Book Title: Agam ek Parichay
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 સુરિ નગર आगम एकपरिचय युवाचार्य मधुकर मुनि Jain Education international For Rrivate & Personal use only ywww.jainelibrary,ghod Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय [जैन आगमों तथा उनके व्याख्या साहित्य का संक्षिप्त-सर्वांग परिचय ] T नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. O युवाचार्य श्री मधुकर मुनि :: प्रकाशक :: श्री आगम प्रकाशन समिति पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) ★ वि. सं. २०६३ आषाढ़ मुद्रक : मेहता ऑफसेट, ब्यावर ★ मूल्य दस रूपया मात्र : 01462-253990 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी महाराज के तत्त्वाधान में जैन आगमों का सरल-सारपूर्ण सम्पादन-विवेचनयुक्त प्रकाशन प्रारम्भ किया गया है। इस उपक्रम के प्रति सर्वत्र ही जिज्ञासा व प्रशंसा के भाव व्यक्त किये गये हैं। साथ ही अनेक व्यक्ति, जिनमें श्रावकों से लेकर विद्यार्थी, जैन विद्वान व अनेक अनुसंधित्सु भी है जो यह पुछते हैं कि जैन आगमों में क्या-क्या विषय हैं?, वे कितने हैं?, किसने बनाये हैं?, उनकी व्याख्या, टीका आदि क्या है? इस गूढ़ विषय में ऐसी जिज्ञासा होना सहज भी है। युवाचार्य श्री जी के समक्ष भी अनेक लोगों ने इस प्रकार की जिज्ञासा रखी। उनका समाधान भी किया गया। तभी आपश्री का चिन्तन रहा 'जैन आगमों का संक्षिप्त परिचय प्रत्येक व्यक्ति को सुलभ हो सके इसलिए कुछ लिखना चाहिए।' फलस्वरूप अपने गम्भीर अध्ययन-अनुशीलन के आधार पर आपश्री ने यह निबन्ध तैयार किया है। यद्यपि आकार में यह पुस्तक छोटी है, पर गागर में सागर की भांति इसका विषय बड़ा गहन व व्यापक है। आशा है पाठक इस पुस्तक का अध्ययन कर जैन आगमों के विषय में काफी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। इसो शुभाशा के साथ-- मन्त्री श्री आगम प्रकाशन समिति पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम-परिचय शास्त्र का महत्व आत्मा में विश्वास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है। इसके लिए वह अपनी आत्मा को पवित्र एवं दोषरहित बनाकर जन्म-मरण के चक्र से सदैव के लिए मुक्त होने की इच्छा रखता है। इस मुक्ति-प्राप्ति के लिए विशिष्ट साधना अपेक्षित होती है। संयम (इन्द्रिय-निग्रह), तपस्या, ध्यान, स्वाध्याय, परमात्म-स्वरूप का चिन्तन आदि इस विशिष्ट साधना के ही मार्ग है । इस साधना-मार्ग को सही ढंग से समझने और विधिपूर्वक साधना करने के लिए साधक को गुरू के मार्गदर्शन की अत्यन्त अपेक्षा रहती है । गुरू भी जो मार्गदर्शन साधक अथवा शिष्य को देते है, उसका आधार शास्त्रज्ञान ही होता है। इसलिए साधना की शुद्धि, परिपूर्णता, सफलता और ध्येय- प्राप्ति के लिए शास्त्रज्ञान ही प्रमुख आधार है। ___भारत ही नहीं, समस्त संसार के सभी धर्म-सम्प्रदायों में जितनी भी साधना-पद्धतियाँ प्रचलित हैं, उन सभी के आधार उन धर्म-सम्प्रदायों के शास्त्र हैं। उन शास्त्रों के आधार पर ही वे साधना-पद्धतियाँ प्रचलित हुई हैं और अभी तक चल रही हैं। शास्त्र का अर्थ ही है-जो आत्मा पर शासन करना सिखाये, आत्म-शिक्षा की प्रेरणा दे, वह शास्त्र है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय भारत की दो संस्कृतियाँ हमारे देश भारत में प्राचीन काल से ही मुख्यतः दो संस्कृतियाँ चल रही हैं-प्रथम, श्रमण संस्कृति और दूसरी, वैदिक अथवा वेदानुयायी संस्कृति। . वैदिक संस्कृति - वैदिक संस्कृति के सर्वाधिक प्राचीन