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________________ अपभ्रंश-भारती प्रा-प्राप्य क्षेत्र के ग्रन्थों में जहां कि निविभक्तिक या प्रकारान्त रूपक वहीं यत्र-तत्र प्राकारान्त रूप भी मिल जाता है । पउमचरिउ काव्य में छन्दानुरोध से 'शब्दान्त' 'प्रा' रूप को प्रयुक्त किया है। कवि ने बहुधा उक्त प्रत्यय एकवचन में प्रयुक्त किया है, वैसे अपभ्रंश वैयाकरण 'मा' विभक्ति चिह्नक का भी निर्देश करते हैं । यथा तहि प्रोसपिरिण-काले गये कप्पयहच्छग्णा। अहो परमेसर कुल-यर-सारा। कोउहल्लु यहु एउ' भारा ॥ खेमज्जलि-राणा प्रवह अयाणा मेल्लि समि जह सक्षि जह समितउ ।। धीर-सरीर वीर तव-सूरा सम्पहुं जीवहुं प्रासाऊरा ॥ इन्दिय पसवण पर-उक्यारा ते कहिं पर पावन्ति भगरा ॥ बह देवहुं जें मज्झे संपा। तो किं कज्जे वाहण हा ॥ चन्दाइच-राहु-अंगारा। अग्णहो अग्ण होन्ति कम्मारा ॥ णिव्वियार जिणवर-परिव्या इव । रह-विहि विष्णाणियरिया इव ।। ए-प्रस्तुत वर्ग में एकारान्त रूप भी पूर्वी अपभ्रंश में सुलभ है-मअरन्दए <मकरन्दक, होमे <होमक, अब्ब्भासे <अभ्यास (सरहपा) । सम्बोधन इस विभक्ति में भी कर्ता व कर्म की भांति प्रत्ययों का सम्बन्ध है। इसके लिए प्रायः निविभक्तिक प्रयोग प्राये हैं। किसी-किसी स्थल पर 'उ' अथवा 'मा' प्रत्यय स्वयंभुदेव ने अपनाया है जय शाह सम्व-देवाहिदेव । किय-णाग-नरिन्द-सुरिन्द-सेव ॥ परमेसर दुज्जर बुट्ट खलु । चन्दोवर गायें अतुल-बलु ॥ तं णिसुरणेवि बम्पर चविड एव । हणवन्तु मुएवि को जाइदेव ॥ ताय-ताय मिलि साहणे गम्पिण स रामचन्यहो । जइ मल्लउ बहिमुह माम महु । तो तिणि विकण्णउ देहि वह ॥ मवे मवे अम्हहुं देज जिण गुण-सम्पति-भारा॥ बहुवचन-विभक्तियां-इस वर्ग में प्रा, उ, हो तथा शून्य (प्र) प्रत्यय का प्रयोग मिलता है । यथा मा-णारा, चवकारा, मचा, जसवन्ता, सरन्ता आदि। हो हो केण विट्ठ परम्पउ ॥ नपुंसकलिंग अकारान्त कर्ता व कर्म के बहुवचन में रूप पुल्लिग से भिन्न होता है । इसकी व्यवस्था अलग है जिसका रूप 'इ' है । यथा-णयणइं । संधि बत्तीस के नवें, दशवें तथा ग्यारहवें कड़वक में नपुंसकलिंग का सुन्दर प्रयोग देखा जा सकता है।
SR No.521851
Book TitleApbhramsa Bharti 1990 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1990
Total Pages128
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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