कहीं पर स्वच्छ सफेद नमक रखा था जो खल और दुष्ट मनुष्यों के वचनों की तरह अत्यन्त खारा था । कत्थइ लवण रिणम्मल तारई। खल-दुज्जण-वयण िव सु-खारइँ ॥ 45.12.11 लंकासुंदरी के मुखरूपी कुहर से कड़वी बातें निकलने लगीं। मुह-कुहर-विणिग्गय-कडुन वाय । 48.8.7 भोजन की मधुरता के बारे में कवि कहता है कि जो भी उसे खाता वह जिनवर वे वचनों की भांति मधुरतम मालूम होता था। जहिं जें लइज्जइ तहिं जें ताहि गुलियारउ जिणवर-वयण जिह । 50.11.14 वज्रकर्ण भोजन लेकर राम के पास पहुंचता है । वह ईख-वन की तरह मधुर रस से भरा था, उद्यान की तरह अत्यंत सुगंधित ।। बहुविह-खण्ड-पयारे हिँ वड्ढिउ । उच्छु -वणं पिव मुह रसियड्ढिउ । उज्जारणं पिव सुट्ट सुप्रंधउ । “...." 25.11.4-5 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 5. घ्राणबिंब • गंध से संबंधित इने-गिने बिंब ही स्वयंभू के काव्य में मिलते हैं। शरद् ऋतु में पारिजाता कुसुमों के पराग से मिश्रित सुगंधित पवन का झोंका आया। उस सुगंधित पवन से भ्रमर की तरह आकृष्ट होकर कुमार लक्ष्मण दौड़े। वणे ताम सुअंधु वाउ अइउ । जो पारियाय-कुसुमभहिउ ।। कड्ढिए भमरु जिह तें वाएँ सुठ्ठ सुअन्धे । धाइउ महुमहणु " ............ 36.2.8-9 नलकूबर की वधू उपरंभा, रावण का परोक्ष में यश सुनकर उसी प्रकार आसक्त हो उठती है जिस प्रकार मधुकरी कुसुमगंध से वशीभूत होकर । अणुरक्त परोक्खए जे जसे ण । जिह महुअरि कुसुम-गंध-वसेण ।। 15.11.6 स्वयंभू की दृश्य एवं श्रवण संवेदना अत्यंत तीव्र है। स्पर्श संवेदना में भी सूक्ष्मता है, किंतु रस एवं ब्राण संवेदना सामान्य है । प्रकृतिपरक बिंबों को पाठ वर्गों में बांटा जा सकता है । 1. जलीय बिंब ये बिंब समुद्र, नदी, सरोवर, जलीय पुष्प कमल, जल-तरंग आदि से संबंधित हैं । जलीय बिंबों में स्वयंभू ने सागर संबंधी बिंबों का सर्वाधिक प्रयोग किया है। संसाररूपी समुद्र की चर्चा स्वयंभू ने बार-बार की है । सेना का वर्णन करते समय कवि समुद्र-बिंब का उपयोग करता है। राम और लक्ष्मण सेना के साथ ऐसे चल पड़े मानो जलचरों से भरा हुआ महासमुद्र ही उछल पड़ा हो । शत्रु को क्षुब्ध करनेवाली अानंद की भेरी बज उठी, मानो समुद्र ही अपनी तरंग-ध्वनि से गरज पड़ा हो। णा महा समुद्दु, जलयर-रउद्, उत्थल्लिउ ।। दिण्णाणंद - भेरि पडिवक्ख खेरि, खर-वज्जिय ॥ णं मयरहर वेल, कल्लोलवोलं, गलगज्जिय ॥ 40.16.2-3 लक्ष्मण ने सामने शत्रु-सेनारूपी भयंकर समुद्र को उछलते हुए देखा । सेना का प्रावर्त ही उसका गरजना था, हथियाररूपी जल और तुषार-कण छोड़ता हमा, ऊँचे ऊँचे अश्वों की लहरों से प्राकुल, मदमाते हाथियों के झुंडरूपी तटों से व्याप्त, ऊपर उठे हुए सफेद छत्रों के फेन से उज्ज्वल और ध्वजारूपी तरंगों से चंचल और जलचरों से सहित था। ............"पलय-समुद्दु णाई उत्थल्लिउ ॥ सेणावत्त नितु गज्जंतउ । पहरण-तोय-तुसार-मुअंतउ ॥ तंग-तुरंग-तरंग समाउलु । मत्त-महागय - घड वेलाउलु ।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 अपभ्रंश भारती - उभिय-धवल-छत्त-फेणुज्जलु। घय कल्लोल-चलंत महावलु ॥ रिउ-समुदु जं दिट्ट भयंकरु......." 25.16.2-5 चिंता, व्याकुलता तथा उत्साह की अभिव्यक्ति में कवि ने सागर का बिंब प्रस्तुत किया है। जैसे चिता-सायरें पडियऍण जं मारुइ लधु तरण्डउ ।। 45.13.10 खोहिउ सायरो व लंका-रगयरी जाया समाउला। 51.12.1 जलहि व उत्थल्ल । 51.11.9 वेल. समुदहों जिह उत्यल्लिय । 49.20.5 महि लंघेप्पिणु मयरहरु प्रायासहों णं उत्थल्लियउ । 11.8.9 कैकेयी-स्वयंवर का वर्णन करते हए कवि जलीय-बिंब का उपयोग करता है । जिस प्रकार समुद्र की महाश्री के सम्मुख नदियों के नाना प्रवाह पाते हैं उसी प्रकार उसके स्वयंवर में अनेक राजा पाए। पाइँ समुद-महासिरिहे थिय जलवाहिरिण-पवाह समुह । 21.2.10 दशरथ के चार पुत्र भूमंडल के लिए चार महासमुद्र थे पाइँ महा-समुद्व महि - भायहों। 21.5.1 भरत को राम वनगमन का समाचार मिलता है तो वे तुरंत मूछित हो जाते हैं । सब लोग ऐसे कातर हो उठते हैं मानो प्रलय की आग से संतप्त होकर समुद्र ही गरज उठा हो पलयाणल-संतुत्तु रसेवि लग्गु ण सायरु । 24.6.9 समुद्र-संबंधी असंख्य बिंबों का स्वयंभू ने अपने काव्य में उपयोग किया है । समुद्र के साथ ही नदी-संबंधी बिब भी हैं। नदियों का सागर की ओर उमड़कर पाना भी बिंबविधायक है। वलय (पावर्त और चूड़ी) से अंकित, गोदावरी नदी मानो धरतीरूपी नव-वधु की कुलपुत्री हो जो अपने प्रिय समुद्र के आगे मुक्ताहार लिये अपना दायां हाथ पसार रही थी। फेणावलि - बंकिय वलयालंकिय णं महि - कुलवहरणमहे तरिणय । जलणिहि - भत्तारहों मोत्तिय-हारहों वाह पसारिय वाहिरिणय ॥ 31.3.8 स्वयंभू ने गंगा, गोदावरी और नर्मदा नदी के बिंब प्रस्तुत किये हैं। जीवन की नश्वरता, लक्ष्मी (संपत्ति) की चंचलता, यौवन की अस्थिरता को व्यंजित करने के लिए भी जलीय बिंब प्रयुक्त हुए हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती जल-बिन्दु जेम जीविउ प्र-थिरु ।। संपत्ति समुद्ध-तरंग णिह । सिय चंचल जव गिरि-इ-पवाद- सरिसु । विज्जुल - लेह जिह ॥ ..... 54.5.5-7 जलीय पुष्प कमल का अधिकांश प्रयोग उपमान और रूपक के रूप में ही हुआ है । लक्ष्मण ने खर का सिर-कमल तोड़कर फेंक दिया । कोपाग्नि उसकी मृणाल थी । युद्ध से कटकटाते उसके दांत पराग थे और अधर पत्ते । कोवारणल - खालउ कटि-कण्टालउ दसण-सकेसरु प्रहर-दलु । महमहण-संरग्र्गे प्रसि णहरग्गे खुण्टे वि घत्तिउ सिर कमलु ।। 40.9.11 रावण के अंतःपुर के वर्णन में भ्रमर-कमल के बिंब का प्रयोग हुआ है णं स भमरु माणस सरवरे कमलिणि-वणु पप्फुल्लियउ । 49.11.10 अठारह हजार युवतियाँ आकर सीतादेवी से इस तरह मिलीं मानो सौंदर्य के सरोवर में कमल ही खिल गये हों । णं सरवरें सियहे सिपाइँ सयवत्तइँ पप्फुल्लियइँ । 49.12.8 स्वयंभू के जलीय बिंब प्रभाव - साम्य तथा गुण - साम्य पर आधारित हैं । ये बिंबवि की निरीक्षण क्षमता एवं बिंब निर्माण सामर्थ्य के प्रमाण हैं । 2. आकाशीय बिंब 83 स्वयंभू के काव्य में आकाशीय बिंबों का अत्यधिक प्रयोग हुआ है । इसके अंतर्गत सूर्य और चंद्र संबंधी बिंब अधिक हैं । इनके अतिरिक्त राहु, मंगल और शनि के बिंब भी पाये जाते हैं । घन, बिजली और नक्षत्रों से भी कवि ने बिब-निर्माण किया है । विमान में बैठा हुआ हनुमान ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश में रथसहित सूर्य ही जा रहा हो, उसका विमान मणि-किरणों की कांति से चमक रहा था, वह निशा-चंद्र के समान चंद्रकांत मणियों से जड़ा हुआ था । मणि मऊह सच्छाएँ । णिच्चं देव- णिम्मिए । चंद कंति खचिए । रयणी चंदे व रिणम्मिए । 46.1.1 पसरइ सुकइहें कव्वु जिह पसरह मेह-विंदु गयरांगणें राम और लक्ष्मण सीतादेवी के साथ वटवृक्ष के नीचे बैठे हैं । तब भी सुकवि के काव्य की तरह आकाश में मेघजाल फैलने लगा जैसे चंद्रमा की चांदनी फैलती है, जैसे सूर्य की किरणें फैलती हैं, वैसे ही आकाश में मेघजाल फैलने लगा । ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो पावस राजा यश की कामना से मेघ महागज पर बैठकर, इंद्रधनुष हाथ में लेकर ग्रीष्म नराधिप पर चढ़ाई करने के लिए सन्नद्ध हो रहा हो । मेह-जालु गयणांगणे तावेहिँ । 0000........** Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 अपभ्रंश भारती पसरह जेम जोह मयवाहहो । .. .. . . ."