और प्रमाणभूत ग्रन्थ चार वेद है। इन वेदों में विभिन्न देवीदेवताओं की प्रार्थनाएँ की गयी हैं और यज्ञ-याग आदि का बहुविध वर्णन है। इनके आधार पर ब्राह्मण और आरण्यक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें यज्ञ तथा कर्मकाण्ड का विस्तृत वर्णन और विवेचन है। फिर उपनिषद्, गीता, महाभारत, धर्मसूत्र और स्मृतियों की रचना हुई जो वैदिक धर्म-साधना और आचार-विचार के मार्गदर्शक ग्रन्थ माने जाते हैं । सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थों में यज्ञों की विशेष चर्चा होने से वैदिक-संस्कृति का प्रमुख स्वर यज्ञ-याग तथा वर्ण-व्यवस्था रहा। वर्ण-व्यवस्था की प्रधानता के कारण इसका दूसरा नाम ब्राह्मण संस्कृति भी पड़ गया। श्रमण-संस्कृति - दूसरी ओर श्रमण-संस्कृति थी। इसका प्रधान स्वर अहिंसा, आचार-विचार की पवित्रता और कर्मों से सर्वथा मुक्ति का रहा। आज से लगभग २५०० वर्ष पहले तथागत बुद्ध के भारतीय रंगमंच पर प्रवेश के साथ ही श्रमण-संस्कृति की दो धाराएँ हो गई। एक तो अपने मूल रूप में निर्ग्रन्थ श्रमणपरम्परा ही रही और दूसरी का नाम बौद्ध श्रमण-परम्परा पड़ गया। तथागत बुद्ध के शिष्य श्रमण, शाक्य अथवा बौद्ध कहलाने लगे। जबकि राग-द्वेष की ग्रन्थि से रहित अथवा इन ग्रन्थियों के Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] ___ समूल विनाश के लिए साधनारत एवं प्रयत्नशील साधक निर्ग्रन्थ श्रमण ही कहलाते रहे । वही निर्ग्रन्थ श्रमण संस्कृति और परम्परा आज 'जैनधर्म' के नाम से विख्यात है। निर्ग्रन्थधर्म के प्रणेता निर्ग्रन्थ अथवा जैनधर्म के आराध्य एवं उपास्यदेव वीतराग पुरुष होते हैं। वे सर्वज्ञ और हितोपदेशी भी होते हैं। वे महापुरुष पहले स्वयं वीतरागता (राग-द्वेषरहितता) की साधना द्वारा अपने आत्मिक दोषों को दूर करके तथा कर्मावरणों का क्षय करके, आत्म-साक्षात्कार करके सम्पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त कर लेते हैं, सर्वज्ञ बन जाते हैं; तब वे आत्म-साक्षात्कार में लोकालोक और जगत के जड़-जंगम, चर-अचर समस्त पदार्थों और उनके स्वरूप को प्रत्यक्ष देखने-जानने लगते हैं । इस प्रत्यक्षज्ञान के आधार पर वे साधकों के लिए तत्त्वज्ञान (दर्शन) और आचार-मार्ग (धर्म) का उपदेश एवं विधान करते हैं । उन प्रत्यक्षज्ञानियों अथवा सर्वज्ञों द्वारा प्ररूपित तत्त्वज्ञान और आचार-मार्ग को ही जैनधर्म में 'शास्त्र' माना जाता है। जैन परम्परा में 'शास्त्र' को 'आगम' कहा गया है। इसका दूसरा नाम 'गणिपिटक' भी है। इसी प्रकार तथागत गौतम बुद्ध की वाणी को आज 'त्रिपिटक' नाम से पहचाना जाता है। जैनधर्म और दर्शन के प्रणेता स्वयं में महान् साधक रहे हैं। वे कठोर साधना द्वारा समस्त कषायों का नाश कर, अज्ञानअविद्या को हटाकर, राग-द्वेष से सर्वथा मुक्त होकर और सम्पूर्ण Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ [जैन आगम : एक परिचय ज्ञानी बनकर विश्व के समस्त प्राणियों की हित-कामना से धर्म का कथन करते हैं। उनका प्रवचन जीव-मात्र की कल्याणकामना से ही होता है । जैसा कि प्रश्नव्याकरणसूत्र (संवरद्वार) में कहा गया हैसव्वजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं । -संसार के चर-अचर समस्त जीवों की रक्षा और दया (अनुकम्पा)की भावना से भगवान प्रवचन देते हैं। जैन आगमों की विशेषता जैसा कि बताया जा चुका है कि जैन आगमों के प्रणेता वीतराग महापुरुष होते हैं, जिन्हें न यश की कामना होती है, न पूजा-सत्कार की; वे तो प्राणीमात्र की हितकामना से ही धर्म का मार्ग बताते