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'एउ ण जाणहो एक्कु पर'
..........."चवइ रहुणन्दणु, 'नाणमि सीयहे तरणउ सइत्तण । जाणमि जिह हरि-वंसुप्पण्णी, जाणमि जिह वय-गरण-संपण्णी। जाणमि जिह जिण-सासरणे भत्ती, जारणमि जिह महु सोक्खुप्पत्ती। जा अणु-गुण-सिक्खा-वयधारी, जा सम्मत्त-रयण-मणिसारी । जाणमि जिह सायर-गम्भीरी, जाणमि जिह सुर-महिहर-धीरी। जाणमि अंकुस-लवण-जणेरी, जाणमि जिह सुय जणयहो केरी। जाणमि सस भामण्डल-रायहो, जारणमि सामिणि रज्जहो पायहीं। जाणमि जिह अन्तेउर-सारी, जाणमि जिह महु पेसरण-गारी। घत्ता-मेल्लेप्पिणु रणायर-लोऍण, मह घरे उभा करें वि कर।
जो दुज्जसु उप्परें चित्तउ, एउ ण जाणहो एक्कु पर।'
- रघुनन्दन (राम) कहते हैं- [ मैं ] सीता का सतीत्व जानता हूँ। वह हरिवंश जैसे [वंश] में उत्पन्न हुई [यह] जानता हूँ। [वह ] व्रतों और गुणों से जिस प्रकार संपन्न है, जानता हूँ। [वह] जिस प्रकार जिन-शासन में आस्था रखती है, जानता हूँ, मुझे जिस प्रकार सुख देती रही है, जानता हूँ। जो अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रतधारी है, जो सम्यग्दर्शन आदि रत्न-मणियों से युक्त है। [वह] सागर जैसी गंभीर है, जानता हूँ, सुमेरु पर्वत जैसी धीर है [यह] जानता हूँ । [वह] लवण और अंकुश की जननी है [यह भी] जानता हूँ, राजा जनक की पुत्री है [यह भी] जानता हूँ। वह राजा भामण्डल की बहन है, जानता हूँ, यह भी जानता हूं कि वह इस इस राज्य की स्वामिनी है । जानता हूँ कि वह अन्तःपुर में श्रेष्ठ है, वह जिस प्रकार मेरी सेवा करनेवाली है (मैं यह भी) जानता हूँ।
किंतू नागर-जनों ने मिलकर मेरे घर पर हाथ ऊँचे कर (कर) के यह कलंक क्यों लगाया ? मैं यह नहीं जानता।
पउमनरिज
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