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________________ अपभ्रंश भारती 91 ..................."णं णारिहें अणुहरिय रिणम्रोएं ॥ दीहर-पंथ-पसारिय चलणी । कुसुम-रिणयत्थ-वस्थ साहरणी ॥ खाइय-तिवलि-तरंग-विहूसिय । गोउर-थरणहर-सिहर-पदीसिय ॥ विउलाराम-रोम-रोमांचिय । इंदगोव-सय कुंकुम-अंचिय ॥ गिरिवर-सरिय-पसारिय-वाही। जल-फेरणावलि-वलय-सणाही ॥ सरवर-रणयरण-घरांजण-प्रंजिय । सुरधणु भउह पदीसिय पंजिय ॥ देउल-वयण-कमलु वरिसेप्पिणु । वर-मयलञ्छरण-तिलउ छुहेप्पिणु ॥ णॉइ णिहालइ दिरणयर-दप्पण । एम विणिम्मउ सयलु वि पट्टण ॥ 28.5. 1-8 पौराणिक बिंबों में समुद्र-मंथन का बिंब स्वयंभू ने बार बार प्रस्तुत किया है । स्वयंभू के काव्य में प्रयुक्त बिंबों का विवेचन करने पर स्पष्ट है कि स्वयंभू का बिबचयन क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। वे विशाल ब्रह्माण्ड के विविध क्षेत्रों से बिंबों का चयन करते है। इनमें एक ओर परम्परागत बिंबों का ग्रहण है, दूसरी ओर स्वानुभूति की झांकी । पउमचरिउ, स्वयंभू, सं.-डॉ. एच. सी. भयाणी, प्र.-भारतीय ज्ञानपीठ, भाग 1 (तृतीय संस्करण 1975) भाग 2 (प्रथम संस्करण 1958) भाग 3 (प्रथम संस्करण 1958) भाग 4 (प्रथम संस्करण 1969) भाग 5 (प्रथम संस्करण 1970) '
SR No.521851
Book TitleApbhramsa Bharti 1990 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1990
Total Pages128
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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