हैं और वह भी सरल-सुगम भाषा में; यही कारण है कि जैन आगमों में कहीं भी न वाणी-विलास के दर्शन होते हैं; न कल्पना की उड़ानें दृष्टिगोचर होती हैं और न बुद्धि को चकितभ्रमित करने वाले क्रियाकांड अथवा चमत्कारों का वर्णन ही मिलता है। वहाँ तो सरल भाषा में आत्मोत्थान का मार्ग प्ररूपित है, आत्मा की उन्नति की प्ररेणा है। जैन आगमों में आत्मा-परमात्मा के बारे में सूक्ष्मतम चिन्तन, साधना का अनुभूत मार्ग और प्रत्येक प्राणी के कल्याण-मार्ग का उपदेश ही प्राप्त होता है। उनमें साधक-जीवन का सजीव और यथार्थ दृष्टिकोण चित्रित है और है जीवनोत्थान की प्रबल प्रेरणा। उनमें आत्मा की शाश्वत सत्ता का उद्घोष करके उसकी सर्वोच्च विशुद्धि का मार्ग बताया गया है। उस विशुद्धि के लिए संयम Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] ___ साधना, आत्म-आराधना और मन-इन्द्रियों के निग्रह का उपदेश दिया गया है और सन्देश दिया गया है त्याग-वैराग्य से जीवन को चमकाने का। आत्म-विकास की साधना का नवनीत ही आगमों में प्राप्त होता है। आत्मा के सम्पूर्ण विकास की वैज्ञानिक प्रक्रिया तथा मानव व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास एवं उन्नयन की विचारणा जैन आगम साहित्य की प्रमुख देन है, जो विश्व साहित्य में अपना गौरवपूर्ण स्थान रखती है। ___आध्यात्मिक क्षेत्र में जैन आगम साहित्य जितना गुरु-गम्भीर है , उतना ही भौतिक क्षेत्र में भी है। आज की बहुत-सी आश्चर्यजनक वैज्ञानिक खोजों और उपलब्धियों के चिन्तन-बीज आज से २५०० वर्ष पूर्व के जैन आगमों में मिलते हैं । उदाहरणार्थपरमाणु-ज्ञान, वनस्पति, पेड़-पौधों में जीव होना, शब्द का व्यापक होना आदि सिद्धान्त । मध्यकाल तक इन बातों को विचित्र धारणाएँ समझकर मान्यता नहीं दी गयी थी, लेकिन आधुनिक विज्ञान ने उनको सत्य सिद्ध कर दिया है और वे गम्भीर वैज्ञानिक सत्य के रूप में स्वीकार कर लिये गये हैं। इस तथ्य से भी जैन आगम साहित्य की मौलिकता और 'प्रत्यक्षज्ञानी कथन' होने की सत्यता सिद्ध होती है। ___ मैं यहाँ आगमों की लम्बी और विस्तृत विवेचना तथा चर्चा न करके पाठकों को आगम साहित्य का सिर्फ संक्षिप्त परिचय ही देना चाहता हूँ। जिज्ञासु पाठक अपनी-अपनी रूचि और जिज्ञासा के अनुसार आगमों का अध्ययन कर अपनी जिज्ञासा शान्त कर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकते हैं । [ जैन आगम : एक परिचय आगम के पर्यायवाची शब्द आगमों के लिए ' आगम' शब्द तो बाद में प्रचलित हुआ पहले इस ज्ञान भण्डार के लिए 'सुय' अथवा 'श्रुत' शब्द का व्यवहार होता था । 'सुय' अथवा 'श्रुत' का शाब्दिक अर्थ है 'सुना हुआ' । अर्थात् तीर्थंकरदेव के श्रीमुख से सुना हुआ ज्ञान 'सुय' कहलाता था। चूँकि यह ज्ञान गुरु- परम्परा से सुनकर चलता था इसलिए भी ' श्रुत' अथवा 'सुय' कहलाता था । 'सुय' शब्द को ही कुछ संस्कृत व्याकरण - शास्त्रियों ने 'सूत्र' रूप दे दिया । 'श्रुत' शब्द के आधार पर ही प्राचीन काल में ' श्रुतधर' और 'श्रुतकेवली' आदि शब्द प्रचलित थे । सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, श्रुत आदि शब्द आगम के ही पर्यायवाची नाम हैं । 'आगम' शब्द की व्युत्पत्ति एवं परिभाषा आगम शब्द 'आ' उपसर्ग और 'गम्' धातु से बना है । 