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अपभ्रंश भारती
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भाव और बुद्धि, राग और दर्शन की अलग प्रतीति नहीं होती । इनका अविभाज्य संश्लिष्ट रूप मिलता है । इन चित्रों में कवि की समग्र चेतना का शब्द, रेखाओं और रंगों से उन्मुक्त मिलन है । कला का अर्थ भी यही है । कला के विषय में केवल फोसीलन ही नहीं कहते, स्वयंभू के ये चित्र स्वयं ही बार-बार बोलते हैं – “कला संवेदना को रूप का परिधान मात्र नहीं पहनाती है वरन् कला संवेदना में रूप का उदय भी करती है।"
1. पउमचरिउ 11.6.9 2. वही 14.6.1-9 3. वही 49.11.10 4. वही 63.11.2-9 5. गीता 15.2 6. पउमचरिउ 79.1.9 7. वही 17.2.1-8 8. वही 16.14.9 9. वही 32.3.1-12
10. वही 19.16 8-9 11. वही 20.3.7 12. वही 80.9.9 13. वही 7.3.8 14. वही 6.3.11.10 15. वही 49.7.10 16. वही 48.10.6 17. वही 51.1.2-8 18. वही 31.3.1-7.