________________
84
अपभ्रंश भारती
पसरह जेम जोह मयवाहहो । .. ..
. . ."पसरइ जेम रासि गहे सूरहों। अमर - महाधणु - गहिय - कर मेह - गइंदें चडेवि जस - लुद्धउ ॥ उप्परि - गिम्भ - रणराहिवहाँ पाउस - राउ णाई सण्णद्धउ ॥ 28.1
बार-बार बढ़ती हुई भयंकर चंद्रनखा ऐसी लगती थी मानो बादलरूपी दही को मथ रही हो, या तारारूपी सैकड़ों बुबुद बिखर गये हों, या शशिरूपी नवनीत का पिंड लेकर ग्रहरूपी बच्चे का पीछा लगाने के लिए दौड़ पड़ी हो । मानो वह आकाशरूपी शिला को उठा रही थी या राम और लक्ष्मण रूपी मोतियों के लिए धरती और प्रासमानरूपी सीपी को एक क्षण में तोड़ना चाहती थी।
णं घुसलइ अन्भ चिरिड्डिहिल्लु । तारा-वुन्वुव-सय विड्डिरिल्लु । ससि-लोणिय-पिण्डउ लेवि धाइ । गह-डिम्भहों पोहउ देइ गाइँ॥
............"णं गहयल-सिल गेहइ सिरेण ॥ णं हरिबल-मोत्तिय-कारणेण । महि-गयण-सिप्पि फोडइ खरणेण ।। 37.1.4-7
हनुमान सीता से कहता है-"तुम्हारे वियोग में राम क्षयकाल के इंदु की तरह ह्रासोन्मुख हो रहे हैं । वे दसमी के इंदु की तरह अत्यंत दुर्बल और अशक्त शरीर हैं।"
इंदु व चवण-काले ल्हसिउ दसमिहें प्रागमणे जेम जलहि ।
खाम-खामु परिझोण-तणु तिह तुम्ह विप्रोए दासरहि ॥ 50.1.10 स्वयंभू के आकाशीय बिंबों में उपादानों की विविधता ही नहीं, प्रयोग की बहुलता भी है। 3. पार्थिव बिंब
आकाशीय तथा जलीय बिबों की भांति पार्थिव बिब प्रस्तुत करने में भी स्वयंभू सफल हुए हैं । पार्थिव बिंबों के अंतर्गत उन्होंने विशेष रूप से पर्वतों, वनों, वृक्षों, पुष्पों और फलों के बिंब प्रस्तुत किये हैं।
त्रिकूट नामक पहाड़ ऐसा दीख पड़ता है मानो सूर्यरूपी बालक के लिए धरतीरूपी कुलवधू अपना स्तन दे रही हो।
गिरि दिलृ तिकूडु जण · मरण - णयण - सुहावणउ ।
रवि डिम्भहों दिण्णु णं महि · कुलवहुअएं थणउ ।। 42.8.9 नाना प्रकार की वृक्षमालाएं कवि को ऐसी लगती हैं मानो धरारूपी वधू की रोमराजी हो।
कत्थ वि णाणाविह-रुक्ख-राइ । णं महिकुलबहुअहे रोम-राइ ॥ 36.1.8
दरबाररूपी वन शत्रुरूपी वृक्षों से सघन, सिंहासनरूपी पहाड़ों से मण्डित और प्रौढ़ विलासिनीरूपी लताओं से प्रचुर, अनन्तवीर्यरूपी बेलफल से युक्त, और अतिवीररूपी सिंहों से युक्त था।