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________________ सम्पादकीय 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना अपभ्रंश भाषा और साहित्य के स्वतन्त्र श्रध्ययन-अध्यापन के विशेष उद्देश्य को लेकर हुई है । प्रपभ्रंश भाषा एक सशक्त जनभाषा रही है जिसे 'देशी भाषा' के नाम से जाना जाता था । कालान्तर में इसे 'अवहट्ट, अपभ्रंश' आदि नाम दिये गये । धीरे-धीरे इस जनभाषा में साहित्य का निर्माण भी होने लगा । अपभ्रंश भाषा में साहित्य की सभी विधात्रों में रचनाएं की जाने लगी । समूचे राष्ट्र में इस 'जनबोली' में साहित्य रचा गया। कश्मीर के शैवग्रंथ अपभ्रंश में हैं। कामरूप, बिहार, उड़ीसा के सिद्धों की Maraयों की भाषा अपभ्रंश है। गोरखनाथ के वचन इसी भाषा में है। प्रांध्र में पुष्पदन्त ने, कर्नाटक में स्वयंभू ने और उत्तर प्रदेश में कनकामर ने जैन चरितों की रचना अपभ्रंश में ही की है । विद्यापति वैष्णव- गीत इसी में गाते हैं और ऐतिहासिक श्राख्यान की योजना अपभ्रंश में ही करते हैं । गुजरात और राजस्थान के सूरियों ने इसका प्रयोग अनेक विधाओं में किया है । राजस्थान के जोइन्दु और रामसिंह श्राध्यात्मिक रहस्यवाद का उद्बोधन इसी भाषा में करते हैं। मुल्तान के अब्दुल रहमान ने लोकगीतों को इसी के स्वरों में बांधा है और चन्दबरदायी की भोजभरी गर्जना इसी में सुनाई पड़ती है । 'वीसलदेव रासो' और 'ढोला मारू रा दूहा' इसके अवहट्ठ रूप की ही रचनाएं हैं। संत ज्ञानेश्वर ने भी 'ज्ञानेश्वरी' में यथास्थान इसका सहारा लिया है । विद्याधर और मुंज का प्रेम इसी ( भाषा) में इतना भावुक हो सका है। रइधू तो कल तक इसी भाषा में लिखते हैं । कहने का तात्पर्य है कि ज्ञात और अज्ञात अनेक कविलेखकों ने अपभ्रंश साहित्य के कलेवर की वृद्धि की है । इस प्रकार यह देश की साहित्यिक भाषा ही नहीं राष्ट्रभाषा भी बन गई । लोकजीवन की ऐसी कोई विधा नहीं बची जिस पर अपभ्रंश भाषा में न लिखा गया हो। इसमें राष्ट्रभाषा को अधिकाधिक पुष्ट, बलिष्ट करने की हर प्रकार की संभावना है । इतना विशाल और महत्वपूर्ण साहित्य होते हुए भी प्रारम्भ में यह उपेक्षित ही रहा। सभी आधुनिक भारतीय प्रार्यभाषाओं के समान प्राधार अपभ्रंश में सुरक्षित हैं किन्तु उपेक्षा के कारण इसका महत्व उजागर नहीं हुआ जिससे देश में भाषायी विवाद खड़े हो गये । उसका भाषायी एकीकरण डगमगा गया । बोलियों की पारिभाषिक
SR No.521851
Book TitleApbhramsa Bharti 1990 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1990
Total Pages128
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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