________________
82
अपभ्रंश भारती
- उभिय-धवल-छत्त-फेणुज्जलु। घय कल्लोल-चलंत महावलु ॥
रिउ-समुदु जं दिट्ट भयंकरु......."
25.16.2-5
चिंता, व्याकुलता तथा उत्साह की अभिव्यक्ति में कवि ने सागर का बिंब प्रस्तुत किया है। जैसे
चिता-सायरें पडियऍण जं मारुइ लधु तरण्डउ ।। 45.13.10 खोहिउ सायरो व लंका-रगयरी जाया समाउला। 51.12.1 जलहि व
उत्थल्ल । 51.11.9 वेल. समुदहों जिह उत्यल्लिय । 49.20.5 महि लंघेप्पिणु मयरहरु प्रायासहों णं उत्थल्लियउ । 11.8.9
कैकेयी-स्वयंवर का वर्णन करते हए कवि जलीय-बिंब का उपयोग करता है । जिस प्रकार समुद्र की महाश्री के सम्मुख नदियों के नाना प्रवाह पाते हैं उसी प्रकार उसके स्वयंवर में अनेक राजा पाए।
पाइँ समुद-महासिरिहे थिय जलवाहिरिण-पवाह समुह । 21.2.10 दशरथ के चार पुत्र भूमंडल के लिए चार महासमुद्र थे
पाइँ महा-समुद्व महि - भायहों। 21.5.1 भरत को राम वनगमन का समाचार मिलता है तो वे तुरंत मूछित हो जाते हैं । सब लोग ऐसे कातर हो उठते हैं मानो प्रलय की आग से संतप्त होकर समुद्र ही गरज उठा हो
पलयाणल-संतुत्तु रसेवि लग्गु ण सायरु । 24.6.9
समुद्र-संबंधी असंख्य बिंबों का स्वयंभू ने अपने काव्य में उपयोग किया है । समुद्र के साथ ही नदी-संबंधी बिब भी हैं। नदियों का सागर की ओर उमड़कर पाना भी बिंबविधायक है।
वलय (पावर्त और चूड़ी) से अंकित, गोदावरी नदी मानो धरतीरूपी नव-वधु की कुलपुत्री हो जो अपने प्रिय समुद्र के आगे मुक्ताहार लिये अपना दायां हाथ पसार रही थी।
फेणावलि - बंकिय वलयालंकिय णं महि - कुलवहरणमहे तरिणय । जलणिहि - भत्तारहों मोत्तिय-हारहों वाह पसारिय वाहिरिणय ॥
31.3.8 स्वयंभू ने गंगा, गोदावरी और नर्मदा नदी के बिंब प्रस्तुत किये हैं।
जीवन की नश्वरता, लक्ष्मी (संपत्ति) की चंचलता, यौवन की अस्थिरता को व्यंजित करने के लिए भी जलीय बिंब प्रयुक्त हुए हैं।