'आ' का अर्थ है - समन्तात् अथवा पूर्ण; और 'गम्' का अर्थ है - गति अथवा प्राप्ति; अर्थात् पूर्णता की प्राप्ति । आगम शब्द की परिभाषा बताते हुए रत्नाकरावतारिकावृत्ति में कहा गया है कि 'जिससे वस्तुतत्त्व ( पदार्थरहस्य) का परिपूर्ण ज्ञान हो, वह आगम है ।' और न्यायसूत्र में आप्त के कथन को आगम माना गया है । जैनदृष्टि से आप्त राग-द्वेषविजेता, जिन, सर्वज्ञ भगवान को Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] माना जाता है और उन्हीं की वाणी आगम है क्योंकि वीतराग होने के कारण उन्हीं की वाणी निर्दोष, पूर्वापरविरोधरहित, सर्वजनहितकारिणी एवं युक्ति तथा प्रमाण से अबाधित होती है। वीतराग भगवान अर्थरूप में उपदेश देते हैं और गणधर उनकी वाणी को ग्रन्थबद्ध अथवा सूत्रबद्ध करते हैं। जैसा कि आवश्यकनियुक्ति (गाथा १९२) में कहा गया है अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणा। सामणस्स हि यट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ॥ -अहिरंत अर्थरूप ज्ञान का उपदेश करते हैं, निपुणमति गणधर उसे सूत्ररूप में गूंथते है । इस प्रकार जिनशासन के हितार्थ सूत्र की प्रवर्तना होती है। इसी बात को व्यक्त करने के लिए आगमों में यत्र-तत्र 'तस्स णं अयमठे पण्णत्ते' (भगवान ने उसका यह अर्थ कहा है) इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। गणधरों के अतिरिक्त अन्य प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली, श्रुतस्थविर एवं चतुर्दश पूर्वधर, दश पूर्वधर श्रमणों द्वारा रचित शास्त्र भी प्रमाणरूप माने जाते हैं, तथा इनकी गणना भी आगमों में की जाती है। गणधर केवल द्वादशांगी की ही रचना करते हैं। शेष आगमों की रचना अन्य श्रुतधर श्रमणों द्वारा की जाती है। इनके प्रमाणत्व का आधार उनकी ज्ञान-वृद्धता के साथ यह भी है कि वे नियमतः सम्यक्दृष्टि एवं यथार्थज्ञानी होते हैं, जिस कारण उनके द्वारा रचित शास्त्रों में द्वादशांगी से कोई विरोध नहीं होता, वे जिन-प्रवचनसम्मत होते हैं । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० [जैन आगम : एक परिचय इनके अतिरिक्त यह भी मान्यता है कि गणधर भगवान के समक्ष जिज्ञासा प्रगट करते हैं कि तत्त्व क्या है (भगवं! कि . तत्तं?) तब भगवान उन्हें यह त्रिपदी प्रदान करते हैं -उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा (पदार्थ उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और स्थिर भी रहता है)। इस त्रिपदी के विवेचन-स्वरूप जिन शास्त्रों की रचना होती है, वे अंगप्रविष्ट कहलाते हैं और शेष शास्त्र अंगबाह्य। आगमों का वर्गीकरण (१) अंग एवं पूर्व - जिनवाणी किंवा जैन आगमों का सर्वप्रथम वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया-अंग और पूर्व । इस वर्गीकरण का सर्वप्रथम उल्लेख समवायांग में मिलता है। अंग बारह हैं, और पूर्व चौदह । __पूर्व समस्त श्रुत आगम साहित्य की मणि मंजूषा हैं । पूर्वो में प्रत्येक विषय पर गभ्भीरतम चर्चा की गयी है। नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि के अभिमतानुसार द्वादशांगी में पहले पूर्वो की रचना हुई, बाद में अंगों की। कुछ आधुनिक पाश्चात्य चिन्तकों का मत है कि पूर्वश्रुत भगवान महावीर से पहले भगवान पार्श्व की परम्परा की श्रुत राशि है। किन्तु जैन आगम साहित्य में पूर्वो को अंगों से पृथक नहीं माना जाता। बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' में समस्त चौदह पूर्वो को समाविष्ट माना गया है। जैन अनुश्रुति के अनुसार भगवान महावीर ने सर्वप्रथम पूर्वगत अर्थ का ही प्रवचन दिया था और उसे गौतमादि गणधरों ने पूर्वश्रुत के रूप में निबद्ध किया था। लेकिन पूर्वश्रुत Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] दुरूह एवं क्लिष्ट था और विशेष साधना तथा प्रखर बुद्धि की अपेक्षा रखता था, इसलिए साधारण-बुद्धि-साधकों एवं . अध्ययनकर्ताओं की सुविधा के लिए एकादशांगों की रचना हुई। यही अभिमत जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण का है । उन्होंने विशेषावश्यकभाष्य (गाथा ५५४) में लिखा है कि 'दृष्टिवाद में समस्त शब्द-ज्ञान का अवतार हो जाता है तथापि ग्यारह अंगों की रचना अल्पमेधावी पुरुषों एवं महिलाओं के हितार्थ की गयी है। भगवती (११.