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अपभ्रंश भारती
हनुमान विनयपूर्वक श्रीराम से कहता है कि उसकी गिनती सुग्रीव जैसे सुभटों में वैसी ही है जैसी सिंहों के बीच में कुरंग की ।
तहि हउ कवणु गहणु किर केहउ । सीहहुं मज्भे कुरंगमु जेहउ ॥ 45.14.7
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चंद्रनखा लक्ष्मण की तलवार सूर्यहास को देखकर वैसे ही एकदम त्रस्त हो उठी मानो व्याध के तीरों से ग्राहत कुरंगी हो ।
लक्खण-खग्गु णिएवि परगट्ठी । हरिरिण व वाह-सिलीमुह-तट्ठी ॥ 50.3.8
कहीं-कहीं बंदर, बैल, सूअर, कुत्ता प्रादि प्रारिण-बिंब भी स्वयंभू के काव्य में मिलते हैं ।
पक्षियों में विशेष रूप से मयूर का बिब स्वयंभू द्वारा प्रयुक्त हुआ है ।
हनुमान के प्रानंदघोष को सुनकर सेना में श्रानंद छा गया, मानो मेघ के गरजने पर मयूर संतुष्ट हो उठा हो ।
गज्जऍ गं परितुट्ठ सिहि । 45.11.7
पशु-पक्षियों के अतिरिक्त जंतुनों के बिंब भी स्वयंभू ने व्यवहृत किये हैं जिनमें सर्वाधिक प्रयोग सर्प का हुआ है ।
रात में जलते हुए दीपक शेषनाग के फण मणियों की तरह चमक रहे थे । कहि मि दिव्व दीवय-सय वोहिय । फरिण मरिणश्व पजलंत-सु-सोहिय ।
23.9.5
नलकूबर का कुमार अपना कवच उसी प्रकार उतार देता है जिस प्रकार सांप अपनी केंचुली को ।
ras कंचु मुक्कु भुनंगे । 26.17.8
चंद्रनखा की लंबी केशराशि कटिभाग तक ऐसी फैली थी मानो सर्पसमूह चंदनलता से लिपट गये हों ।
रणं चंदरण - लयहें भुनंग लग्ग । 37.3.2
सर्प -बिंब का प्रयोग कवि ने बार-बार किया है ।
उपर्युक्त बिंबों के अतिरिक्त स्वयंभू ने कुछ ऐसे बिंबों का उपयोग किया है जो उनके अनुभवों की व्यापकता एवं प्रतिभा की बहुमुखी ग्रहणशीलता का परिचय देते हैं ।
विस्तार से बोध के लिए स्वयंभू बार-बार सुकवि के काव्य का बिब प्रस्तुत करते है ।
तहि पट्टणे बहु-उवमहँ भरियएँ णं जगे सुकइ-कब्वे वित्थरियए ।
47.1.12