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अपभ्रंश-भारती
मालोच्य कवि की भाषा में ऐसे भी दो स्वरों के संयोग प्राप्त होते हैं जिसमें से कोई एक स्वर सानुनासिक होता है । इस प्रकार के प्राप्त उदाहरणों में अधिकांशतः परवर्ती स्वर ही सानुनासिक हैं, यथा
इउं - किउं,205 सेठिउं206 प्रई - पइं,198 मई14
इएं - केयइएं,207 मिलिएं208 प्रबं - अवसाणउं,195 डउं196
ईएं - जीएं209 अएं - तेहएं,197 एहएं198
उएं - मुएं210 प्राइं- णाई,199 वण्णाइ200
प्रई - गिद्धई। माउं- जाउं201
ऊएं - समूएं,212 हूएं21 प्राएं - धाएं,202 कसाएं208
एएं - तेएं214 ईनं - वी4204
पोएं- विच्छोएं,215 विनोएं216 उपर्युक्त उदाहरणों में प्रायः सभी परवर्ती अनुनासिक स्वर ह्रस्व ही हैं, केवल एक दीर्घ अनुनासिक स्वर 'पउमचरिउ' में उपलब्ध है जिसे उक्त उदाहरणों में दिखाया गया है। ऐसे विलक्षण प्रयोग कवि की भाषागत विशिष्टता के ही द्योतक हैं।
अनुच्चरित प्र (s)
आलोच्य कवि की भाषा में अनुच्चरित (s) का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है जिसे संस्कृत में प्रवग्रह (5) कहते हैं यथा
जालऽसणि,17 पाऽवलक्खणु,18 तावऽण्णेक्कें,219 झीणाऽवुह220 धण्णोऽसि,921 मायण्णेक्क,222 आदि । स्पष्टतः इस प्रकार के प्रयोग उनके संस्कृत ज्ञान का ही परिचायक है।
मालोच्य कवि की भाषा में पदान्त तथा अपदान्त अनुस्वार का बहुलता से प्रयोग होने के साथ ही अपदान्त अनुस्वार के लिए परसवर्ण का प्रयोग भी देखने को मिलता है यथा
लङ्का,223 अङ्गारउ,224 अङ्ग; 225 दण्ड,226 पवणञ्जयासु,227 प्रादि सहश प्रयोगों से स्पष्ट होता है कि अपभ्रंश में भी यह नियम विद्यमान था और न्यूनाधिक मात्रा में प्रयोग
भी होता था किन्तु मुख्य रूप से अपभ्रंश में अनुस्वार-प्रवृत्ति की ही प्रधानता थी। .. व्यंजन लोप होने पर क्षतिपूत्यर्थ तत्पूर्ववर्ती स्वर के अन्त में भी अनुस्वार का मागम हो जाता है । इसी कारण से स्वर दीर्घ नहीं होता । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं
अंसु <अश्रु,228 दसण <दर्शन229
आलोच्य कवि की भाषा में सकारण सानुनासिकता के अतिरिक्त अकारण सानुनासिकता के सदृश प्रयोग भी हैं। पुराने पालोचक भी अकारण सानुनासिकता की बात करते हैं, वैसे ये छन्द के आग्रह के कारण भी हैं और विभक्ति विपंयय के कारण भी। सुग्गीवें रामेंलक्खणे <सुग्रीव, राम, लक्ष्मण,230 “सुरपुरं <सुरपुर,231 सूलं <त्रिशूल282 जिणालयं<जिणालय:33 ।