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अपभ्रंश-भारती
इसमें व्यापार या घटना के लौकिक जगत् में वास्तविक रूप से घटित होने का भाव अन्तनिहित रहता है, संभावित या संकल्पित व्यापार से इसका कोई संबंध नहीं है। इस तरह पक्ष का बोध मूलतः केवल उन्हीं कार्य-व्यापारों के संबंध में संगत है जो लौकिक धरातल पर घटित हो रहे हैं अथवा हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त जो कार्य-व्यापार लौकिक जगत् में घटित नहीं हुए हैं और जो वक्ता के मस्तिष्क में ही इच्छा, अभिवृत्ति, संभावना प्रादि के रूप में निहित हैं, उनका संबंध 'वृत्ति' से होता है, 'पक्ष' के क्षेत्र में वे नहीं पाते । इस तरह ‘पक्ष' कार्य व्यापार की भौतिक अवस्था है और 'वृत्ति' मनोवैज्ञानिक । यही कारण है कि नोवेल 'वृत्ति' को कार्यव्यापार का मनोवैज्ञानिक 'पक्ष' कहते हैं, 'वृत्ति' कार्य-व्यापार की उस अवस्था या रीति को व्यक्त करती है जिसे वक्ता मानसिक स्तर पर अपनी चेतना तथा दृष्टिकोण से देखता है । उसकी यह दृष्टि इच्छा, कल्पना, संकल्प या अनुमान आदि से प्रेरित हो सकती है । इस प्रकार 'वृत्ति' से कार्य-व्यापार के प्रति वक्ता की अभिवृत्ति या कर्ता और कार्य-व्यापार के संबंध में उसके दृष्टिकोण का बोध होता है। अतः 'पक्ष' और 'वृत्ति' के भिन्न आयाम हैं।
__2.0 आधुनिक भाषाविद् 'पक्ष' की घटनापरक व्याख्या से ही संतुष्ट नहीं है, वे उसकी विकासात्मक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार 'पक्ष' अब केवल किसी व्यापार या घटना के ही संदर्भ में नहीं देखा-समझा जाता है ।26 इससे व्यापार की वास्तविक कालावस्था-प्रांतरिक कालक्षेत्र के अलावा, व्यापार से एक दम पूर्व या बाद की वे कालावस्थाएं भी शामिल हैं जो घटना या व्यापार के 'पक्ष' बोध को प्रवाहित करती हैं। यहां क्रिया-व्यापार की परिधि प्रांतरिक 'काल' क्षेत्र से कुछ बाहर तक आ जाती है, और 'पक्ष' के तीन आयाम हो जाते हैं-पूर्ववर्ती, समवर्ती और परवर्ती। इससे अलग 'पक्ष बोध' का एक अन्य आयाम भी है जो 'पक्ष' के प्रांतरिक समय-विन्यास का निर्माण करता है । इसका बाह्य संदर्भ-समय या लौकिक समय से कोई संबंध नहीं है, यह तो 'पक्ष' बोध में निहित व्यापार के प्रांतरिक समय का विन्यास या बुनावट है जिसये यह बोध होता है कि व्यापार क्षरणपरक है या विस्तारपरक, एक बार घटित होता है, या बार-बार अर्थात् एकल घटना है या पावृत्तिपरक, प्रक्रियांत अथवा अवस्थान्त, स्थित्यात्मक है या प्रक्रियात्मक, उपलब्धि है या कार्यसिद्धि । ये सभी 'पक्ष' के लक्षण हैं जो 'पक्ष' को गहनता और विशिष्टता प्रदान करते हैं । 'पक्षबोध' का यह आयाम रेखीय न होकर उत्तराधर क्रमिक है। कुछ क्रिया विशेषण वाक्य के क्रियारूपों द्वारा व व्यक्त 'पक्ष' बोध को परिमाणित या परिसीमित करते हैं और प्रायः समधर्मी 'पक्षों के साथ सहप्रयुक्त होते हैं । ये क्रिया विशेषक विस्तार या अवधि सूचक होने के कारण परिमाणक कहे जाते हैं और रेखीय होते हैं । इनके विपरीत क्षणपरक क्रियाओं के साथ निश्चित समय बिन्दु या क्षण को सूचित करनेवाले क्रिया विशेषण प्रयुक्त होते हैं । ये 'पक्ष' परिमाणक क्षणपरक क्रिया विशेषण कहलाते हैं। प्रावृत्तिपरक व्यापार को सूचित करनेवाले क्रिया विशेषणों का प्रयोग अभ्यास के साथ रहता है । कुछ व्यापार ही ऐसे हैं जिनमें प्रकृति से ही प्रावृति भाव निहित रहता है । कभी-कभी कालचिह्नक योजक क्रियामों के प्रयोग से भी 'पक्ष' के मूल्यों में सूक्ष्म अन्तर पा जाता है। अत: पक्ष के भेदोपभेदों को नीचे के पारेख से प्रकट किया जा सकता है ।27