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अपभ्रंश भारती
(iv)
जनपदीय भाषाओं की पारिभाषिक श्रोर तकनीकी शब्दावली दबी रह गई, उनके लिए नए कोश उभर कर प्राए जो शिक्षा पर भार बन गये । इतिहास और परम्परा की कड़ियां ही भटक गईं, हमारी पहचान खो गई ।
अपभ्रंश भाषा की संभावनाएं विशाल हैं । लोकजीवन की ऐसी कोई विधा नहीं जो यहां न हो । कवि स्वयंभू प्रथम अपभ्रंश कवि हैं जिनका साहित्य हमें उपलब्ध है, इससे पूर्व के कवियों के नामोल्लेख तो प्राप्त होते हैं परन्तु कोई कृति नहीं मिलती। इस प्रकार महाकवि स्वयंभू अपभ्रंश के 'आदिकवि' हैं। लोकभाषा अपभ्रंश को उच्चासन पर प्रतिष्ठापित करने वाले कवि हैं स्वयंभू । अपभ्रंश का कोई भी परवर्ती कवि स्वयंभू के प्रभाव से मुक्त नहीं रह सका । वे असाधारण प्रतिभा के धनी थे । पउमचरिउ, रिट्ठमिचरिउ और स्वयंभूछन्द कवि स्वयंभू की तीन रचनाएं हैं । पउमचरिउ का विषय रामकथा है और रिट्ठणेमिचरिउ का हरिवंश की कथा | स्वयंभूछन्द छन्दों से सम्बन्धित कृति है । इनमें प्रथम दो महाकाव्य हैं । पउमचरिउ व स्वयंभू छन्द पूर्ण प्रकाशित हैं, रिट्ठमिचरिउ का कुछ अंश प्रकाशनाधीन है । इन काव्यों से स्वयंभू की काव्यप्रतिभा, प्रभावशीलता, मौलिकता और जनभाषा के प्रति उनकी अगाध निष्ठा का परिचय मिलता है ।
अपभ्रंश साहित्य अकादमी अपनी शोध पत्रिका 'अपभ्रंश भारती' का प्रथम अंक स्वयंभू - साहित्य पर प्रकाशित कर उस महान् साहित्यसाधक के अवदान को जन-जन तक पहुँचाना चाहती है । यह प्रथम अंक स्वयंभू की रचना 'पउमचरिउ' पर श्राधारित है ।
ज्ञानचन्द्र बिन्दूका संयोजक अपभ्रंश साहित्य अकादमी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र महावीरजी