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अपभ्रंश भारती
जिस प्रकार अत्यन्त पापी का पाप फैलता है, जिस प्रकार अत्यन्त धार्मिक का धर्म फैलता है। ( 3 ) ; जिस प्रकार मृग को धारण करनेवाले ( चन्द्रमा) का प्रकाश फैलता है, जिस प्रकार जिनदेव की महिमा फैलती है ( 4 ) ; जिस प्रकार धन से रहित (व्यक्ति) की चिन्ता उभरती है, जिस प्रकार अत्यधिक शालीन का यश फैलता है ( 5 ); जिस प्रकार देवों की तुरही का शब्द फैलता है, जिस प्रकार सूर्य की किरणें आकाश में फैलती हैं ( 6 ) ; जिस प्रकार दावाग्नि ( जंगल की आग ) जंगल के मध्य में फैलती है, उसी प्रकार बादलों का समूह प्रकाश में फैला है ( 7 ) ; बादल (समूह) गरजा (और) बिजली ने तड़-तड़ किया (और) ( पृथ्वी पर ) पड़ी, मानो ( वह ) जानकी (और) राम की शरण में गई हो ( 8 ) ।
( सारा दृश्य ऐसा प्रतीत हो रहा था ) मानो पावस ( वर्षा ऋतु का ) राजा जो यश का इच्छुक ( है ), ( जिसका ) हाथ इन्द्रधनुष को पकड़े हुए ( है ), ( बह) मेघरूपी हाथी पर चढ़ कर ग्रीष्म- राजा के ऊपर ( आक्रमण के लिए ) तैयार ( हो ) ( 9 ) ।
(2)
जं पाउस गरिन्दु गलगज्जिउ । धूलो र गिम्मेरण विसज्जिउ ॥ 1 ॥ गम्पिणु मेह-विन्दे श्रालग्गउ । तडि करवाल - पहारेहिँ भग्गउ ॥ 2 ॥ जं विवरम्मुह चलिउ विसालउ । उट्ठिउ 'हणु' भणन्तु उण्हालउ ॥ 3 ॥ धग धग धग धगन्तु उद्घाइउ । हस हस हस हसन्तु संपाइ ॥ 4 ॥ जल जल जल जल जल पचलन्तउ । जालावलि-फुलिङ्ग मेल्लन्तउ ॥ 5 ॥ धूमावलि धय दण्डुठभेप्पिणु । वर- वाउल्लि-खग्गु कट्ठेप्पिणु ॥ 6 ॥ झड झड झड झडन्तु पहरन्तउ । तरुवर - रिउ भड थड भज्जन्तउ ।। 7 । मेह - महागय- घड विहडन्तउ । जं उण्हालुउ बिट्टु भिडन्तउ ॥ 8 ॥
घत्ता
• धणु प्रफालिउ पाउसेर तडि-टङ्कार-फार दरिसन्तं 1 चोऍवि जलहर-हत्थि हड गोर-सरासणि मुक्क- तुरन्ते ॥ 9 ॥ जं ( अ ) = जब पाउस - णरिन्दु [ ( पाउस ) - ( गरिन्द) 1 / 1 ] गलगज्जिउ [ गलगज्जगल + गज्जिन ) भूकृ 1 / 1] धूली- रउ [ ( धूली ) - ( रय-र ) 1 1 / 1] गिम्भेरण (गिम्भ ) 3 / 1 विसज्जिउ (विसज्जिन ) भूकृ 1 / 1 अनि,
(1)
1. रय = वेग
गम्प 1 ( गम + एपिणु = गमेपिणु ( एका लोप) (विन्द ) 2 7 / 1 ] प्रालग्गड ( अलग्ग अलग्गन ) [ ( तडि ) - ( करवाल ) - ( पहार ) 3/2] भग्गउ ( भग्ग )
1. देखें 27-14-9.
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गम्पिणु) संकृ मेह-विन्वे [ ( मेह) - भूकृ 1 / 1 तडि-करवाल - पहारे हिँ भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक, (2)
2. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है | ( हेम प्राकृत व्या. 3-137 ) । 'गमन' अर्थ में द्वितीया होती है ।
जं ( अ ) = जब विवरम्मुहु ( विवरम्मुह ) 2 / 1 वि चलिउ ( चल + चलिन) भूकृ 1 / 1 विसाल ( विसाल अ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक उट्ठिउ ( उट्ठि) भूकृ 1 / 1