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अपभ्रंश-भारती
विकसित करने का श्रेय स्वयंभू को है। डॉ. भायाणी ने भी स्वयंभू की भाषा की व्याकरणिक संरचना का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया ।
शब्दों के रूपों में तत्कालीन ध्वनि प्रक्रिया का प्रभाव पड़ा है, जैसेन के स्थान पर ण - नारायण - णारायण के स्थान पर
- ज्ञान
- गाण म के स्थान पर व - हरिदमन -- हरिववण
-- प्रणाम - पणवेप्पिणु इसका विपरीत भी व के स्थान पर म - परिवृत्त - परिमिय
- सिविर
-सिमिर .
इस प्रकार 'रणकार' युक्त शब्दों की भरमार मिलती हैआदि
णर, णारायण, णीसरन्त मध्य
विण्णि, भिण्ण, पहाणेहि अन्त - संघारण, भिण्ण । संधि होकर भी नये शब्दरूप बन गये हैंण + पायउ
= णायउ (न आया)
जड पुणु कहवि तुल लग्गें णायउ । ण + प्रावमि
णावमि (न पाऊँ), जइ एम वि णावमि । . ण + आणमि
णाणमि (न लाऊँ),
जइ णाणमि तो सत्त मए दिणे। इस प्रकार न (नकारात्मक) युक्त शब्दरूप पर्याप्तरूप में प्रचलित हो गये। पर यह प्रवृत्ति अन्य शब्दरूपों में भी मिलती है, जैसेपडल + प्रोवरे
पडलोवरे (पटल के ऊपर)
चामीयर-पडलोवरे अवर + एक्कु
प्रवरेक्कु (ऊपर एक)
अवरेक्कु रणंगणे दुज्जयासु । पर + पाइउ (व)
पराइउ (व) (पर आये)
सिद्धत्थु पराइउ । किंचित् + उठ्ठियो
किंचिदुट्ठिो (किंचित् उठा हुआ)
विहि वि किंचिदुट्ठियो । कत् + दिवसु
कदिवसु (किसी न किसी दिन)
कद्दिवसु वि अवस पयाणउ । संधि की इस वृत्ति से तथा प्रांतरिक स्वरों की संधि से नये-नये शब्दों का विकास हुआ।