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________________ अपभ्रंश भारती सुंसुपर - धोर - घुरघुरुहरन्ति । करि - मयरड्डोहिय - डुहुडुहन्ति । डिण्डीर - सण्ड - मण्डलिउ देन्ति । दद्दुरय - रडिय - दुरुदुरुदुरन्ति । कल्लोलुल्लोलहिं उव्वहन्ति । उग्घोस - घोस घवघवघवन्ति ॥ पडिखलण-वलण-खलखलखलन्ति । खलखलिय-खडकक-खडकक देति ॥ ससि-सङ्ख कुन्द-धवलोज्झरेण । कारणडुड्डाषिय - उम्वेरण ॥18 गोदावरी नदी का एक अद्भुत गतिशील बोलता चित्र स्वयंभू के काव्य में ही हो सकता था। इसमें गति कहीं ध्वनि से मूर्त हुई है तो कहीं रंग से और कहीं ज्यामितीय कोणों और स्थितियों में वह रुक सी गई है । वेग से बहते जल का नाद जब घड़ियाल के मुंह से निकलता है तो नदी घुरघुराने लगती है, जब मेंढ़कों के गले में भर कर बाहर आता है तब वह दुरदुराने लगती है। तरंगों में गति के फूटने से वह छपछपाती है, मोड़ों पर मुड़ते हुए और झरनों के गिरने पर खलखलाती है और चट्टानों पर बहते हुए सरसराती है। इस संगीत के बीच नदी की गति भी समतल नहीं रहती, वह चढ़ती-उतरती है। हाथियों और मगरों के क्रीड़ा-पालोड़न से उठते-गिरते वेग के रूप में नदी हडुहाने का शब्द करती है और वह भंवर की भांति फैलते-मुड़ते फेन उगलती जाती है । इस आवाज और चाल के साथ-साथ नदी का एक रंग भी है जो शंखों, चन्द्रमा और कुन्द के श्वेत पुष्पों से मिलकर उजलाता है और मछलियों के शल्कों की चमक व उनकी उछल-कूद से कौंधता जाता हे-श्वेत पर धवलिमा की कौंध, कुछ पीताभ श्वेत और दुग्ध धवल, सबसे मिलकर एक उठता हा प्रकाश का भभूरा जिसने गति का पकड़ना भी असंभव बना दिया है। नदी वेग में बदल गई है । रूप में यह चित्र मिश्रित है, इसमें रेखाएं हैं, रंग हैं, ध्वनि है, गति है और प्रकाश है, अर्थ में यह संश्लिष्ट है । ऐसा चित्र कवि तभी दे सकता है जब उसकी चेतना अनेक प्रकार के इन्द्रियबोध के स्तर पर एक साथ सक्रिय हो सके, संष्लिष्ट रूप से कार्य कर सके ऐसे चित्र स्वयंभु के व्यक्तित्व और उसकी दृष्टि की समग्रता के परिचायक हैं। निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि कवि स्वयंभू ने सभी प्रकार के काव्य चित्र खड़े किए हैं वे रूप, रंग, रेखा सभी दृष्टियों से अनुपम हैं। इनके विषय विविध हैं, कुछ में प्रकाश की झलक है कुछ में छाया का बिखराव, कहीं रंगों की भास्वरता है तो कहीं नाद की लय । कुछ चित्र एकायामी हैं और कुछ अनेकायामी । इन चित्रों द्वारा प्रत्यक्ष प्रभाव, मूर्तिमत्ता की सृष्टि हई है। ये पाकर्षक और मोहक चित्र चमत्कार के माधन नहीं हैं। इनसे अर्थ अधिक गहरा, संवेद्य और सृजनशील हुआ है। कवि ने जहां प्रकृति के विराट् चित्र दिए हैं और धरती तथा प्राकाश में धरती के जो चित्र प्रस्तुत किए हैं, उन्हें एक कर दिया है। वहां सहजता से ही यह अर्थ अनुभूत होता है कि सिद्धान्त और व्यवहार के एकरूप होने में ही पूर्णता है। उच्च ने निम्न को क्रोड में समेट लिया है और निम्न शिवरगामी हो गया है । इसी तरह प्राथमिक रंगों की संयोजना अनायास ही इस दार्शनिक विचार की अनुभूति करा देती है कि प्रपंच का मूल कारण प्रपंच में भी है और प्रपंच से परे भी। स्वयंभू ने अनेक दीखनेवाले विरोधी रंगों को एक पाश्रय में सम्पूरक रूप में इस प्रकार नियोजित किया है कि उनका विरोध मिट गया है और सहयोग विस्तृत व गहरा हो गया है—एक संपूर्ण सृजन जो घटने-बढ़ने से घटता-बढता नहीं है। स्वमंभू के काव्य-चित्रों में अनुभूति और विचार,
SR No.521851
Book TitleApbhramsa Bharti 1990 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1990
Total Pages128
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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