पसरइ जेम रासि गहे सूरहों। अमर - महाधणु - गहिय - कर मेह - गइंदें चडेवि जस - लुद्धउ ॥ उप्परि - गिम्भ - रणराहिवहाँ पाउस - राउ णाई सण्णद्धउ ॥ 28.1 बार-बार बढ़ती हुई भयंकर चंद्रनखा ऐसी लगती थी मानो बादलरूपी दही को मथ रही हो, या तारारूपी सैकड़ों बुबुद बिखर गये हों, या शशिरूपी नवनीत का पिंड लेकर ग्रहरूपी बच्चे का पीछा लगाने के लिए दौड़ पड़ी हो । मानो वह आकाशरूपी शिला को उठा रही थी या राम और लक्ष्मण रूपी मोतियों के लिए धरती और प्रासमानरूपी सीपी को एक क्षण में तोड़ना चाहती थी। णं घुसलइ अन्भ चिरिड्डिहिल्लु । तारा-वुन्वुव-सय विड्डिरिल्लु । ससि-लोणिय-पिण्डउ लेवि धाइ । गह-डिम्भहों पोहउ देइ गाइँ॥ ............"णं गहयल-सिल गेहइ सिरेण ॥ णं हरिबल-मोत्तिय-कारणेण । महि-गयण-सिप्पि फोडइ खरणेण ।। 37.1.4-7 हनुमान सीता से कहता है-"तुम्हारे वियोग में राम क्षयकाल के इंदु की तरह ह्रासोन्मुख हो रहे हैं । वे दसमी के इंदु की तरह अत्यंत दुर्बल और अशक्त शरीर हैं।" इंदु व चवण-काले ल्हसिउ दसमिहें प्रागमणे जेम जलहि । खाम-खामु परिझोण-तणु तिह तुम्ह विप्रोए दासरहि ॥ 50.1.10 स्वयंभू के आकाशीय बिंबों में उपादानों की विविधता ही नहीं, प्रयोग की बहुलता भी है। 3. पार्थिव बिंब आकाशीय तथा जलीय बिबों की भांति पार्थिव बिब प्रस्तुत करने में भी स्वयंभू सफल हुए हैं । पार्थिव बिंबों के अंतर्गत उन्होंने विशेष रूप से पर्वतों, वनों, वृक्षों, पुष्पों और फलों के बिंब प्रस्तुत किये हैं। त्रिकूट नामक पहाड़ ऐसा दीख पड़ता है मानो सूर्यरूपी बालक के लिए धरतीरूपी कुलवधू अपना स्तन दे रही हो। गिरि दिलृ तिकूडु जण · मरण - णयण - सुहावणउ । रवि डिम्भहों दिण्णु णं महि · कुलवहुअएं थणउ ।। 42.8.9 नाना प्रकार की वृक्षमालाएं कवि को ऐसी लगती हैं मानो धरारूपी वधू की रोमराजी हो। कत्थ वि णाणाविह-रुक्ख-राइ । णं महिकुलबहुअहे रोम-राइ ॥ 36.1.8 दरबाररूपी वन शत्रुरूपी वृक्षों से सघन, सिंहासनरूपी पहाड़ों से मण्डित और प्रौढ़ विलासिनीरूपी लताओं से प्रचुर, अनन्तवीर्यरूपी बेलफल से युक्त, और अतिवीररूपी सिंहों से युक्त था। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती पठ रित्थाण-बणे रिउ रुक्ख-घणे सिंहासन- गिरिवर मण्डिऍ ॥ पोढ - विलासिरि-लय-वहले वर-वेल्लहले इ-वीर-सोह - परिचडि डऍ ।। 30.5.8 इंद्रजीत अपनी पत्नी से कहता है कि वह राघव के सैनिक वन में प्रलय की आग बनेगा । उस वन में मनुष्यों के पेड़ होंगे जो भुजदंडों की शाखाएँ धारण करते हैं, जो हथेलियों और उंगलियों के कुसुमों से पूरित हैं, सुंदर स्त्रियों की लतानों और बिल्वफलों से युक्त हैं । छत्र और ध्वजाएं जिसमें रूखे पेड़ हैं, अश्व और गज तरह-तरह के वनचर हैं और जिसमें शत्रुनों के प्राणरूपी पंछी उड़ रहे हैं, त्रस्त अश्वरूपी हरिण जिसमें हैं और जो राम एवं लक्ष्मण रूपी शिखरों से युक्त हैं । "दुद्धर-रण रवर-तरुवर - पियरे ॥ भुवखंड- चंड-जालोलि धरे । करयल पल्लव णह - कुसुम भरें ॥ मणहर- कामिरिण - लय- वेल्लहले । छत्त-द्वय- सुक्क-रुक्ख बहले ।। हय-गय-वरणयर-रगाणा विहऍ । रिउ पारण-सुमुड्डाविय-विहऍ ॥ उत्तट्ठ- तुरंगम - हरिण हरे । हरि हलहर - वर-पव्वय सिहरें ।। 85 - 62.11.4-8 अधिकता, विशालता एवं दृढ़ता व्यंजित करने के लिए कवि ने बार-बार पहाड़ का बिंब खड़ा किया है । 4. वायव्य बिब वायु के बिंब भी स्वयंभू के काव्य में मिलते हैं । ग्रीष्म का अंत कवि को कैसा लगता है, देखिए - हवा में हिलते डुलते लाल कोंपलवाले वृक्ष मानो इस बात की घोषणा कर रहे थे कि ग्रीष्म राजा का वध किसने कर दिया । रत्तपत्त तरु पवणाकंपिय । 'केण वि वहिउ गिम्भु' गं जंपिय । 28.3.8 राम के भीषण चाप- शब्द को सुनकर विद्या उसी तरह थर-थर कांप उठी जैसे हवा से केले का पत्ता । तं भीसणु चावस-सुणेवि केलि व वाएं थरहरिय | 43.17.9 राजा महेंद्र के लकुटिदंड के प्रहार से हनुमान उसी प्रकार गिर पड़ा जिस प्रकार दुर्वात से वृक्ष गिर पड़ता है । तेण लउडि- दण्डाहिधाएँणं । तरुवरो व्व पाडिउ बुवाऍणं ।। 46.8.2 विपरीत हवा में उड़ता हुआ ध्वज-समूह दूर से ऐसा शोभित हो रहा था मानो राम और लक्ष्मण के आने पर रावण का मन ही डगमगा रहा हो । धय-विहु पवण - पडिकूलउ दूरत्थेहिं विहावियउ । लक्खर - रामायणे रेंग रामरण- मणु डोल्लावियउ ।। 56.14.9 उपर्युक्त बिंबों द्वारा कवि ने सुंदर चित्र प्रस्तुत किये हैं । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 अपभ्रंश भारती 5. तैजस बिब तैजस अथवा अग्निसंबंधी बिंबों का प्रयोग स्वयंभू ने अधिक नहीं किया है । क्रोध के भाव की अभिव्यक्ति में कवि ने अग्नि के बिंब का प्रयोग किया है । शत्रु-सेना की बातें सुनकर लक्ष्मण प्रदीप्त हो उठता है, मानो घी पड़ने से प्राग भड़क उठी हो। ___ तं वयण सुरणेप्पिण हरि पलित्तु । उद्धाइउ सिहि रणं घिएण सित्त ॥ 29.9.2 हनुमान द्वारा उद्यान के उजाड़ देने की बात सुनकर रावण क्रोधित होता है मानो किसी ने आग में घी डाल दिया हो । तं रिणसुणेप्पिण दहवयणु कुविउ दवग्गि व सित्तु घिएण। 51.9.10 वीरों के युद्धोत्साह की अभिव्यंजना में कवि स्वयंभू ने बार-बार प्रलयाग्नि का बिंब खड़ा किया है। 6. ऋतु एवं काल संबंधी बिब ऋतुओं में प्राय: सभी ऋतुओं के बिंब स्वयंभू ने प्रस्तुत किये हैं। फाल्गुन का महीना बीत चुका था और वसंत राजा कोयल के कलकल मंगल के साथ आनंदपूर्वक प्रवेश कर रहे थे । भ्रमररूपी बंदीजन मंगलपाठ पढ़ रहे थे और मोररूपी कुब्ज वामन नाच रहे थे । इस तरह अनेक प्रकार के हिलते-डुलते तोरण-द्वारों के साथ वसंत राजा आ पहुंचा । कहीं आम के पेड़ों में नये किसलय फल-फूलों से लद रहे थे । कहीं कांतिरहित । पहाड़ों के शिखर काले रंगवाले दुष्ट मुखों की तरह दिखाई दे रहे थे । कहीं वैशाख माह की गर्मी से सूखी हुई धरती ऐसी जान पड़ती थी मानो प्रिय-वियोग से पीड़ित कामिनी हो । .............................'फग्गुण-मासु पवोलिउ तावे हिं॥ पइठु वसंतु-राउ पारणंदें । कोइलु - कलयल - मंगल-सदें ॥ अलि-मिहुणे हि वंविणे हि पढ़तेहिं । वरहिण-वावणे हि पच्चंतेहिं ।। अंदोला - सय - तोरण - वारहिं । ढुक्कु वसंतु अणेय-पयारे हि ॥ कत्थइ चूम - वरण पल्लवियइँ । णव-किसलय-फल-फुल्लन्भहियइँ॥ कत्थइ गिरि सिरहइँ विच्छायई । खल मुहई व मसि-वण्णइं गायई ॥ कत्थइ माहव मासहों मेइरिण । पिय-विरहेण व सूसइ कामिरिण ॥ 26.5.1-7 पावस और ग्रीष्म का यह बिंब देखिए जब पावस राजा ने गर्जना की तो ग्रीष्म राजा ने धूलि का वेग छोड़ा, वह जाकर मेघ-समूह से चिपट गया । परन्तु पावस राजा ने बिजली की तलवारों के प्रहार से उसे भगा दिया। जब वह धूलिवेग (बवंडर) उलटे मुंह लौट आया तो ग्रीष्म-वेग पुनः उठा । धगधगाता और हस-हस करता हुआ वह वहाँ पहुंचकर जल-जल कर प्रदीप्त हो उठा । उससे चिनगारियाँ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती छूटने लगीं । उसने धूमावलि के ध्वजदंड उखाड़कर तूफान की तलवार से झड़झड़ कर प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया । तरुवररूपी शत्रु- समूह भग्न होने लगे । मेघघटा विघटित हो उठी । इस प्रकार ग्रीष्म राजा पावस राजा से भिड़ गया। तब पावस ने बिजली की टंकार करके इन्द्रधनुष पर डोरी चढ़ा ली । जलधर की गजघटा को प्रेरित किया और बूंदों के तीरों की बौछार शुरू कर दी । 