SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाकवि स्वयंभूदेव की भाषा में प्रयुक्त स्वर-ध्वनियों का विवेचन -डॉ. कैलाशनाथ टणन किसी भाषा के विश्लेषण के पूर्व उसकी ध्वनियों का विशिष्ट ज्ञान परमावश्यक है। इस सम्बन्ध में जार्ज सैम्पसन का कथन है कि-ध्वनिशास्त्र से मनभिज्ञ- भाषाशास्त्र का अध्यापक उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार.शरीरविज्ञान से अनभिज्ञ डाक्टर । सन् 1877 में हेनरीस्वीट ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये थे-"ध्वनिशास्त्र का महत्त्व भाषा के समस्त प्रकार के अध्ययनों के लिए चाहे वह नितान्त सैद्धांतिक हो अथवा प्रयोगभूत-निविवाद परमाश्यक रूप में स्वीकार कर लिया गया है।" . ध्वनि-शास्त्र के अर्थ में प्राचीन भारत में 'शिक्षा' शब्द का प्रयोग प्रचलितप्राय था। व्याकरण और वेद के अध्येता के लिए तत्संबंधी शिक्षा का पूर्ण ज्ञान अनिवार्य माना गया था। ध्वनि-सिद्धांत का प्रतिसूक्ष्म विवेचन करनेवाले सर्वप्रथम वैयाकरण ही थे । इसका संबंध ध्वनियों से है । इसके अन्तर्गत मानव वागेन्द्रियों से निःसृत सार्थक ध्वनियों का विवेचनविश्लेषण, वर्णन एवं वर्गीकरण किया जाता है । वस्तुतः ध्वनिशास्त्र भाषा-तत्त्व का मूलाधार एवं मूलमंत्र है। प्रत्येक भाषा में कुछ सार्थक ध्वनियां होती हैं जो लिपि-विज्ञान में वर्ण कहलाती हैं। ये ध्वनियां स्वर और व्यंजन इन दोनों भागों में सदैव से ही विभक्त होती रही हैं। अर्थात् ध्वनियों का प्राचीनतम एवं बहु-प्रचलित वर्गीकरण स्वर और व्यंजन के रूप में ही मिलता है।
SR No.521851
Book TitleApbhramsa Bharti 1990 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1990
Total Pages128
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy