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________________ जरा न जरी गय दिया जोव्वणु ल्हसिउ देव, .... .... .... पढमाउसु जर धवलन्ति प्राय । गइ तुट्टिय विहडिय संधि-बंध, णसुणन्ति कण्ण लोयग निरन्ध । सिर कम्पs मुहे पक्खलइ वाय, गय दन्त सरीरहों णट्ठ छाय । परिगलिउ रहिरु थिउ णवर चम्मू, मह एत्थुजे हुउ गं प्रवरु जम्मु । गिर-इ-पवाह ण वहन्ति पाय, .... - यौवन ढल गया और वे दिन बीत गए । पहले ही स्पर्श में सफदी पोतती जरा श्राती है । गति टूट चुकी है, सन्धि-बन्ध ढीले हो गए हैं। न कान सुनते हैं और न प्रांखों से दिखता है । सिर काँपता रहता है और वाणी मुंह में ही लड़खड़ाती रहती है। दांत टूट गए हैं और शरीर की शोभा क्षीण हो गई है। रक्त गलकर सूख गया है और चमड़ी ही चमड़ी बची है । मैं अब ऐसा बदल गया हूं मानो दूसरा जन्म हुआ हो । अब पर्वतीय नदी के प्रवाह सदृश पैर नहीं उठते हैं । पउमचरिउ 22.1.1-6
SR No.521851
Book TitleApbhramsa Bharti 1990 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1990
Total Pages128
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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