87 जं पाउस रदु गलगज्जिउ । धूली-रउ गिम्भेण विसज्जिउ || गणुि मेह - विदे श्रालग्गउ । तडि करवाल - पहारे हि भग्गउ ।। जं विवरम्मुहु-चलिउ विसालउ । उट्ठउ 'हणु' भरणंतु उण्हालउ || धगधग - धगधगंतु उद्घाइउ । हस हस हस हसंतु संपाइ ॥ जलजलजलजलजल पचलंतउ । जावावलि फुलिंग मेल्लंतउ ॥ धूमावलि - घयदंडुन्भेष्पिणु । वर- वाउल्लि - खग्गु कड्ढेपिणु || झडझड झडझडंतु पहरंतउ । तरुवर - रिउ भड थड भज्जंतउ ॥ मेह - महागय घड विहडंतउ । जं उण्हालउ विठु भिड़ंतउ ॥ धणु अप्फा लिउ पाउसेण तडि - टंकार-फार दरिसंतें I चोऍवि जलहर - हत्थि हड गीर-सरासरिग मुक्क तुरंतें ॥ 28.2 ऋतुसंबंधी ऐसे अनेक सुंदर बिंब स्वयंभू ने अपने काव्य में दिये हैं । प्रातःकाल, संध्या तथा रात्रि के मनोहर बिंब भी स्वयंभू के काव्य में पाये जाते हैं । सूर्यास्त होने पर आरक्त संध्या कवि को ऐसी दिखाई पड़ती है मानो सिंदूर से अलंकृत गजघटा हो या वीर के रक्त-मांस से लिपटी हुई निशाचरी आनंद से नाच रही हो । संध्या बीत गई और रात प्रायी मानो उसने सोते हुए महान् विश्व को लील लिया हो । कहीं पर सैकड़ों जलते हुए दीपक शेषनाग के फणमणियों की तरह चमक रहे थे । जाइ संभ प्रारत पदसिय । गं गय- घड सिंदूर - विहूसिय ॥ सूर- मंस रुहिरालि - चच्चिय । गिसियरि व्व श्राणंदु परणच्चिय ॥ गलिय संझ पुणु रयरिग पराइय । जगु गिलेइ णं सुत्त महाइय ॥ कहि मि दिव्व दीवय-सय वोहिय । फणि-मणिव्व पजलंत सु-सोहिय ॥ 23.9 2-5 प्रातःकाल का यह बिंब देखिए चारों ओर सुंदर सवेरा फैल गया निगल लिया था उसने अब उसे उगल दिया । पिसि - णिसिरिए श्रासि जं गिलियउ । णाई पडीवउ जउ उग्गिलियउ | 1 रातरूपी निशाचरी ने जिस सूरज को पहले 23.12.6 रात को कवि ने निशाचरी के रूप में चित्रित किया है । निशारूपी निशाचरी चारों ओर दौड़ पड़ी । धरती-प्राकाश सब कुछ उसने लील लिया । ग्रह, नक्षत्र उसके लंबे Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रपभ्रंश भारती नुकीले दाँत थे, समुद्र जीभ, पर्वत भयंकर दाढ़, मेघ नेत्र और चंद्रमा उस निशा निशाचरी का तिलक था । 88 स- णिसियर वस दिसह पधाइय । महि गयणोट्ठ डसेवि संपाइय ॥ गह-णक्खत्त-दंत उदंतुर उवहि-जीह- गिरि दाढ़ा भासुर 11 घर - लोयर ससि तिलय - विहूसिय । 1 7. मानवेतर - प्रारणी-बिंब प्राकृतिक बिंबों के अतिरिक्त स्वयंभू ने अनेक मानवेतर प्राणियों के भी बिंब-योजना की है । उन्होंने पशु-पक्षियों के सुदंर चित्र सर्वाधिक बिब हाथी और सिंह के हैं । कहीं हाथी और सिंह के रूप । दो वीरों के संघर्ष में प्रायः हाथी और सिंह का युग्मबिंब प्रस्तुत किया गया है । । 26.19.3-5 । गुलुगुलंतु हलहेइ महग्गउ सेय- पवाह- गलिय गण्डत्थलु पिच्छावलि प्रलिउल-परिमालिउ । वित्थिय वाण विसाण भयंकरु । गरजता हुश्रा रामरूपी महागज, उस विशाल वृक्ष की गिरि-कंदरा से निकल आया । दो तूणीर ही उसका विपुल कुंभस्थल था । पुंखावलीरूपी भ्रमरमाला से वह व्याप्त हो रहा था । करधनी की घंटियों से झंकृत हो रहा था । विशाल वाणों रूपी दाँतों से वह भयंकर था । स्थूल और लंबे बाहु ही उसकी विशाल सूंड थी । प्रस्तुत किये हैं। युग्मरूप हैं तो कहीं स्वतंत्र तरुवर- गिरि-कंदरहीँ विणिग्गउ कुंभत्थलु तोरणा - जुयल - विउल foकिणि गेज्जा - मालोमालिउ थोर पलम्व वाहु-लम्विय करु आधार पर पशुओंों में 11 11 भो सुरकरि-कर-संकास भुश्र वेढिज्जइ जीउ मोह मऍहि । पंचाणणु जेम मत्त गएँहि ॥ 11 11 26.13.1-4 चंद्रनखा की दशा देखकर खर उसी तरह भड़क उठता है जिस तरह गज की गंध पाकर सिंह भड़क उठता है । केसरि मयगल-गंध-लुद्धु ।। 37.7.7 हनुमान रावण से कहता है- "अरे, ऐरावत की सूंड की तरह प्रचंड बाहु. यह जीव, मोह मद से वैसे ही घेर लिया जाता है जैसे मत्त गज सिंह को घेर लेता है । 54.12.2-3 सिंह और मृग का बिंब भी स्वयंभू के लिए प्रिय है जिसका प्रयोग वे बार-बार करते हैं । खर-दूषण राम और लक्ष्मण से उसी प्रकार भिड़े जिस प्रकार हरिणों का झुंड सिंह से भिड़ता है । भिडिय राम-लक्खणाहँ । जिह कुरंग वारणाहँ ।। 45.9.10 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती हनुमान विनयपूर्वक श्रीराम से कहता है कि उसकी गिनती सुग्रीव जैसे सुभटों में वैसी ही है जैसी सिंहों के बीच में कुरंग की । तहि हउ कवणु गहणु किर केहउ । सीहहुं मज्भे कुरंगमु जेहउ ॥ 45.14.7 89 चंद्रनखा लक्ष्मण की तलवार सूर्यहास को देखकर वैसे ही एकदम त्रस्त हो उठी मानो व्याध के तीरों से ग्राहत कुरंगी हो । लक्खण-खग्गु णिएवि परगट्ठी । हरिरिण व वाह-सिलीमुह-तट्ठी ॥ 50.3.8 कहीं-कहीं बंदर, बैल, सूअर, कुत्ता प्रादि प्रारिण-बिंब भी स्वयंभू के काव्य में मिलते हैं । पक्षियों में विशेष रूप से मयूर का बिब स्वयंभू द्वारा प्रयुक्त हुआ है । हनुमान के प्रानंदघोष को सुनकर सेना में श्रानंद छा गया, मानो मेघ के गरजने पर मयूर संतुष्ट हो उठा हो । गज्जऍ गं परितुट्ठ सिहि । 45.11.7 पशु-पक्षियों के अतिरिक्त जंतुनों के बिंब भी स्वयंभू ने व्यवहृत किये हैं जिनमें सर्वाधिक प्रयोग सर्प का हुआ है । रात में जलते हुए दीपक शेषनाग के फण मणियों की तरह चमक रहे थे । कहि मि दिव्व दीवय-सय वोहिय । फरिण मरिणश्व पजलंत-सु-सोहिय । 23.9.5 नलकूबर का कुमार अपना कवच उसी प्रकार उतार देता है जिस प्रकार सांप अपनी केंचुली को । ras कंचु मुक्कु भुनंगे । 26.17.8 चंद्रनखा की लंबी केशराशि कटिभाग तक ऐसी फैली थी मानो सर्पसमूह चंदनलता से लिपट गये हों । रणं चंदरण - लयहें भुनंग लग्ग । 37.3.2 सर्प -बिंब का प्रयोग कवि ने बार-बार किया है । उपर्युक्त बिंबों के अतिरिक्त स्वयंभू ने कुछ ऐसे बिंबों का उपयोग किया है जो उनके अनुभवों की व्यापकता एवं प्रतिभा की बहुमुखी ग्रहणशीलता का परिचय देते हैं । विस्तार से बोध के लिए स्वयंभू बार-बार सुकवि के काव्य का बिब प्रस्तुत करते है । तहि पट्टणे बहु-उवमहँ भरियएँ णं जगे सुकइ-कब्वे वित्थरियए । 47.1.12 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 अपभ्रंश भारती सुकवि की रसवर्धित कथा की भांति वे तीनों कन्याएं दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगीं। तिण्णि वि कण्णउ परिवढिढयउ । णं सुक्कइ-कहउ रस-वढियउ । 47.2.4 सीता के लिए संदेश भेजते हुए राम कहते हैं तुम्हारे वियोग में उसी तरह क्षीण हो गया हूं जिस तरह चुगलखोरों की बातों से सज्जन पुरुष, .............मनुष्यों से वजित सुपंथ क्षीण हो जाता है । ......................."झोरण सु-पुरिसु व पिसुणालावे ॥ ......... झोणु सुपंथ व जण-परिचत्तउ । ......" 45.15 आग उसी प्रकार भड़क उठी जिस प्रकार दुष्टजनों के वचन । निर्धन के शरीर में जैसे क्लेश फैलने लगता है, वैसे ही आग फैलने लगी । धगधगमाणु....................."गाइ खल-जण-बउ ॥ ......"पाइँ किलेसु णिहीरण-सरीरहो ॥ 47.5,6 निशाचरी के तीर, गदा,प्रशनि, शिला सभी उसी प्रकार असफल हुए जिस प्रकार कृषक के घर से याचक असफल लौट जाते हैं । तं सयलु वि जाइ णिरत्थु किह घरे किविणहों तक्कुव-विन्दु जिह। 48.12.9 पारिवारिक क्षेत्र के भी कई बिंब स्वयंभू के काव्य में पाये जाते हैं । सीता राम से कहती है- "तुम शीघ्र नहीं लौटोगे, क्या पता कहीं तुम युद्धरूपी ससुराल में चमक-दमकवाली कीर्ति-वधु से विवाह न कर लो।" मइ मेल्ले वि भासुरएँ रण-सासुरए मा कित्ति-बहुभ परिणेसहि ।। 