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अपभ्रंश-भारती
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___1. मात्रा को ह्रस्व करने के लिए यहां ।' लगाया गया है। (हे. प्रा. व्या. 4-410)
2. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हे. प्रा. व्या. 3-134)।
वित्थिण्णु (वित्थिण्ण) भूक 2/1 अनि रण्ण' (रण्ण) 2/1 पइसन्ति (पइस+पइसन्त (स्त्री)+पइसन्ति) वकृ1/2 जाव (अ) = ज्योंहि जग्गोहु (णग्गोह) 1/1 महादुमु [ (महा)(दुम) 1/1] विट्ठ (दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि ताव (अ)=त्योंहि,
(3) 1'गमन' अथं में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है ।
गुरु-वेसु [ (गुरु)-(वेस) 2/1] करें वि (कर+एवि) संकृ सुन्दर-सराई [ (सुन्दर)(सर) 2/2] णं (अ)=मानो विहय (विहय) 2/2 पढावइ (पढ+प्राव) व प्रे. 3/1 सक प्रक्खराइ (प्रक्खर) 2/2,
(4) वुक्कण-किसलय [(वुक्कण=बुक्कण)- (किसलय) 2/2] कस्का (कक्का) 2/2 रवन्ति (रव) व 3/2 सक वाउलि-विहङ्ग [(वाउलि=बाउलि)-(विहङ्ग) 1/2] कि-क्की (कि-क्की) 2/2 भणन्ति (भण) व 3/2 सक,
कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम. प्रा. व्या. 3-137) ।
वण-कुक्कुट | (वण)- (कुक्कुड) 1/2] कु-क्कू (कु-क्कू) 2/2 पायरन्ति (पायर) व 3/2 सक अण्णु (अण्ण) 1/1 वि वि (अ)=तथा कलावि (कलावि) 1/2 के-क्कइ (के-क्कई) 2/2 चवन्ति (चव) व 3/2 सक,
पियमाहविय [पिय)-(माहविया) 1/2] उ (अ)=पाद-पूर्ति को-क्कउ [कोक्ऊ) 2/2 लवन्ति (लव) व 3/2 सक कं-का (कं-का)2/2 वप्पीह (वप्पीह=बप्पीह)1/2 समुल्लवन्ति (समुल्लव) व 3/2 सक,
सो (त) 1/1 सवि तरुवरु [(तरु)-(वर) 1/1 वि] गुरु-गणहर-समाणु [(गुरु)(गणहर)-(समाण) 1/1 वि] फल-पत्त-वन्तु [(फल)-(पत्त)-(वन्त) 1/1 वि] अक्खरणिहाणु [(अक्खर)-(गिहाण) 1/1],
(8) पइसन्तेहिं (पइस→पइसन्त) 3/2 असुर-विमद्दणेहि [(असुर)-(विमद्दण) 3/2] सिरु (सिर) 2/1 णामेवि (णाम+एवि) संकृ राम-जणद्दणेहि [(राम) वि-(जणदण) 3/2] परिपञ्चेवि (परिअञ्च+ एवि) संकृ दुमु (दुम) 1/1 बसरह-सुएहि [(दसरह)(सुप्र) 3/2] पहिणन्दिउ (अहिणन्द-+अहिणन्दिन) भूकृ मुणि (मुणि) 1/1 व (अ)= की तरह सईभएहिं (सइंभुन) 3/2,
(9) तब तीनों ही (राम, लक्ष्मण व सीता) (उस) मनुष्य में अतिपीड़ा को उत्पन्न करते हुए (और) इस (उपर्युक्त) प्रकार से कहते हुए (1) दिन के अन्तिम प्रहर में बाहर निकल
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