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________________ अपभ्रंश-भारती क्योंकि देशी भाषाओं का भी यही भाग्य है। यह काल का उपांग ही बना रहा-'इससे अनेक अनिश्चय की अर्थ छवियाँ प्रस्तुत हैं, यहां तक कि आसन्न भविष्यत् भी....कृदन्त और क्रियापद के संयोग से 'काल' वैविध्य को प्रकट किया गया है। भूतकालिक कर्मवाच्यकृदन्त 'पासी' के साथ मिलकर पूर्ण भूत का भाव प्रकट करता है और 'सि' के साथ मिलकर पूर्ण वर्तमान का।'5 1.2 'पक्ष' एक अत्यन्त जटिल और उलझनभरी व्याकरणीक कोटि है। इसके लिए 'वृत्ति', 'दशा'7, और 'प्रकार' आदि पर्यायों का प्रयोग प्रचलित है। यह 'काल' और 'वृत्ति' से प्रायः मिश्रित दीख पड़ता है, इसीलिए डॉ. ज.म. दीमशित्स ने पक्ष' को काल का आश्रित कहा है, फिर भी 'काल' के साथ 'पक्ष' की उपस्थिति क्रिया को बहुत अधिक स्पष्टता तथा संबंधित समय में कार्य संपादन के सूक्ष्म भावों को व्यक्त करने की सामर्थ्य प्रदान करती है। 'काल' क्रिया की रूपरचना को प्रभावित करता है और 'वृत्ति' तथा 'पक्ष' वाक्य संरचना को। आधुनिक आर्य भाषाओं को 'योजक' और 'रंजक' क्रियानों की विशिष्टता प्राप्त होने के कारण 'पक्ष' की पहचान सरल है, फिर भी इनके परंपरागत व्याकरण इस बारे में सर्वथा मौन हैं। उन्होंने 'पक्ष' को विचार के योग्य भी नहीं समझा है। वे 'पक्ष' को 'काल' में ही निहित मानते हैं-'क्रिया के उस रूपान्तर को काल कहते हैं जिसमें क्रिया के व्यापार का समय तथा उसकी पूर्ण व अपूर्ण अवस्था का बोध होता है।' 'संस्कृत में भी 'काल' की निश्चित अभिव्यक्ति पर जोर नहीं दिया जाता था।'10 प्राचीन, आर्य भाषाओं में कालभेद के लिए क्रिया का वास्तविक रूप था ही नहीं, वहां भी पूर्णत्व, अपूर्णत्व, समयनिष्ठ, अव्याहत, पुनरार्थक, उपक्रामक, सातत्य द्योतक, प्रगति द्योतक, समाप्ति द्योतक आदि विभिन्न क्रियारूपों द्वारा 'काल' के सूक्ष्म भेदों को प्रकट किया जाता था। इनके द्वारा ही धीरे-धीरे 'काल' प्रणाली का विकास हा जिसका प्राचीन आर्यभाषाओं में दर्शन होता है।'11 भारोपीय भाषाओं में क्रियानों के सम्पन्न होने के क्षण (भूत, वर्तमान और भविष्यत्) का महत्व नहीं था, आवश्यक यह था कि क्रिया की कल्पना उसकी प्रगति की दृष्टि से हई है अथवा विकास की किसी निश्चित अवस्था की दृष्टि से, और क्या यह अवस्था प्रारंभिक काल की थी अथवा अंतिम काल की, या क्रिया केवल एक बार हुई या बार-बार, क्या उसकी समाप्ति हुई या उसका कुछ परिणाम हुआ या नहीं।12 1.3 'पक्ष' की पृथक् व्याकरणीक कोटि के रूप में संकल्पना और पहचान अभी अर्ध दशक से बनी है। इसके तात्विक विवेचन का प्रारंभ 'कामरी' की 'एस्पेक्ट' पुस्तक के प्रकाशन के साथ हया है, वैसे 'रूसी' प्रभृति 'रोमांस' भाषाओं में क्रिया के रूपान्तरण द्वारा पूर्णता-अपूर्णता आदि 'पक्ष' विभेदों को प्रदर्शित करने की पहल विद्यमान थी। आज भी इन भाषाओं में 'काल' की अपेक्षा 'पक्ष' की चेतना प्रधान है। 'स्लाव' भाषाओं में पाए जानेवाले 'पक्ष' संबंधी विभिन्न प्रकार्यों की चर्चा करते हुए जर्मन विद्वानों ने विशेषरूप से इस बात पर बल दिया है कि 'पक्ष' के दो निश्चित आयाम हैं। पहले आयाम का संबंध 'पक्ष' के वस्तुपरक संबंध से है जिसे क्रियार्थ का समय संबंधी प्रक्रिया विधि (प्राक्शन सार्ट) कहा जाता है। दूसरे पायाम का संबंध 'पक्ष' के भावपरक संदर्भ से है। ‘पक्ष' की वास्तविक स्थिति ये भावपरक संदर्भ तक ही मानते हैं। वास्तविक 'पक्ष' का संबंध उस समय की अभिव्यक्ति के साथ
SR No.521851
Book TitleApbhramsa Bharti 1990 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1990
Total Pages128
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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