30.3.9 प्राध्यात्मिक क्षेत्र के बिंब के भी कई उदाहरण दिये जा सकते हैं । कवि की कल्पना है कि यतियों को देखकर मानो वृक्ष श्रावकों की भांति नत हो गये । भयभीत-हरिन इस प्रकार खड़े थे मानो संसार से भीत संन्यासी ही हों । नारी संबंधी बिब के उदाहरण रचना और प्राकार-प्रकार में वह नगरी नारी की तरह प्रतीत होती थी । लंबे-लंबे पथ उसके पैर थे । फूलों के ही उसके वस्त्र और अलंकार थे। खाई की तरंगित त्रिवली से विभूषित थी। उसके गोपुर स्तनों के अग्रभाग की तरह जान पड़ते थे, विशाल उद्यानों के रोमों से पुलकित और सैकड़ों वीरवधूटियों के केशर से अचिंत थीं । पहाड़ और सरिताएं मानो उस नगरी रूपी नारी की फैली हुई भुजाएं थीं। जल और फेनावलि उसकी चूड़ियाँ और नाभि थीं। सरोवर नेत्र थे, मेघ काजल थे और इंद्रधनुष भौहें । मानो वह नगरीरूपी नव-वधू चंद्रमा का तिलक लगा कर दिनकररूपी दर्पण में मुख देख रही थी। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 91 ..................."णं णारिहें अणुहरिय रिणम्रोएं ॥ दीहर-पंथ-पसारिय चलणी । कुसुम-रिणयत्थ-वस्थ साहरणी ॥ खाइय-तिवलि-तरंग-विहूसिय । गोउर-थरणहर-सिहर-पदीसिय ॥ विउलाराम-रोम-रोमांचिय । इंदगोव-सय कुंकुम-अंचिय ॥ गिरिवर-सरिय-पसारिय-वाही। जल-फेरणावलि-वलय-सणाही ॥ सरवर-रणयरण-घरांजण-प्रंजिय । सुरधणु भउह पदीसिय पंजिय ॥ देउल-वयण-कमलु वरिसेप्पिणु । वर-मयलञ्छरण-तिलउ छुहेप्पिणु ॥ णॉइ णिहालइ दिरणयर-दप्पण । एम विणिम्मउ सयलु वि पट्टण ॥ 28.5. 1-8 पौराणिक बिंबों में समुद्र-मंथन का बिंब स्वयंभू ने बार बार प्रस्तुत किया है । स्वयंभू के काव्य में प्रयुक्त बिंबों का विवेचन करने पर स्पष्ट है कि स्वयंभू का बिबचयन क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। वे विशाल ब्रह्माण्ड के विविध क्षेत्रों से बिंबों का चयन करते है। इनमें एक ओर परम्परागत बिंबों का ग्रहण है, दूसरी ओर स्वानुभूति की झांकी । पउमचरिउ, स्वयंभू, सं.-डॉ. एच. सी. भयाणी, प्र.-भारतीय ज्ञानपीठ, भाग 1 (तृतीय संस्करण 1975) भाग 2 (प्रथम संस्करण 1958) भाग 3 (प्रथम संस्करण 1958) भाग 4 (प्रथम संस्करण 1969) भाग 5 (प्रथम संस्करण 1970) ' Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वास करो जो णरवइ अइ सम्माण करु, सो पत्तिय अत्थ-समत्थ हरु । जो होइ उवायणे वच्छलउ, सो पत्तिय विसहरु केवलउ । जो मित्त प्रकारणें एइ घरु, सो पत्तिय दुठ्ठ कलत्त-हरु । जो पन्थिय लिय-सणेहियउ, सो पत्तिय चोरु प्रणेहियउ । जो गरु अत्थकएँ लल्लि-करु, सो सत्तु णिरुत्तउ जीव-हरु । जा कुलवहु सवहे हि ववहरइ, सा पत्तिय विरुय-सय करइ। भावार्थ-जो राजा प्रति सम्मान दिखाता है, विश्वास करो कि वह धन और शक्ति का हरण करनेवाला होता है । जो अधिक उपहार देने में रुचि दिखाता है, विश्वार करो कि वह विषधर है । जो मित्र अकारण ही घर आता है, विश्वास करो कि वह घर के शान्ति का हरण करनेवाला है। जो राहगीर अधिक प्रेम का दिखावा करता है, विश्वास करो कि वह स्नेहहीन, चोर है । जो हमेशा चापलूसी करता है, वह निश्चय ही प्राणों क हरण करनेवाला शत्रु है । जो कुलवधू शपथों (सौगन्धों) के माध्यम से व्यवहार करती है विश्वास करो वह अनेक विरूपताएं करनेवाली है। पउमचरित 36.12 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश रचना सौरभ -डॉ. कमलचन्द सोगानी उत्थानिका अपभ्रंश एक अति प्राचीन लोक-भाषा है। इसका विपुल साहित्य आज भी वर्तमान है । प्रान्तीय भाषाएं और राष्ट्र-भाषा हिन्दी इसी के विकसित रूप हैं । अतः इस भाषा का सीखना-सिखाना कई दृष्टियों से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसी बात को ध्यान में रखकर 'अपभ्रंश रचना सौरभ' नामक पुस्तक की रचना की गई है । उसका कुछ अंश 'अपभ्रंश भारती' में दिया जा रहा है। इस पुस्तक के पाठों को एक ऐसे क्रम में रखा गया है जिससे पाठक सहज-सुचारु रूप से अपभ्रंश भाषा के व्याकरण को सीख सकेंगे और अपभ्रंश में रचना करने का अभ्यास भी कर सकेंगे। अपभ्रंश में वाक्य-रचना करने से ही अपभ्रंश का व्याकरण सिखाने का प्रयास किया गया है। यहां ध्यान देने योग्य है कि हेमचन्द्राचार्य के अपभ्रंश व्याकरण के सूत्रों का आधार इस प्रस्तुत पुस्तक के पाठों में लिया गया है । अन्य रूप जो अपभ्रंश साहित्य में प्रयुक्त हुए हैं उनको 'अपभ्रंश रचना सौरभ' के दूसरे खण्ड में दिया जायेगा। व्याकरण के जो पक्ष इसमें छूट गये हैं उनको भी दूसरे खण्ड में ही दिया जायेगा। पाठकों के सुझाव मेरे बहुत काम के होंगे। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 अपभ्रंश भारती रगच्च-नाचना जग्ग=जागना पाठ 1 हर=मैं क्रियाएँ हस हँसना, सय सोना, रूस रूसना, लुक्क छिपना, जीव=जीना, वर्तमानकाल हउं हसउं/हसमि/हसामि/हसेमि हर सयउं/सयमि/सयामि/सयेमि णच्च/णच्चमिणच्चामिणच्चेमि रूस/रूसमि/रूसामि/रूसेमि हउँ लुक्कउं/लुक्कमि/लुक्कामि/लुक्केमि जग्गउं/जग्गमि/जग्गामि/जग्गेमि हउँ जीव/जीवमि/जीवामि/जीवेमि =मैं हंसता हूँ/ हँसती हूँ। =मैं सोता हूँ/सोती हूँ। =मैं नाचता हूँ/नाचती हूँ। =मैं रूसता हूँ/रूसती हूँ। =मैं छिपता हूँ/छिपती हूँ। =मैं जागता हूँ/जागती हूँ। =मैं जीता हूँ/जीती हूँ। हउं-मैं, उत्तम पुरुष एकवचन (पुरुषवाचक सर्वनाम)। वर्तमानकाल के उत्तम पुरुष एकवचन में उं और मि प्रत्यय क्रिया में लगते हैं । 'मि' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य 'प्र' का प्रा और ए भी हो जाता है। उपर्युक्त सभी क्रियाएं अकर्मक हैं। अकर्मक क्रिया वह होती है जिसका कोई कर्म नहीं होता और जिसका प्रभाव कर्ता पर ही पड़ता है । 'मैं हँसता हूं' इसमें हँसने का प्रभाव 'मैं' पर ही पड़ता है। इस वाक्य में हंसने की क्रिया का कोई कर्म नहीं है। 4. उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं । इनमें कर्ता हर्ष के अनुसार क्रियाओं के पुरुष मौर वचन हैं । यहां हउं उत्तम पुरुष एकवचन में है तो क्रियाएं भी उत्तम पुरुष एकवचन में हैं। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती णच्च-नाचना पाठ 2 तुहुं तुम क्रियाएँ हस हँसना, सय=सोना, रूस रूसना, लुक्क छिपना, जग्ग=जागना जीव जीना वर्तमानकाल हसहि/हससि हससे/हसेसि =तुम हँसते हो/हंसती हो । सयहि/सयसि/सयसे/सयेसि =तुम सोते हो/सोती हो। गच्चहि/णच्चसि/णच्चसे/णच्चेसि =तुम नाचते हो/नाचती हो। रूसहि/रूससि/रूससे रूसेसि =तुम रूसते हो/रूसती हो। लुक्कहि/लुक्कसि/लुक्कसे/लुक्केसि =तुम छिपते हो/छिपती हो । जग्गहि/जग्गसि/जग्गसे/जग्गेसि =तुम जागते हो/जागती हो । तुहुं जीवहि/जीवसि/जीवसे/जीवेसि =तुम जीते हो/जीती हो। . 60. 1. तुहुं=तुम, मध्यम पुरुष एकवचन (पुरुषवाचक सर्वनाम)। 2. वर्तमानकाल के मध्यम पुरुष एकवचन में 'हि', सि और से प्रत्यय क्रिया में लगते हैं । 'सि' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य 'म' का 'ए' भी हो जाता है। यदि क्रिया के अन्त में 'अ' न हो तो 'से' प्रत्यय नहीं लगता है । (देखें पाठ 4) 3. . उपर्युक्त सभी क्रियाएं अकर्मक हैं। 4. उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं। इनमें कर्ता 'तुहुं' के अनुसार क्रियाओं के पुरुष और वचन हैं। यहां 'तुहुं' मध्यम पुरुष एकवचन में है, तो क्रियाएं भी मध्यम पुरुष एकवचन में हैं। