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स्वयंभू की भाषा-शब्द-सम्पदा
-प्रो. कैलाशचन्द्र भाटिया
अपभ्रंश भाषा के इतिहास में महाकवि स्वयंभू का अप्रतिम स्थान है । निर्विवाद रूप से अपभ्रंश के सर्वश्रेष्ठ कवि स्वयंभू हैं। आप महाकवि, कविराज, कविराज चक्रवर्ती जैसी उपाधियों से विभूषित थे। स्वयंभू को जहाँ अपभ्रंश का प्रथम महाकवि होने का श्रेय है वहाँ सर्वाधिक यशस्वी कवि रहे हैं । महापंडित राहुल सांकृत्यायन जैसे विद्वान् ने स्वयंभू को हिन्दी का प्रथम कवि एवं पउमचरिउ को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य स्वीकार किया है । संस्कृत काव्य-गगन में जो स्थान कालिदास का है, हिन्दी में तुलसीदास का है, प्राकृत में जो स्थान हाल ने प्राप्त किया, अपभ्रंश के सारे काल में स्वयंभू वही स्थान रखते हैं । डॉ. नामवर सिंह तो स्वयंभू को अपभ्रंश का वाल्मीकि मानते हैं । अपभ्रंश को साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता उनके ग्रंथों-पउमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ, तथा स्वयंभूछन्द से मिली जिनमें मानव-जीवन का बड़ा स्वाभाविक, रसपूर्ण, मनोहारी तथा हृदयस्पर्शी वर्णन किया गया है । जनभाषा के स्तर से उठाकर इस भाषा को महाकाव्य के स्तर तक पहुंचाने का श्रेय स्वयंभू को ही है।
विद्वान याकोवी ने 'भविसयत्तकहा' में कहा कि उस समय अपभ्रंश एक मिश्रित भाषा थी जिसमें शब्दकोश का अधिकांश साहित्यिक प्राकृतों से ग्रहण किया गया और व्याकरणिक गठन देश्य भाषाओं से । शब्दावली भी देश्य ग्रहण की गई जिसपर संक्षिप्त वि बाद में प्रस्तुत करेंगे । राहुलजी ने उसी तथ्य को प्रकारान्तर से इस प्रकार कहा कि अपभ्रंश ने नये सुबन्तों और तिङन्तों की सृष्टि की। ऐसी उस युग की विकसनशील भाषा को पूर्णतः