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अपभ्रंश-भारती
अपभ्रंश-भाषा में प्राकृत की अपेक्षा दो स्वर-ध्वनियां अधिक हैं और वे हैं-हस्व ऐ मौर ह्रस्व प्रो।
पहले हम संकेत कर चुके हैं कि किसी भी भाषा की ध्वनियों का अध्ययन दो वर्गों में रख कर किया जा सकता है-1. स्वर तथा 2. व्यंजन ।
अपभ्रंश में 11 स्वर तथा 29 व्यंजन व्वनियां हैं, इस प्रकार से अपभ्रंश भाषा में वर्णों की कुल संख्या 40 है।
साहित्यिक अपभ्रंश के ध्वनि-समूह को देखने के पश्चात् जब हम स्वयंभूदेव की भाषा को देखते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि उनकी भाषा में उन सभी ध्वनियों का प्रयोग हुआ है जो परिनिष्ठित अपभ्रंश में मान्य थीं। किन्तु पालोच्य कवि की भाषा में कुछ ऐसी भी ध्वनियां प्रयुक्त हई हैं जो मान्य ध्वनियों की कोटि में नहीं पातीं यथा , ज, ष तथा क्षु ध्वनि । इस प्रकार से पालोच्य कवि की भाषा में वर्णों की कुल संख्या 44 है । स्वयंभूदेव द्वारा प्रयुक्त स्थर-ध्वनियों का विवेचन स्वर ध्वनियाँ मूल स्वर
ह्रस्व-अ, इ, उ, ऐं, मों दीर्घ-पा, ई, ऊ, ए, प्रो अनुस्वार-(-) ऐऔर प्रौ
संस्कृत की 'ऐ' अोर 'नो' ध्वनियां कवि की ध्वनियों में नहीं है, इससे यह प्रकट होता है कि या तो वे अपभ्रंश की प्रकृति के विरुद्ध हैं, उनका प्रयोग अपभ्रंश में भाषा बार नहीं पा पाया था। फिर भी हम उसकी तुलना में इन ध्वनियों का विवेचन करेंगे । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अपभ्रंश की ध्वनियाँ संस्कृत से आई हैं, अपितु उसका ध्वनि मंडार का उससे क्या मेल या विरोष है, यह देखना हैए/इ<ऐ, तेल्ल, भुवणेक्क, <मुवनैक, इन्दु <ऐन्द्र, जिह-जिह <जैसे-जैसे अथवा मह रूप में
__कइलास <कैलाश, वइयाकरण< वैयाकरण मो<ो
मोत्तिय <मौत्तिक,' सोमित्त <सौमित्र अथवा प्रउ रूप में
चउदह <चौदह, गउरी< गौरी10 ह्रस्वीकरण की प्रवृत्ति
हस्वीकरण अपभ्रंश की प्रवृत्तियों में से एक विशेष प्रवृत्ति रही है। इस प्रवृत्ति को. अपभ्रंश काव्यों में प्रचुरता से देखा जा सकता है। क्योंकि लघूच्चरित ह्रस्व वर्गों का प्रचुर प्रयोग ह्रस्वीकरण की प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं। इसी लघु उच्चारण के फलस्वरूप अपभ्रंश