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 अपभ्रंश भारती पाठ 3 सो वह (पुरुष), सा=वह (स्त्री) क्रियाएँ हस-हँसना, सय=सोना, रगच्च-नाचना, लुक्क छिपना, जग्ग=जागना, जीव जीना वर्तमानकाल रूस-रूसना हसह हसेइ हसए हसइ/हसेइ/हसए सयह/सयेइ/सयए सयइ/सयेइ/सयए गच्चइ/णच्चे इ/णच्चए गच्चड/णच्चेइ/णच्चए रूसइ/रूसेइ/रूसए रूसइ/रूसे इ/रूसए लुक्कइ/लुक्के इ/लुक्कए लुक्कइ/लुक्केड/लुक्कए जग्गइ/जग्गेइ/जग्गए नग्गइ/जग्गेइ/जग्गए ___जीवइ/जीवेइ/जीवए जीवइ/जीवेइ/जीवए =वह हँसता है। =वह हंसती है। =वह सोता है। =वह सोती है । =वह नाचता है। =वह नाचती है। =वह रूसता है। =वह रूसती है। =वह छिपता है। वह छिपती है। वह जागता है। =वह जागती है। =वह जीता है। =वह जीती है। 1. सो-वह (पुरुष), सा=वह (स्त्री) अन्य पुरुष एकवचन (पुरुषवाचक सर्वनाम) 2. (क) वर्तमानकाल के अन्य पुरुष एकवचन में 'इ' और 'ए' प्रत्यय क्रिया में लगते है । 'इ' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य 'अ' का 'ए' भी हो जाता है । (ख) 'ए' प्रत्यय अकारान्त क्रियाओं में ही लगता है । आकारान्त, प्रोकारान्त, उकारान्त, आदि क्रियानों में 'ए' प्रत्यय नहीं लगेगा। ठा=ठहरना, हो-होना, हु=होना, मादि क्रियाओं में 'ए' प्रत्यय वर्तमानकाल नहीं लगेगा। (देखें पाठ 4) 3. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अकर्मक हैं। 4, उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती हउं मैं, क्रियाएँ 1. 2. ठा=ठहरना, ह ह ह तुहुं तुहं SEEEEEE सो सा सो सा सो तुहु तुम, सा ठाउं / ठामि हाउ / हामि होउं / होमि ठाहि ठासि हाहि / हासि होहि / होसि ठाइ ठाइ हाइ हाइ होइ होइ हउं = मैं, तुहुं = तुम, सो वह ( पुरुष ) सा = वह (स्त्री) पाठ 4 सो वह ( पुरुष ), व्हा = नहाना, वर्तमानकाल सा= वह (स्त्री) हो = होना = मैं ठहरता हूँ / ठहरती हूँ । = मैं नहाता हूँ / नहाती हूँ I == मैं होता हूँ / होती हूँ | उत्तम पुरुष एकवचन मध्यम पुरुष एकवचन } 3. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अकर्मक हैं । 4. उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं । = तुम ठहरते हो / ठहरती हो । = तुम नहाते हो / नहाती हो । = तुम होते हो / होती हो । - अन्य पुरुष एकवचन = वह ठहरता है | = वह ठहरती है । = वह नहाता है । = वह नहाती है । == वह होता है । = वह होती है । 97 पुरुष वाचक सर्वनाम एकवचन अकारान्त क्रियाओं को छोड़कर प्राकारान्त, प्रोकारान्त प्रादि क्रियाओं के मध्यम पुरुष एकवचन में 'से' प्रत्यय नहीं लगता है, तथा इसी प्रकार अन्य पुरुष एकवचन में 'ए' प्रत्यय नहीं लगता है । ये दोनों प्रत्यय ( से और ए) केवल वर्तमानकाल की अकारान्त क्रियात्रों में ही लगते हैं । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 अम्हे अम्ह क्रियाएँ 1. 2. - हम दोनों / हम सब हस = हँसना, रूस = रूसना, जीव = जीना म्हे म्ह हे म्ह हे श्रम्हई प्रहे प्रम्हई म्हे श्रम्हई हे प्रह अम्हे म्ह हे प्रह पाठ 5 सय = सोना, लुक्क = छिपना, वर्तमानकाल > हमहूं / हसमो / हसमु / हसम - सयहूं / सय मो / सयमु / सयम > गच्चहूं / गच्चमो / णच्चमु / णच्चम > रूस हूं / रूस मो / रूस मु / रूसम -लुक्कहुं / लुक्कमो / लुक्कमु / लुक्कम - जग्गहुं / जग्गमो / जग्गमु / जग्गम - जीवहूं / जीवमो / जीवमु / जीवम = = = = = अपभ्रंश भारती णच्च = नाचना जग्ग= जागना हम दोनों हँसते हैं / हँसती हैं । हम सब हँसते हैं / हँसती हैं । हम दोनों सोते हैं / सोती हैं । हम सब सोते हैं / सोती हैं । हम दोनों नाचते हैं / नाचती हैं । हम सब नाचते हैं / नाचती हैं । हम दोनों रूसते हैं / रूसती हैं । हम सब रूसते हैं / रूसती हैं । हम दोनों छिपते हैं / छिपती हैं । हम सब छिपते हैं / छिपती हैं । हम दोनों जागते हैं/ जागती हैं । हम सब जागते हैं/ जागती हैं । हम दोनों जीते हैं / जीती हैं । हम सब जीते हैं / जीती हैं । - हम दोनों / हम सब, उत्तम पुरुष बहुवचन ( पुरुषवाचक सर्वनाम ) । वर्तमानकाल के उत्तम पुरुष बहुवचन में 'हुं', मो, मु और 'म' प्रत्यय क्रिया में लगते हैं । 'मो' 'मु' और 'म' प्रत्यय लगने पर प्रकारान्त क्रिया के अन्त्य 'म' का 'श्रा' 'इ' प्रोर 'ए' भी हो जाता है । अतः हसामो, हसामु, हसाम / हसिमो, हसिमु, हसिम / हसेमो, हसेमु, हसिम रूप और बनेंगे । इसी प्रकार अन्य प्रकारान्त क्रियाओं के साथ भी समझ लेना चाहिए । 3. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अकर्मक हैं । 4. उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं । यहाँ कर्ता उत्तम पुरुष बहुवचन में है प्रत: क्रिया भी उत्तम पुरुष बहुवचन की ही लगी है । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती पाठ 6 तुम्हे =तुम दोनों/तुम सब तुम्हई क्रियाएँ हस हंसना, रूस=रूसना, जीव-जीना सय=सोना, लुक्क छिपना, गच्च-नाचना, जग्ग=जागना वर्तमानकाल तुम्हे । तुम दोनों हँसते हो/हंसती हो । तुम सब हँसते हो/हँसती हो । तुम्हई । हसहु/हसह/हसित्था तुम्हे ) सयहु/सयह/सयित्था तुम दोनों सोते हो/सोती हो । तुम सब सोते हो/सोती हो। तुम्हई । तुम्हे । तुम्हइं । पच्चहु/णच्चह/णच्चित्था तुम दोनों नाचते हो/नाचती हो। तुम सब नाचते हो/नाचती हो । तुम्हे । रूसहु/रूसह/रूसित्था صر ____ तुम दोनों रूसते हो/रूसती हो। तुम सब रूसते हो/रूसती हो। तुम्हई तुम्हे । लुक्कहु/लुक्कह/लुक्कित्था तुम दोनों छिपते हो/छिपती हो । तुम सब छिपते हो/छिपती हो। तुम्हई तुम्हे जग्गहु/जग्गह/जग्गित्था ___ तुम दोनों जागते हो/जागती हो । तुम सब जागते हो/जागती हो । तुम्हई। तुम्हे । तुम्हइं जीवहु/जीवह/जीवित्था __ तुम दोनों जीते हो/जीती हो । तुम सब जीते हो/जीती हो। 1. तुम्हे ॥ तुम दोनों/तुम सब, मध्यम पुरुष बहुवचन (पुरुषवाचक सर्वनाम) । तुम्हई 2. वर्तमानकाल के मध्यम पुरुष बहुवचन में 'हु', 'ह' और 'इत्था' प्रत्यय क्रिया में लगते हैं । 3.. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अकर्मक हैं। 4. उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तुवाच्य में हैं । यहाँ कर्ता मध्यम पुरुष बहुवचन में है अतः क्रिया भी मध्यम पुरुष बहुवचन की लगी है । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 अपभ्रंश भारती पाठ 7 ते वे दोनों (पुरुष)/वे सब (पुरुष) ता=वे दोनों (स्त्रियाँ)/वे सब (स्त्रियाँ) क्रियाएं हस-हँसना, सय=सोना, रूस-रूसना, लुक्क छिपना, जीव=जीना वर्तमानकाल रगच्च-नाचना जग्ग-जागना हसहि हसन्ति/हसन्ते/हसिरे वे दोनों हँसते हैं। वे सब हंसते हैं। ता हसहि/हसन्ति/हसन्ते/हसिरे वे दोनों हँसती हैं। वे सब हँसती हैं। __ वे दोनों सोते हैं। वे सब सोते हैं। ते सहि/सयन्ति/सयन्ते/सयिरे ता सहि/सयन्ति/सयन्ते/सयिरे __ वे दोनों सोती हैं। वे सब सोती हैं। ते वे दोनों नाचते हैं। गच्चहि/णच्चन्ति/गच्चन्ते/णच्चिरे = वे सब नाचते हैं। वे ता वे दोनों नाचती हैं। गच्चहिं/गच्चन्ति/णच्चन्ते/णच्चिरे =. वे सब नाचती हैं । ते रूसहि/रूसन्ति/रूसन्ते/रूसिरे _वे दोनों रूसते हैं । वे सब रूसते हैं। _वे दोनों रूसती हैं। वे सब रूसती हैं। रूसहि/रूसन्ति/रूसन्ते रूसिरे वे दोनों छिपते हैं। लुक्कहि/लुक्कन्ति/लुक्कन्ते/लुक्किरे = वे सब छिपते हैं। वे दोनों छिपती हैं। तालुक्कहिं/लुक्कन्ति/लुक्कन्ते/लुक्किरे - वे सब छिपती हैं। