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अपभ्रंश भारती
प्राधुनिक काल में अवधी तक 'उ प्रत्यय का प्रयोग प्राप्त है। स्वयंभुदेव के परवर्ती कवि पुष्पदन्त, धनपाल, धाहिल, जोइन्दु, रामसिंह, पं. दामोदर आदि अपने-अपने ग्रन्थों में इसकी प्रमुखता की स्वीकृति देने में प्रधान हैं । मध्य भारत में प्रस्तुत कारक चिह्न की प्रधानता है । प्राच्य पूर्वी अपभ्रंश में विशेषतः मगध क्षेत्र में 'उ' प्रत्यय अप्रचलित है। वैसे 'उ' रूप का प्रयोग समस्त अपभ्रंश क्षेत्र में प्रचलित है । सरहपाद के दोहाकोश में 41-44 प्रौर काण्हपा के दोहाकोश में 28-57 प्रतिशत 'उ' प्रत्यय का प्रयोग सुलभ है। बारहवीं शताब्दी के संदेश-रासक ग्रन्थ में 'उ' प्रत्यय की अपेक्षाकृत 'प्रो' का प्रयोग बहल है। मैथिल कवि विद्यापति की 'कीर्तिलता' और 'कीतिपताका' में अपेक्षाकृत 'ओ' प्रत्यय का बाहल्य है। इन ग्रन्थों में यत्र-तत्र 'उ' प्रत्यय का प्रयोग दिखाई पड़ता हैं। उक्त उल्लेख से स्पष्ट है कि 'उ' कारक चिह्न का प्रयोग बहुल है। इसलिए अपभ्रंश को 'उकार बहुला' भाषा कहा जाता है । कालिदास के विक्रमोर्वशीय के अपभ्रंश अंश में उकारान्त की प्रधानता है। स्वयंभूदेव के सभी परवर्ती अपभ्रंश कवियों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है। हेमचन्द्र से पूर्व 'उ' अपभ्रंश भाषा का प्रमुख लक्षण था। स्वयंभुदेव कृत 'पउमचरिउ' में निरपवाद 'उ' का प्रयोग प्राप्य है। 'उ' प्रत्यय 'प्रो' का लघूच्चरित रूप है । 'पउमचरिउ' काव्य में 'उ' का प्रयोग द्रष्टव्य है
परमेसरु पच्छिम जिणवरिन्दु चलणग्गे चालिय-महिहरिन्दु । माणुज्जलु चउ-कल्लाण पिण्ड चउ कम्मडहणु कलिकाल-दण्ड ॥
प्रो-यह रूप कर्ता एकवचन में बहुत कम प्रयुक्त है । 'प्रो' का प्रयोग विक्रमोर्वशीय, पाहुडदोहा, भविसयत्तकहा, संदेशरासक, करकंडचरिउ तथा प्राकृत व्याकरण में पुल्लिगवत् स्पष्ट है। प्रछहमाण ने अपने काव्य में 'प्रो' कारक का प्रयोग अधिक किया है जिन्हें डा. भायाणी ने प्राकृताभास की संज्ञा दी है। विद्यापति के कीर्तिलता व कीर्तिपताका में 'मो' रूप का बाहुल्य है । पउमचरिउ में इसका प्रयोग अल्पमात्र है जिसको अपभ्रंश ने लघूच्चरितकर 'प्रो' बना दिया। यह 'प्रो' प्रायः 'उ' के रूप के लिखा जाता रहा है । फिर भी कुछ रूप यथावत् रह गये । स्वयंभुदेव ने कर्ता व कम एकवचन में 'प्रो' का रूप पुल्लिगवत् प्रकट किया है। यथा
एह वे हम्रो हयस्स । चोहम्रो गमो गयस्स ॥
वाहिनो रहो रहस्स । चाहनो गरो परस्स ।। पउ, प्रमो-परिवर्धित रूप भी 'पउमचरिउ' में मिलते हैंमोलिय-मालउ सिरेकुन्जरहो । उक्सोह पेन्ति अग्णहो गरहो । तं णिसुणेवि पोखण्डिय-माणउ । ल्हसिउ मियंकु थक्कु जमराणउ ॥ को विवाण-विणिमिण्ण-वच्छयो । वाहिरन्तच्चरिय-पिच्छरो॥
उपर्युक्त प्रत्ययों का प्रयोग पउमचरिउ में स्वयंभुदेव द्वारा कर्ता व कर्म के एकवचन पुल्लिग व नपुंसकलिंग में है । 'उ' और 'अयो' का रूप प्राय 'उ' और 'प्रो' में निहित हो गया है।