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जगत में जीव अकेला
"इउ घर इउ परियणु इउ कलत्तु", णउ बुज्झहि जिह सयलेहि चत्तु । एक्केण करणेव्वउ विहरकाले, एक्केरण वसेव्यंउ जल-बमाले । एक्केण बसेउ तह णिगोएँ, एक्केणरएव्बउ पिय-विनोऍ । एक्केण भमेव्वउ भव समुद्दे, कम्मोह जल भर रउद्दे। एक्कहो जे क्खु एक्कहो जे सुक्खु, एकहो जे बन्धु एकहो जे मोक्खु । एक्हो जे पाउ एक्कहो जे धम्मु. एक्कहो जे मरण एक्कहो जे जम्मु ।
गह तेसऍ विहरे सयण-सयाइँ णं तुक्कियइँ । पर वेण्णि सयाइ जीवहीँ दुक्किय-सुक्कियइँ ।
'यह घर, ये परिजन, यह स्त्री' - इनको सबने छोड़ा है, क्या यह नहीं जानते ? पकाल में अकेले ही विसूरते हैं और अकेले ही चिता में जलते हैं । निगोद में अकेले ही रहना होता है और प्रिय वियोग में अकेले ही धांसू बहाने पड़ते हैं । इस संसार में कर्म- जाल का मोह ऐसा ही है जैसे समुद्र के जलचर । उस रौद्र भवसागर में निस्सहाय ही भटकना होता है । सुख-दुःख, बन्ध-मोक्ष, धर्म-अधर्म, जन्म-मरण सब अकेले ही होगा। ऐसे संकट काल में कितने ही सगे-संबंधी क्यों न हों, कोई सहायक नहीं होता । अगर साथ देते हैं तो केवल दो ही, जीव के अच्छे-बुरे कर्म ।
पउमचरिउ 54.7.4-10