११/४३२ और १७/२/६१६) तथा अन्तगड (वर्ग ३, अध्ययन ९ एवं १) में स्पष्ट उल्लेख है कि प्रबल प्रतिभाशाली श्रमण पूर्वो का अध्ययन करते थे और अल्पमेधावी ग्यारह अंगों का। आचारांग आदि अंग ग्रन्थों की रचना से पहले समस्त श्रुत दृष्टिवाद के नाम से पहचाना जाता था और ग्यारह अंगों की रचना के बाद दृष्टिवाद को बारहवाँ अंग मान लिया गया। इस प्रकार द्वादशांगधारी और चतुर्दश पूर्वधर में कोई तात्त्विक भेद नहीं है, सिर्फ शब्द-भेद है। अंग बारह हैं(१) आचार, (२) सूत्रकृत्, . (३) स्थान, (४) समवाय, (५) भगवती, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय (६) ज्ञाताधर्मकथा, (७) उपासकदशा, (८) अन्तकृत्दशा, (९) अनुत्तरौपपातिक, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाक, और (१२) दृष्टिवाद। (२) अनुयोग विभाजन - भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् सुदीर्घ-काल तक यह पूर्व और अंगों का वर्गीकरण चलता रहा। साधक इसी रूप में अध्ययन करते रहे। अब तक सम्पूर्ण श्रुत अपृथक्त्वानुयोग में था। इसमें प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण-करण, धर्मकथा, गणित और द्रव्यानुयोग-यों, चारों दृष्टियों से साथ-साथ होती थी। किन्तु यह व्याख्या क्लिष्ट तथा दुरूह होती थी; तब आर्यरक्षित ने (वीर निर्वाण सं. ५९०) अध्ययन की सुविधा के लिए सभी आगमों का चार अनुयोगों में विभाजन कर दिया-(१) चरण-करणानुयोग (२) धर्मकथानुयोग, (३) गणितानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग। इस पृथक्त्वानुयोग से अध्ययन में सुविधा हो गयी। यह आगम साहित्य का दूसरा वर्गीकरण हुआ। यह वर्गीकरण केवल अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से था, आगमों का मूल रूप ज्यों का त्यों रहा। (३) अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य - आगम का यह वर्गीकरण Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] १३ वीर निर्वाण के लगभग ९०० वर्ष बाद देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के समय में हुआ। उन्होंने आगमों का इन दो रूपों में वर्गीकरण कर दिया। अंगप्रविष्ट के विषय में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने बताया कि (१) जो गणधर द्वारा सूत्ररूप में बनाया गया हो, (२) जो गणधर द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट हो, और (३) जो शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होने के कारण ध्रुव एवं सुदीर्घकालीन हो, वह अंगप्रविष्ट श्रुत कहलाता है । अंगबाह्य श्रुत वह कहलाता है (१) जो स्थविरकृत हो, तथा (२) बिना प्रश्न किये ही तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित हो । वक्ता के भेद की दृष्टि से भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत का वर्गीकरण किया गया है। अंगप्रविष्ट श्रुत वह है जिसके मूलकर्त्ता तीर्थकर और संकलनकर्त्ता गणधर हों, तथा अंगबाह्य अन्य स्थविरों की रचना होता है । अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का उल्लेख नन्दीसूत्र में मिलता है । - (४) अंग, उपांग, मूल और छेद आगमों का सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल और छेद, इन चार रूपों में किया गया है। आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थभाष्य में उपांग शब्द आया है । वहाँ उपांग से उनका अभिप्राय अंगबाह्य श्रुत से है । 