________________
12
अपभ्रंश-भारती
कवि ने इस चित्र को उपयुक्त पृष्ठभूमि में मूर्त किया है जो यथा-तथ ही नहीं अपितु सुन्दर और चटकदार भी हो गया है ।
प्रकाश और छाया से निर्मित एक गतिशील चित्र कवि श्रीमाला के स्वयंवर का वर्णन करते समय प्रस्तुत करता है
पुर उज्जोवन्तिय दीवि जेम । पच्छह अन्धार करन्ति तेम ॥13
श्रीमाला गौर वर्ण की है और गौर-वर्ण भी सुनहली आभा से युक्त है । काले हाथी पर बैठी वह स्वयंवर में सभा-मडंप में जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे आगे-आगे प्रकाश फैलता जाता है उसके पीछे-पीछे अन्धकार छा जाता है। उसके मुख की दीप्ति बिजली की कौंधवाली है, दीप-शिखा जैसी है और पीछे धनी काली केशराशि है। काले हाथी की पृष्ठभूमि में व्यतिरेक से मुख की दीप्ति और भी अधिक चटक हो गई है। प्रतः यह चित्र उभरता है कि एक दीपशिखा पागे-मागे प्रकाश करती हई पीछे-पीछे अन्धकार छोड़ती जाती है । इन्दुमती के स्वयंर में कालिदास ने भी एक ऐसा चित्र उकेरा है
सञ्चारिणी दीपशिखेव रात्रौ ययं व्यतीयाय पतिवंरा सा । नगेन्द्रभागा इव प्रपेदे विवर्ण भाव सस भूमि पालः । रघुवंश 6.67
छाया प्रकाश स्थिर चित्र
रावण घरें जय तूर अप्फालिय ।
राहव-वले मुह। पाइँ मसि-महलिय: ॥14 रावण और राम के बीच चल रहे युद्ध में जब कभी रावण की जीत होती है तब रावण की सेना में हर्षोल्लास फूट पड़ता है और राम की सेना का मुंह स्याही से पुत जाता है । चित्र का एक हिस्सा काला है और दूसरा उज्जवल । छाया और प्रकाश प्रात्मग्लानि व दुःख तथा उल्लास को मूर्त करते हैं।
ऐसा ही एक और चित्र तब सामने आता है जब कवि रावण के उपवन में बैठी सीता का वर्णन करने में लीन है
तहों वणहों मझे हवन्तेण सीय णिहालिय दुम्मणिय ।
णं गयण-मग्गे उम्मिल्लिय चन्दलेहवीयहें तणिय ॥15
सीता रावण के उपवन में है, विमन बैठी है मुख की कान्ति धीरे-धीरे काली पड़ती जा रही है, कहीं-कहीं लालिमा बच गई है। सीता के मन में प्राशा-निराशा के भाव प्रा-जा रहे हैं। निराशा का विचार कालेपन की कूची से उसके चेहरे को पोत सा जाता है और पाशा की किरण उसमें कभी-कभी भटकी दीप्ति जैसे दीख पड़ती है। कवि को वह चन्द्रमुखी अब केवल द्वितीया के चन्द्रमा जैसी दीख रही है। यहां सीता के मन का तूफान क्षीण और अस्थाई प्रकाश से प्रतीत हुआ है।