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________________ पउमचरिउ का एक प्रसंग व्याकरणिक विश्लेषण -डॉ. कमलचन्द सोगारणी 'पउमचरिउ' महाकवि स्वयंभू की अमर कृति है । अपभ्रंश भाषा में निबद्ध यह एक उच्चकोटि का महाकाव्य है। इसी ग्रन्थ में से हमने एक प्रसंग का चुनाव करके उसकी भाषा का व्याकरणिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है । इससे अपभ्रंश भाषा के व्याकरण को प्रयोगात्मक रूप से समझने में सहायता मिलेगी। व्याकरण को प्रस्तुत करने में जिन संकेतों का प्रयोग किया गया है वे नीचे दे दिए गए हैं। यहाँ उस प्रसंग का अनुवाद भी किया गया है । यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि भाषा का व्याकरण और अनुवाद एक दूसरे से घनिष्ठरूप से संबंधित होते हैं। 27.14.9 वरि पहरिउ वरि किउ तवचरणु वरि विसु हालाहलु वरि मरण । वरि अच्छिउ गम्पिणु गुहिल-वणे गवि णिविसु वि णिवसिउ अवुहयणे ॥ वरि (प्र) =अधिक अच्छा पहरिउ (पहर (भूकृ)-+पहरिप्र) भूकृ 1/1. किउ (कि-किन) भूकृ 1/1 तवचरण [(तव)-(चरण) 1/1] विसु (विस) 1/1 हालाहलु
SR No.521851
Book TitleApbhramsa Bharti 1990 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1990
Total Pages128
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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