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अपभ्रंश-भारती
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निरनुनासिकीकरण
अपभ्रंश में अनुनासिकीकरण के विपरीत निरनुनासिकीकरण की भी प्रवृत्ति देखी जाती है । यह प्रवृत्ति क्षतिपूर्ति या समीकरण के फलस्वरूप है। कहीं-कहीं शब्द फैल भी गया है।
खग्ग <खंग,234 भउ <भौं,235 सीहणाय <सिंहनाद286
स्वर परिवर्तन
स्वर-परिवर्तन की विविधता और बहुलता के कारण ही अपभ्रंश भाषा के व्याकरण में प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रंश' जैसे सूत्र का निर्माण कर किसी स्वर के स्थान पर किसी भी स्वर के हो जाने का नियम बताया। इस प्रकार की प्रवृत्ति पालोच्य कवि की भाषा में बहतायत से देखी जाती है, यथा- .
प्र>मा
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महिष>महिसा237 सुन्दर>सुन्दरि238 चंचलचित्त>चंचलचित्ती239 जस्स>जासु 240 तत्र> तेत्थु241 मित्र> मित्ते242 पलट>पलोट्ट 248 समवसरण> समोसरणु पाताल>पयाल245 खारा>खारइ246 इयत> एत्तिय47
उ> उ> ऊ>उ
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ज्योतिषी>जोइस248 मंदोदरी>मंदोयरि249 सुन्दरी>सुन्दरेण250 बन्धु>बन्ध261 जम्बु> जम्बू252 पूर्ण>पुण्ण258 नेत्र>णयण254 धरणेन्द्र>घरणिन्द255 भोग> मुत्त256
अ>मो म>मो मा> मा>
प्रो>उ
. 'ऋ' का विवेचन वर्णविकार शीर्षक के अन्तर्गत सविस्तार किया जा चुका है अतएव यहां उसका पिष्टपेषण करना समीचीन नहीं।
उक्त विवेचित स्वर-परिवर्तन के अतिरिक्त मालोच्य कवि की भाषा में कुछ और भी परिवर्तन द्रष्टव्य हैं जिसमें स्वरलोप और स्वरागम प्रमुख हैं, यथा
स्वर लोप मादिस्वर लोप
महम> हर्ष,257 माक्रन्दन>कन्दन्ति:58 मध्यस्वर लोप
कार्य> कज्ज,259 मांस>मंस260