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 101 ते जग्गहि जग्गन्ति/जग्गन्ते जग्गिरे वे दोनों जागते हैं। = वे सब जागते हैं। ता वे दोनों जागती हैं। जग्गहि/जग्गन्ति/जग्गन्ते/जग्गिरे = वे सब जागती हैं। ते जीवहि जीवन्ति/जीवन्ते जीविरे वे दोनों जीते हैं। वे सब जीते हैं। ता वे दोनों जीती हैं। जीवहि/जीवन्ति/जीवन्ते/जीविरे = वे सब जीती हैं। 1. ते वे दोनों (पुरुष)/वे सब (पुरुष) । अन्य पुरुष बहुवचन ता=वे दोनों (स्त्रियाँ)/वे सब (स्त्रियाँ) । (पुरुषवाचक सर्वनाम) 2. वर्तमानकाल के अन्य पुरुष बहुवचन में हिं' 'न्ति' 'न्ते' 'इरे' प्रत्यय क्रिया में लगते हैं। 3. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अकर्मक हैं। 4. उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं। यहां कर्ता अन्य पुरुष बहुवचन में हैं अतः क्रिया भी अन्य पुरुष बहुवचन की लगी है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 हे म्ह ( पुरुष ) / वे सब ( पुरुष ) ते = वे दोनों ता = वे दोनों (स्त्रियाँ ) / वे सब ( स्त्रियाँ) क्रियाएं ठा=ठहरना, श्रम्हे म्ह अम्हे म्ह म्ह तुम्हे तुम्ह हम दोनों / तुम्हे हम सब तुम्ह तुम्हे तुम्हई तुम्हे तुम्ह ठाठामो/ठामु / ठाम हो / होमो / होम / होम हा / हामो / हामु / हाम ठाठा /ठाइत्था हा / हा / हाइत्था हो / होह / होइत्था पाठ 8 तुम दोनों तुम सब हा नहाना, वर्तमानकाल ते ठाहि / ठान्तिठन्ति / ठान्ते ठन्ते / ठाइरे → " ता ठाहि / ठान्ति +ठन्ति / ठान्ते ठन्ते / ठाइरे - - = हो = होना हम दोनों ठहरते हैं / ठहरती हैं । हम सब ठहरते हैं / ठहरती हैं । = हम दोनों होते हैं / होती हैं । हम सब होते हैं / होती हैं । हम दोनों नहाते हैं / नहाती हैं । हम सब नहाते हैं / नहाती हैं । = तुम दोनों ठहरते हो / ठहरती हो । तुम सब ठहरते हो / ठहरती हो । वे दोनों ठहरते हैं । सब ठहरते हैं । तेव्हा हि / हान्ति हन्ति / हान्ते हन्ते / हाइरे =: ता हाहि / हान्ति हन्ति / हान्ते हन्ते / व्हाइरे : - अपभ्रंश भारती तुम दोनों नहाते हो / नहाती हो । तुम सब नहाते हो / नहाती हो । तुम दोनों होते हो / होती हो । तुम सब होते हो / होती हो । वे दोनों ठहरती हैं । सब ठहरती हैं । वे दोनों नहाते हैं । वे सब नहाते हैं । वे दोनों नहाती हैं । वे सब नहाती हैं । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 103 ते होहि होन्ति/होन्ते/होइरे वे दोनों होते हैं। वे सब होते हैं। ता. होहिं/होन्ति/होन्ते/होइरे वे दोनों होती हैं। वे सब होती हैं। अम्हे । =हम दोनों/हम सब, उत्तम पुरुष बहुवचन तुम्हई । पुरुषवाचक तुम दोनों/तुम सब, मध्यम पुरुष बहुवचन सर्वनाम बहुवचन ते वे दोनों (पुरुष)/वे सब (पुरुष) । अन्य पुरुष ता=वे दोनों (स्त्रियाँ)/वे सब (स्त्रियाँ) बहुवचन वर्तमानकाल के प्रत्यय (पाठ 1 से 8 तक) एकवचन बहुवचन उत्तम पुरुष उं, मि हुं, मो, मु, म मध्यम पुरुष हि, सि, से हु, ह, इत्था अन्य पुरुष ___ हिं, न्ति, न्ते, इरे 3. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अकर्मक हैं। . 4. उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं । इनमें कर्ता के अनुसार क्रियाओं के पुरुष और ... वचन है। संयुक्ताक्षर के पहिले यदि दीर्घ स्वर हो तो वह ह्रस्व हो जाता हैठान्ति-+ठन्ति, हान्ति-+ण्हन्ति प्रादि । अपभ्रंश में 'मा' 'ई' 'ऊ' दीर्घ स्वर होते हैं तथा 'प्र''इ' 'उ' 'ए' और 'मो' ह्रस्व स्वर माने जाते हैं। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 अपभ्रंश भारती पाठ व माता पाठ 9 हउं=मैं क्रियाएं हस हंसना, रूस रूसना, जीव=जीना सय=सोना, लुक्क छिपना, गच्च=नाचना जग्ग=जागना हसमु/हसेमु सयमु/सयेमु णच्चमु/रणच्चेमु रूसमु/रूसेमु लुक्कमु/लुक्केमु जग्गमु/जग्गेमु जीवमु/जीवेमु विधि एवं प्राज्ञा =मैं हँसूं। =मैं सोवू । =मैं नाचूं । =मैं रूतूं। =मैं छिपूं। =मैं जागू। =मैं जीवू । हउँ जीना 1. हउं=मैं उत्तम पुरुष एकवचन (पुरुषवाचक सर्वनाम) 2. विधि एवं प्राज्ञा के उत्तम पुरुष एकवचन में 'म' प्रत्यय क्रिया में लगता है । 'म' प्रत्यय . लगने पर क्रिया के अन्त्य 'म' का 'ए' भी हो जाता है। 3. जब किसी कार्य के लिए प्रार्थना की जाती है तथा प्राज्ञा एवं उपदेश दिया जाता है तो इन भावों को प्रकट करने के लिए विधि एवं प्राज्ञा के प्रत्यय क्रिया में लगा दिए जाते हैं। 4. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ प्रकर्मक हैं । अकर्मक क्रिया वह होती है जिसका कोई कर्म नहीं होता है और जिसका प्रभाव कर्ता पर ही पड़ता है । 'मैं हँसू' में 'हँसू' का पूरा संबंध 'मैं' से ही है, इसमें 'हँसू' का कोई कर्म नहीं है । उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं। इनमें कर्ता 'हउं' के अनुसार क्रियाओं के पुरुष और वचन हैं। यहां 'हउं' उत्तम पुरुष एकवचन में हैं तो क्रियाएँ भी उत्तम पुरुष एकवचन में हैं। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 105 पाठ 10 णच्च=नाचना, जग्ग-जागना, तुहुं तुम क्रियाएं हस हंसना, सय=सोना, रूस रूसना, लुक्क छिपना, जीव=जीना, विधि एवं प्राज्ञा हसि/हसे/हसु/हस हसहि/हसेहि/हससु/हसेसु सयि/सये/सयु/सय सयहि/सयेहि/सयसु/सयेसु रणच्चि/पच्चे/गच्चुणच्च णच्चहि/णच्चेहि/गच्चसु/णच्चेसु =तुम हँसो। =तुम सोयो। =तुम नाचो। रूसि/रूसे/रूसु/रूस =तुम रूसो। रूसहि/रूसेहि/रूससु/रूसेसु लुक्कि/लुक्के/लुक्कु/लुक्क लुक्कहि/लुक्केहि/लुक्कसु/लुक्केसु =तुम छिपो। जग्गि/जग्गे/जग्गु/जग्ग =तुम जागो। जग्गहि/जग्गेहि/जग्गसु/जग्गेसु जीवि/जीवे/जी/जीव जीवहि/जीवेहि/जीवसु/जीवेसु =तुम जीवो। 1. तुटुं=तुम मध्यम पुरुष एकवचन (पुरुषवाचक सर्वनाम) 2. विधि एवं प्राज्ञा के मध्यम पुरुष एकवचन में 'इ', 'ए', उ, '.', 'हि' और 'सु' प्रत्यय क्रिया में लगते हैं । 'हि' और 'सु' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य 'न' का 'ए' भी हो जाता है। शून्य प्रत्यय प्रकारान्त क्रियानों में ही लगता है। प्राकारान्त, प्रोकारान्त, उकारान्त आदि क्रियानों में एवं आज्ञा में शून्य प्रत्यय नहीं लगेगा। ठा=ठहरना, हो होना, हु=होना आदि क्रियाओं में शून्य प्रत्यय नहीं होता है । 4. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अकर्मक हैं। 5. उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं। इनमें कर्ता 'तुहूं' के अनुसार क्रियानों के पुरुष और वचन हैं । यहां 'तुहुं' मध्यम पुरुष एकवचन में है तो क्रियाएँ भी मध्यम पुरुष एकवचन में हैं। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 अपभ्रंश भारती पाठ 11 सो=वह (पुरुष) सा=वह (स्त्री) क्रियाएं हस हँसना, रूस-रूसना, जीव=जीना सय=सोना, लुक्क=छिपना, णच्च=नाचना, जग्ग=जागना, विधि एवं प्राज्ञा हसउ/हसेउ हसउ/हसेउ सयउ/सयेउ सयउ/सयेउ णच्चउ/णच्चेउ गच्चउ/णच्चेउ रूसउ/रूसेउ रूसउ/रूसे उ लुक्कउ/लुक्केउ लुक्कउ/लुक्केउ जग्गउ/जग्गेउ जग्गउ/जग्गेउ जीवउ/जीवेउ जीवउ/जीवेउ =वह हँसे । =वह हँसे । वह सोए। सोए। =वह नाचे । =वह नाचे । =वह रूमे। =वह रूसे । =वह छिपे । =वह छिपे । =वह जागे । =वह जागे। =वह जीवे । =वह जीवे । 