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अपभ्रंश-भारती
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हो सकता है या उसमें निहित कोई अन्य समय बिन्दु भी। इस तरह काल घटना-समय और मंदर्भ समय के बीच विद्यमान संबंध का व्यतिकरण या व्याकरणीकरण है। वक्ता कभी एक समय बिन्दु से बंधा नहीं होता, वह तो एक समयावधि में फैला होता है, और यह समयावधि कितनी छोटी बड़ी है, यह भी वक्ता पर ही निर्भर होता है, इसलिए समय बिन्दु का प्रयोग न होकर समय विस्तृति का प्रयोग होता है। इसी व्यक्ति निष्ठता के कारण 'काल' को डाइक्टिक कहा गया है। वक्ता वर्तमान में रहते हए भी वर्तमान से बंधता नहीं है, वह प्रतीत की घटना का 'स्मरण' करता है और भविष्य की घटना की प्रत्याशा' । यह 'स्मरण' और 'प्रत्याशा' की शक्ति उसे समय के बंधन से थोड़ा बहत मुक्त कर देती है। उसकी 'कल्पना' और 'तर्कणाशक्ति' उसके निर्देशांक के वर्तमान से हटाकर भूत या भविष्य में स्थापित कर सकती है। इस प्रकार निर्देशांक के आगे-पीछे खिसकने से और 'स्मरण' तथा 'प्रत्याशी' के संयोग से अनेक 'काल' स्थितियां बन जाती हैं।
__ 1.7 'काल' संरचना के स्तर पर क्रिया कोटि है और अर्थ संरचना के स्तर पर वाक्यात्मक कोटि क्योंकि यह वाक्य के अन्य समय सूचक तत्वों से प्रभावित प्रतिबंधित होता है । कभी-कभी 'पक्ष' तथा 'वृत्ति' में भी 'काल' का अप्रत्यक्ष बोध निहित रहता है । यह क्रिया पद बंध के भीतर भी सर्वथा पृथक इकाई नहीं है। भाषा में कोई भी ऐसा 'काल', 'वृत्ति', या 'पक्ष' नहीं है जिमका प्रार्थी क्षेत्र केवल वहीं तक सीमित हो जहां तक उसके व्याकरणिक नाम से व्यक्त-संकेतित होता है। 'काल' का समय विभाजन अन्तत: मनोवैज्ञानिक है और मुल्यमापेक्षिक । 'पक्ष' तथा 'काल' के प्रार्थी क्षेत्र भी इतने अन्तमिश्रित हैं कि प्रायः व्याकरणों में इन दोनों के क्रिया रूपों को संयुक्त रूप से प्रस्तुत करने की परंपरा रही है। इनके बीच कई ऐसे महत्वपूर्ण सह प्रयोगात्मक संबंध हैं जो अन्यथा स्पष्ट नहीं हो सकते 123
1.8 यह बात अब स्पष्ट है कि क्रिया व्यापार का एक बाहरी काल होता है और दूसरा भीतरी जिमका बाहरी या लौकिक धरातल की नापजोख से कोई संबंध नहीं होता है क्योंकि इसका फैलाव कार्यारंभ से कार्यान्त तक रहता है। असल में कार्य-व्यापार के इस प्रांतरिक क्षेत्र का बोध ही 'पक्ष' है जो केवल भाषा में ही संभव है। यह प्रांतरिक काल बोध इतना स्वतंत्र भी है कि जो न लौकिक काल से जुड़ा है, न उक्ति के शून्य बिन्दु से और न काल खंड से । यह केवल कार्य-व्यापार की पूर्णता-अपूर्णता की किसी अवस्था का बोध कराता है। यह अलग बात है कि इस पूर्णता-अपूर्णता की अवस्था का बोध मानसिक रूप से भूत या वर्तमान के साथ मिश्रित कर दिया जाता है और जो बाहरी संरचना में वांछित काल-चिह्नक के साथ प्रकट होता हो, फिर भी यह कोई अनिवार्यता नहीं है। यह काल-चिह्नक बिना भी व्यक्त हो सकता हैं। इनमें भूतकालिक रूप पहले से ही विवादास्पद रहे हैं । डॉ. रवीन्द्र श्रीवास्तव इसे 'काल' निरपेक्ष मानते हैं और कामताप्रसाद गुरु तथा अशोक केलकर इसे कालयुक्त क्रिया और सामान्यभूत के नाम से अभिहित करते हैं । 24
___1.9 कामरी ने 'पक्ष' को कार्य-व्यापार के प्रांतरिक 'काल' क्षेत्र को देखने की विभिन्न दृष्टियां कहा है ।25 इस प्रकार 'पक्ष' के अन्तर्गत केवल वह समय-विस्तार पाता है जो व्यापार या घटना के प्रारंभ से अंत तक फैला रहता है और जो केवल प्रांतरिक क्षेत्र है।