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________________ 4 ' अपभ्रंश-भारती इस चरित्र-काव्य की कथा का प्रारंभ लोक-प्रचलित कुछेक शंकाओं के साथ होता है, जबकि पुराणों की श्रोता-वक्ता-शैली में मगध नरेश श्रेणिक जिनवर से प्रश्न करते हैं बह रामहों तिहुयण उवरे माइ। तो रावण कहि तिय लेवि जाइ ॥ पण वि खरदूषण-समर देव । पहु जुज्झइ सुज्झइ भिच्चु केंव ॥ किह वाणर गिरिवर उम्बहंति । बंधेवि मयरहरु समुत्तरंति ॥ किह रावणु बहमुहू बीसहत्थु । अमराहिव-भुव-बंधण-समत्यु ॥ स्वयंभू की इस मानवीय दृष्टि ने 'पउमचरिउ' के रूप को न केवल पूर्व और परवर्ती राम-काव्य-परंपरा से अलगा दिया है बल्कि राम के चरित्र और व्यक्तित्व को लोकजीवन की निधि बना दिया है। राम के मानवीय चरित्र का यह पुराण अन्यतम है। जहां सभी प्रकार की विपत्तियों में मादिकवि ने राम के पौरुष को उजागर किया है, वहां शक्तिहत लक्ष्मण के मूछित शरीर पर असहाय साधारण मनुष्य की भॉति उसे रोते-बिलखते भी दिखाया है। जो राम अपने पिता के वचनों के पालन हेतु मुनि-वेश में वन-वन भटकता है, वही अपनी पत्नी के वियोग में सम्पूर्ण प्रकृति को अपने आँसुओं से भिगोता है और साहसी कर्मवीर की भांति उसे पाने के लिए समुद्र पर रावण से युद्ध करता है। किन्तु तत्कालीन समाज में नारी की स्थिति का पर्दाफाश पुष्पक-विमान में चढ़कर अयोध्या आगमन के समय अग्नि-परीक्षावाले प्रसंग में होता है। सीता राजा के उस उपवन में जाकर बैठ गई जहां राम ने निर्वासन दिया था। तहो उबवणहो मझेमावासिय ।। पुनः प्रातः काल होने पर कान्ता की कान्ति को देखकर राम का विहंसना और नारी के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग-'जइ वि कुलग्गयाउ गिरवन्जउ महिलउ होंति सुट्ट रिपल्लज्ज अटपटा तो अवश्य है लेकिन राम के हंसने ने इस अशोभनीयता को धो दिया है साथ ही इन शब्दों में लोक-जीवन के व्यावहारिक कड़वे सत्य का स्वर भी तो मुखरित है । धर्मोन्मुख होने पर यह भावना सत्य के अधिक निकट है। जैन-कवियों के काव्य में यह सर्वत्र दर्शनीय है। अस्तु, इस स्थिति को धार्मिक परिवेश में 'पुरुष के श्याम चरित्र की पृष्ठभूमि" कहना उचित नहीं। अंत में सीताजी के द्वारा भी कुछेक कठोर शब्दों को कहलवाकर-'पुरिस णिहीण होंति गुणवंत वि, तियहें ण पत्तिज्जति मरंत वि स्वयंभू ने नारी-हृदय की कुण्ठा की अभिव्यक्ति किमपि नहीं की है, वस्तु सत्य को ही टटोला है। वस्तुत: नारी तो पुरुष की शक्ति है जो पति-रूप में उसके विश्वास को प्राप्त कर और अधिक तेजोमय हो जाती है। गृहस्थ-जीवन का यह प्रादर्श मूल्य पति-पत्नि को परस्पर निकट लाता है, विच्छेदन की प्रेरणा कभी नहीं देता। अंत में सीताजी नर-नारी के अंतर को 'मरणे वि वेल्लि रण मेल्लइ तरुवर के दृष्टान्त से स्पष्ट करती हई, अपने सतीत्त्व की दृढ़ता व्यक्त करती हैं-सह वडाय मइं प्रज्जु समुग्भिय ।10 जैन-धर्मानुकूल कर्म-फल में विश्वास के कारण वे किसी को दोष न देकर इसे अपने किसी दुष्कर्म का ही फल कहती हैं-'सब्य दोष एस दुक्किय कम्महो'11 और पंचलोच करती है। आखिर यही तो वह उपाय है जिससे स्त्रीयोनि-में जन्म नहीं लेना पड़ेगा -
SR No.521851
Book TitleApbhramsa Bharti 1990 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1990
Total Pages128
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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