1. सो=वह (पुरुष), सा=वह (स्त्री) अन्य पुरुष एकवचन (पुरुषवाचक सर्वनाम) 2. विधि एवं प्राज्ञा के अन्य पुरुष एकवचन में 'उ' प्रत्यय क्रिया में लगता है। 'उ' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य '' का 'ए' भी हो जाता है । ___ उपर्युक्त सभी क्रियाएं अकर्मक हैं । 4. उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 107 पाठ 12 तुम : सो=वह (पुरुष) सा=वह (स्त्री) हउं=मैं तुहुं क्रियाएं ठा-ठहरना, व्हानहाना, हो होना हउं . ब. विधि एवं प्राज्ञा ठामु ण्हामु होमु ठाइ/ठाए/ठाउ/ठाहि/ठासु हाइ/हाए/हाउ/पहाहि/हासु होड/होए होउ/होहि/होसु ठाउ तुहुं =मैं ठहरू। =मैं नहाऊँ। =मैं होऊँ। =तुम ठहरो। =तुम नहावो। =तुम होवो। =वह ठहरे। =वह ठहरे। = वह नहावे । =वह नहावे । =वह होवे। =वह होवे । ठाउ हाउ सो सा हाउ होउ होउ 1. हमें तुहुं तुम सो=वह (पुरुष) सा=वह (स्त्री) उत्तम पुरुष एकवचन मध्यम पुरुष एकवचन अन्य पुरुष एकवचन अन्य पुरुष एकवचन पुरुषवाचक सर्वनाम एकवचन प्रकारान्त क्रियानों को छोड़कर आकारान्त, प्रोकारान्त मादि क्रियानों के मध्यम पुरुष एकवचन में '०' प्रत्यय नहीं लगता है। 3. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अकर्मक हैं । 4. उपर्यक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 अपभ्रंश भारती पाठ 13 अम्हे । . हम दोनों हम सब अम्हई । क्रियाएं हस हंसना, सय=सोना, रगच्च-नाचना, रूस रूसना, लुक्क छिपना, जग्ग=जागना, जीव=जीना, विधि एवं प्राज्ञा हम दोनों हँसें। हसमो/हसामो/हसेमो प्रम्हई । हम सब हँसें। अम्हे सयमो/सयामो/सयेमो _____हम दोनों सोवें। हम सब सोवें। मम्हे । अम्हे हम दोनों नाचें। णच्चमो/णच्चामो/रणच्चेमो अम्हई । हम सब नाचें। अम्हे । रूसमो/रूसामो/रूसेमो हम दोनों रूसें। अम्हई । हम सब रूसें। अम्हे । लुक्कमो/लुक्कामो/लुक्केमो ____हम दोनों छिपें । हम सब छिपें । अम्हे । जग्गमो/जग्गामो/जग्गेमो ____हम दोनों जागें। प्रम्ह हम सब जागें। पम्हे । । जीवमो/जीवामो/जीवेमो हम दोनों जीवें। अम्हई । हम सब जीवें। =हम दोनों/हम सब उत्तम पुरुष बहुवचन (पुरुषवाचक सर्वनाम) 2. विधि एवं प्राज्ञा के उत्तम पुरुष बहुवचन में 'मो' प्रत्यय क्रिया में लगता है । 'मो' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य 'अ' का 'पा' और 'ए' भी हो जाता है। . 3. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अकर्मक हैं। उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं। इनमें कर्ता अम्हे/अम्हई के अनुसार क्रियाओं के पुरुष और वचन हैं । यहाँ अम्हे अम्हई उत्तम पुरुष बहुवचन में हैं तो क्रियाएँ भी उत्तम पुरुष बहुवचन में हैं। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती तुम्हे तुम्हई क्रियाएं 1. 2. 3. 4. = तुम दोनों / तुम सब स = हँसना, हस रूस = रूसना, जीव = जीना तुम्हे तुम्ह तुम्हे तुम्ह तुम्हे तुम्हइं तुम्हे तुम्ह तुम्हे तुम्ह तुम्ह तुम्हे तुम्हइं तुम्हे तुम्ह हसह / हसे ह सह / सह गच्चह / गच्चेह रूसह / रूसेह लुक्कह/ लुक्के ह जगह / जग्गे ह जीवह / जीवेह पाठ 14 सय = सोना, लुक्क = = छिपना, विधि एवं श्राज्ञा तुम दोनों हँसो । तुम सब हँसो । = तुम दोनों सोवो | तुम सब सोवो | तुम दोनों नाचो । तुम सब नाचो । तुम दोनों रूसो । तुम सब रूसो । तुम दोनों छिपो । तुम सब छिपो । = तुम दोनों जागो । तुम सब जागो । = तुम दोनों जीवो । तुम सब जीवो । 109 रगच्च = नाचना जग्ग= जागना - तुम दोनों / तुम सब मध्यम पुरुष बहुवचन ( पुरुषवाचक सर्वनाम ) विधि एवं प्राज्ञा के मध्यम पुरुष बहुवचन में 'ह' प्रत्यय क्रिया में लगता है । 'ह' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य 'अ' का 'ए' भी हो जाता है । उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अकर्मक हैं । उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं । इनमें कर्ता तुम्हे / तुम्हइं के अनुसार क्रियानों के पुरुष और वचन हैं। यहां कर्ता तुम्हे / तुम्हई मध्यम पुरुष बहुवचन में हैं तो क्रियाएँ भी मध्यम पुरुष बहुवचन में लगी हैं । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 अपभ्रंश भारती पाठ 15 ते वे दोनों (पुरुष)/वे सब (पुरुष) ता=वे दोनों (स्त्रियाँ)/वे सब (स्त्रियाँ) क्रियाएं हस हँसना, सय=सोना, रूस=रूसना, लुक्क छिपना, जीव=जीना विधि एवं प्राज्ञा रगच्च-नाचना जग्ग-जागना हसन्तु/हसेन्तु % 3D वे दोनों हँसें। वे सब हँसें। वे दोनों हँसें। वे सब हँसें। हसन्तु/हसेन्तु सयन्तु/सयेन्तु वे दोनों सोवें। वे सब सोवें। सयन्तु/सयेन्तु वे दोनों सोवें। वे सब सोवें। णच्चन्तु णच्चेन्तु वे दोनों नाचें। वे सब नाचें। णच्चन्तू/णच्चेन्तु वे दोनों नाचें। वे सब नाचें। रूसन्तु/रूसेन्तु वे दोनों रूसें। वे सब रूसें। रूसन्तु/रूसेन्तु वे दोनों रूसें। वे सब रूसें। लुक्कन्तु/लुक्केन्तु वे दोनों छिपें । वे सब छिपें । लुक्कन्तु/लुक्केन्तु वे दोनों छिपें। वे सब छिपें। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 111 जग्गन्तु/जग्गेन्तु वे दोनों जागें। वे सब जागें। ता जग्गन्तु/जग्गेन्तु वे दोनों जागें। वे सब जागें। जीवन्तु/जीवेन्तु वे दोनों जीवें । वे सब जीवें । ___ता जीवन्तु/जीवेन्तु वे दोनों जीवें। वे सब जीवें । 1. ते वे दोनों (पुरुष)/वे सब (पुरुष) अन्य पुरुष बहुवचन ता=वे दोनों (स्त्रियाँ)/वे सब (स्त्रियाँ) (पुरुषवाचक सर्वनाम) 2. विधि एवं प्राज्ञा के अन्य पुरुष बहुवचन में 'न्तु' प्रत्यय क्रिया में लगता है । 'न्तु' प्रत्यय लगने पर क्रिया के अन्त्य 'अ' का 'ए' हो जाता है। 3. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ प्रकर्मक हैं । 4. उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 अपभ्रंश भारती ता= वे सब (स्त्रियाँ) हो-होना पाठ 16 अम्हे । _हम दोनों तुम्हे तुम दोनों अम्हई हम सब ___ तुम्हइं। तुम सब _ वे दोनों (पुरुष)। वे दोनों (स्त्रियाँ) - वे सब (पुरुष) क्रियाएं ठा=ठहरना, व्हा=नहाना, विधि एवं प्राज्ञा अम्हे । ठामो ___हम दोनों ठहरें। प्रम्हई हम सब ठहरें। प्रम्हे । ण्हामो हम दोनों नहावें । अम्हई हम सब नहावें । होमो __हम दोनों होवें। हम सब होवें। तुम्हे । तुम दोनों ठहरो। तुम्हई तुम सब ठहरो। तुम्हे तुम दोनों नहावो। तुम सब नहावो। होह __तुम दोनों होवो। तुम सब होवो। वे दोनों ठहरें। ठान्तु-+ठन्तु वे सब ठहरें। _वे दोनों ठहरें। ठान्तु-+ठन्तु वे सब ठहरें। __ वे दोनों नहावें। ण्हान्तु+हन्तु वे सब नहावें । वे दोनों नहावें । ण्हान्तु+ण्हन्तु वे सब नहावें। __ण्हाह तुम्हई Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 113 ते होन्तु वे दोनों होवें। वे सब होवें। वे दोनों होवें। वे सब होवें । अम्हे । हम दोनों/हम सब, उत्तम पुरुष बहुवचन प्रम्हइं तुम्हे । . तुम दोनों/तुम सब, मध्यम पुरुष बहुवचन पुरुषवाचक सर्वनाम तुम्हई बहुवचन ते वे दोनों (पुरुष)/वे सब (पुरुष) । अन्य पुरुष ता=वे दोनों (स्त्रियाँ)/वे सब (स्त्रियाँ) | बहुवचन | विधि एवं प्राज्ञा के प्रत्यय (पाठ 9 से 16 तक) एकवचन बहुवचन उत्तम पुरुष मध्यम पुरुष इ, ए, उ, 0, हि, सु, अन्य पुरुष 3. उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अकर्मक हैं । 