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अपभ्रंश भारती
छडु में छुडु में सरयहाँ प्रागमणे, सच्छाय महादुम जाय वणें ॥ णव णलिणिहें कमलइँ विहसियइँ, गं कामिणि-वयण पहसियइँ ॥ धवलेण पिरंतर - रिणग्गएण, घण - कलसे हिंगयण - महग्गएँण ॥ अहिसिंचेवि तक्खणे वसुइ-सिरि, णं थविय प्रवाहिणि कुम्भइरि ॥
36.2.2-5 स्वयंभू नर्मदा को प्रिय से अनुरक्त बाला के रूप में कल्पित करके कैसा सुन्दर बिंब प्रस्तुत करते हैं, देखिए
समुद्र के पास जाते हुए उसने शीघ्र अपना प्रसाधन कर लिया। जो उसमें जल के प्रवाह का घवघव शब्द हो रहा है, वही उसके नूपुरों की झंकार है, जितने भी कांतियुक्त किनारे हैं वे ही उसके ऊपर ओढ़ने के वस्त्र हैं, जो जल खलबल करता हुआ उछलता है, वही रसनादाम है । उसमें उठनेवाले प्रावतं ही उसके शरीर की त्रिवलियों रूपी लहरें हैं । उसमें जलगजों के कंभ ही उसके प्राधे निकले हए स्तन हैं। फेन, जो उठ रहे हैं, वे ही हार हैं, जलचरों के युद्ध से रक्तरंजित जल ही उसके तांबूल के समान है, मतवाले गजों से जो उसका पानी मैला हमा, वही मानो उसकी आँखों का काजल है, ऊपर नीचे होनेवाली तरंगें उसकी भौहों की भंगिमा है, जो उसमें भ्रमरमाला व्याप्त है वह उसकी केशावली है ।
णम्मयाएँ मयरहरहों जन्तिएँ । पाइँ पसाहणु लइउ तुरंतिए । घवघवंति जे जल-पन्भारा । तो जि पाइँ ऐउर-झंकारा ॥ पुलिणइँ जाइँ वे वि सच्छायई । ताई जे उड्ढणाई णं जाय ॥ जं जलु खलइ वलइ उल्लोलइ । रसरणा-दामु तं जि णं घोलइ ॥ जे मावत्त समुट्ठिय चंगा । ते मि गाई तणु-तिवलि तरंगा ॥ जे जल-हस्थि-कुम्भ सोहिल्ला । ते जि पाई थण अधुम्मिल्ला ।। जो हिण्डीर-णियर अंदोलइ । णावइ सो जें हारु रखोलइ ।। जं जलयर-रण-रंगिउ पाणिउ । तं जि गाई तंबोलु समारिण उ ॥ मत्त-हस्थि-मय-मइलिउ जं जल । तं जि णाई किउ प्रक्खिहिं कज्जलु ॥ जाउ तरंगिरिणउ प्रवर-मोहउ । लाउ जि मंगुराउ णं भउहउ ॥ जाउ भमर-पतिउ मल्लीरगउ। केसावलिउ ताउ रणं दिण्णउ ॥
14.3.1-11 2. श्रव्य बिब
स्वयंभू के काव्य में श्रव्यबिंबों की बहुलता है जो कवि की श्रवणसंवेदना के बहुमुखी रूप का परिचायक है। भयंकर नाद, मेघ-गर्जन, सिंह-गर्जन, सागर-गर्जन, नदी का कल-कल नाद, पक्षियों का कलरव, वज्राघात की ध्वनि, आनंदभेरी, डमरुनाद, घंटों की ध्वनि प्रादि अनेक ध्वनियों को स्वयंभू ने प्रस्तुत किया है ।
____ गोदावरी नदी का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि गोदावरी में मछलियाँ उछलकूद मचा रही थीं। शिशुमारों में घोर घुरघुराती हुई, गज और मगरों के पालोडन से