4. उपर्युक्त सभी वाक्य कर्तृवाच्य में हैं। इनमें कर्ता के अनुसार क्रियानों के पुरुष और वचन हैं। 5. . संयुक्ताक्षर के पहिले यदि दीर्घ स्वर हो तो वह ह्रस्व हो जाता है। यहां ठान्ति-+ठन्ति, ण्डान्ति+हन्ति प्रादि। अपभ्रंश में 'मा' 'ई' और 'क' दीर्घ स्वर होते हैं तथा 'म', 'इ', 'उ', 'ए' और 'नो' ह्रस्व स्वर माने जाते हैं। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगी लेखक डॉ. कमलचन्द सोगारणी-बी.एससी., एम.ए., पीएच.डी.। नीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र के विशेषज्ञ । प्राच्य-भाषाविद् । सेवानिवृत्त प्रोफेसर, दर्शन-विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर । अनेक सामाजिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं से सम्बद्ध । अपभ्रंश साहित्य अकादमी के परामर्शदाता। इस अंक में प्रकाशित लेख-1. पउमचरिउ का एक प्रसंग-व्याकरणिक विश्लेषण, 2. अपभ्रंश रचना सौरभ । सम्पर्क सूत्र-एच. 7, चितरंजन मार्ग, सीस्कीम, जयपुर-302 001 । डॉ. कैलाशनाथ टण्डन-एम.ए., पीएच.डी., डी. लिट.। अपभ्रंश भाषा और उसके कवियों पर शोध-कार्य । विभिन्न पत्र-पत्रिकामों में लेख प्रकाशित । प्राचार्य, कालीचरण डिग्री कॉलेज. लखनऊ। इस अंक में प्रकाशित लेख-महाकवि स्वयंभूदेव की भाषा में प्रयुक्त स्वर-ध्वनियों का विवेचन । सम्पर्क सूत्र-कालीचरण डिग्री कॉलेज, हरदो रोड, लखनऊ-3, उत्तर प्रदेश । 3. डॉ. कैलाशचन्द भाटिया-एम.ए., पीएच.डी., डी. लिट. । भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा के विविध पक्षों पर अनुसंधान । अनेक पुस्तकें, लेख पुरस्कार प्राप्त । निदेशक, वृन्दावन शोध संस्थान, वृन्दावन । इस अंक में प्रकाशित लेख-स्वयंभू की भाषा-शब्द सम्पदा । सम्पर्क सूत्र-वृन्दावन शोध संस्थान, रमणरेती, वृन्दावन-281124 । डॉ. छोटेलाल शर्मा-एम.ए., पीएच.डी., डी. लिट्. । सौन्दर्यशास्त्र, भाषाशास्त्र एवं अपभ्रंश भाषा के विशेषज्ञ । भूतपूर्व प्रोफेसर, हिन्दी एवं भाषाविज्ञान, वनस्थली विद्यापीठ । निदेशक, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर । इस अंक में प्रकाशित लेख-स्वयंभू और पक्षविचार । सम्पर्क सूत्र-अपभ्रंश साहित्य अकादमी, भट्टारकजी की नशिया, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-302 004 । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भारती 115 5. डॉ. (श्रीमती) जे. एस. कुसुमगीता-एम.ए., पीएच.डी. । हिन्दी एवं कन्नड भाषा पर तुलनात्मक अध्ययन । बंगाली, मराठी, जर्मन आदि भाषाविद् । अनेक पुस्तकें, शोध-पत्र एवं मनुदित साहित्य प्रकाशित । रीडर, भाषाशास्त्र एवं हिन्दी, मानस गंगोत्री, मैसूर । इस अंक में प्रकाशित लेख-पउमचरिउ में बिंब । सम्पर्क सूत्र-8, पंचवटी, सरस्वतीपुरम्, मैसूर-570009 । डॉ. त्रिलोकीनाथ प्रेमी-एम.ए., डी. फिल.। अनेक शैक्षणिक संस्थानों से सम्बद्ध । अनेक शोधपरक पुस्तकें एवं निबन्ध प्रकाशित । रीडर, हिन्दी विभाग, आगरा, कॉलेज, अागरा । इस अंक में प्रकाशित लेख-प्रपभ्रंश के आदिकवि स्वयंभू । सम्पर्क सूत्र'रामत्रिवेणी कुटीर, 49, बी. मालोकनगर, आगरा-282 010 । प्रीति जैन-एम.ए. । अपभ्रंश साहित्य अकादमी द्वारा संचालित अपभ्रंश सर्टिफिकेट एवं डिप्लोमा प्राप्त । अपभ्रंश माहित्य अकादमी में कार्यरत । इस अंक में प्रकाशित लेख-पउमचरिउ पर आधारित संधि-विधान । सम्पर्क सूत्र-1130, महावीर पार्क रोड, जयपुर-302 003 । डॉ. रामबरन पाठक-एम. ए., पीएच. डी., साहित्यरत्न । अपभ्रंश भाषा में विशेष योग्यता । प्राचार्य एवं विभागाध्यक्ष-हिन्दी विभाग, बद्री-विशाल कॉलेज, फर्रुखाबाद । इस अंक में प्रकाशित लेख-कारक विधान । सम्पर्क सत्र-प्राचार्य, बद्री विशाल कॉलेज, फर्रुखाबाद, उ.प्र.। डॉ. सुषमा शर्मा-बी.एससी., पीएच. डी. । हिन्दी के भाषिक व साहित्यिक रूप पर विशेष कार्य । व्याख्याता, हिन्दी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ। इस अंक में प्रकाशित लेख-पउमचरिउ के काव्यचित्र । सम्पर्क सूत्र-6, गार्गी निवास, वनस्थली, राज. । Page #127 --------------------------------------------------------------------------  Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनविद्या संस्थान के महत्वपूर्ण प्रकाशन 1-5. राजस्थान के जैन-शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची–प्रथम एवं द्वितीय भाग- अप्राप्य तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम भाग सम्पादक---डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल, पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ 350.00 6. जैन ग्रंथ भण्डार्स इन राजस्थान (शोध प्रबन्ध)-डॉ. क. च. कासलीवाल 50.00 7. प्रशस्ति-संग्रह-सम्पादक डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल अप्राप्य 8. राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व - डॉ. क. च. कासलीवाल 20.00 9. महाकवि दौलतराम कासलीवाल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 20.00 10. जैन शोध और समीक्षा-डॉ. प्रेमसागर जैन 20.00 11. जिणदत्तचरित-संपा.-डॉ. माताप्रसाद गुप्त, डॉ. क. च. कासलीवाल 12.00 12. प्रद्युम्नचरित–सं.-पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ, डॉ. क. च. कासलीवाल 12.00 13. हिन्दी पद संग्रह–सम्पा.-डॉ. क. च. कासलीवाल अप्राप्य 14. सर्वार्थसिद्धिसार– संपा.-पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ 10.00 15. चम्पाशतक-संपा.--डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 6.00 16. तामिल भाषा का जैन साहित्य-संपा.-पं. भंवरलाल पोल्याका अप्राप्य 17. वचनदूतम् - (पूर्वाद्ध, उत्तरार्द्ध)-पं. मूलचन्द शास्त्री प्रत्येक 10.00 18. तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर-पं. पद्मचन्द शास्त्री 10.00 19. पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ स्मृतिग्रंथ 50.00 20. बाहुबली (खण्डकाव्य)-पं. अनूपचंद न्यायतीर्थ 10.00 21. योगानुशीलन-श्री कैलाशचन्द बाढदार 75.00 22. ए की टू ट्र हैप्पीनेस-ब्र. शीतलप्रसाद जी अप्राप्य 23. चूनड़िया (अपभ्रंश)-मुनिश्री विनयचन्द, अनु. पं. भंवरलाल पोल्याका 1.00 24. पाणंदा (अपभ्रंश ) -- श्री महानंदिदेव, अनु. डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री 5.00 25. णेमीसुर की जयमाल एवं पाण्डे की जयमाल (अपभ्रंश)-मुनि कनकीति एवम् कवि नण्हु, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका 2.00 26. समाधि (अपभ्रंश)- मुनि चरित्रसेन, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका 4.00 27. बुद्धिरसायण प्रोणमचरितु (अपभ्रंश)-कवि नेमिप्रसाद, अनु.-भंवरलाल पोल्याका 5.00 कातन्त्ररूपमाला-भावसेन विद्यदेव 12,00 29. बोधकथा मजरी-श्री नेमीचन्द पटोरिया 12.00 30. मृत्यु जीवन का अन्त नहीं-डॉ. श्यामराव व्यास 5.00 31. पुराणसूक्तिकोश 15.00 32. वर्धमानचम्पू-पं. मूलचन्द शास्त्री 25.00 33. चेतना का रूपान्तरण-ब्र. कु. कौशल 15.00 34. प्राचार्य कुन्दकुन्द-पं. भंवरलाल पोल्याका 2.00 35. अतीत के पृष्ठों से-डॉ. राजाराम जैन 3.00 36. प्राचार्य कुन्द कुन्द : द्रव्यविचार-डॉ. कमलचन्द सोगाणी 15.00