1 1 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय विक्रम संवत् १३३४ में रचित प्रभावकचरित्र में सर्वप्रथम इस वर्गीकरण का उल्लेख मिलता है। उपाध्याय श्यामसुन्दर गणी ने अपने समाचारी शतक में भी इस वर्गीकरण का उल्लेख किया है। नियूंढ और कृत आगम __ रचना की दृष्टि से जैन आगमों का निर्माण दो प्रकार से हुआ है-(१) कृत (२) नियूंढ। जिन आगमों की रचना स्वतन्त्र रूप से हुई है वे कृत कहलाते हैं जैसे आचारांग आदि और समस्त उपांग साहित्य; तथा जिन आगमों की रचना पूर्वो तथा द्वादशांगी से उद्धृत करके हुई है वे नियूंढ आगम कहलाते हैं। नियूंढ आगम ये हैं-(१) आचार चूला, (२) दशवैकालिक, (३) निशीथ, (४) दशाश्रुतस्कन्ध, (५) बृहत्कल्प, (६) व्यवहार, (७) उत्तराध्ययन का परीषह अध्ययन। आगमों की भाषा आगमों की भाषा अर्द्धमागधी है, जिसे सामान्यतः प्राकृत कहा जाता है। तीर्थंकर भगवान इसी भाषा में उपदेश करते हैं। समवायांग में स्पष्ट लिखा है भगवं च णं अद्धमागहीए भाषाए धम्ममाक्खाइ। - भगवान अर्ध-मागधी भाषा में धर्मकथन करते हैं। तीर्थंकर भगवान के इस भाषा में धर्मोपदेश करने का कारण बताते हुए आचार्य हरिभद्र अपनी दशवैकालिकवृत्ति में कहते हैं Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] बालस्त्रीमंदमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थ सर्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृते कृतः ॥ - चारित्र की साधना-आराधना की इच्छा रखने वाले मन्दबुद्धि, बालक, स्त्री-पुरुषों पर अनुग्रह करके सर्वज्ञ भगवान सिद्धान्त की प्ररूपणा जन-सामान्य के हित के लिए सुबोध प्राकृत भाषा में करते हैं । १५ अर्द्धमागधी भाषा वस्तुतः मागधी और अठारह देशज भाषाओं का मिश्रण है। इस मिश्रण के कारण न यह पूर्ण रूप से मागधी है और न देशज; बल्कि अर्द्धमागधी है । यही भाषा भगवान महावीर के समय में जन सामान्य की सर्वप्रचलित भाषा थी । - आगम विच्छेद का क्रम भगवान महावीर के निर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् श्रुतकेवली आचार्य भद्रवाहु का स्वर्गवास हुआ। उनके स्वर्गवास के साथ ही अन्तिम चार पूर्व अर्थ की दृष्टि से विलुप्त हो गये और जब वी .नि. सं. २१६ में आर्य स्थूलभद्र का स्वर्गगमन हुआ तो शब्द की दृष्टि से भी इन चारों पूर्टों का लोप हो गया। आर्य वज्रस्वामी तक दश पूर्वों की परम्परा चलती रही। उनका स्वर्गवास वि.सं. ८१ में हुआ और उनके साथ ही दसवाँ पूर्व भी विलुप्त हो गया । दुर्बलिका पुष्यमित्र के स्वर्गवास (वि.सं. १३४) के साथ ही नवाँ पूर्व भी विच्छिन्न हो गया । यह क्रम देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण तक चलता रहा। स्वयं देवर्द्धिगणी भी एक पूर्व से अधिक श्रुत के ही ज्ञाता थे । आगम साहित्य का बहुत सा भाग विलुप्त होने पर भी कुछ मौलिक भाग Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय अब भी सुरक्षित है। प्रश्न यह है कि आगम साहित्य विच्छिन्न क्यों हो गया? सुरक्षित क्यों न रहा? जिस तरह वैदिक वाङ्मय विपुल मात्रा में सुरक्षित रहा उसी तरह जैन वाङ्मय क्यों न रह सका? इसके उत्तर में निम्न प्रमुख कारणों का उल्लेख किया जा सकता है (१) बार-बार पड़ने वाले सुदीर्घकालीन बारह-बारह वर्ष के अकाल। इस अकालों में अनेक श्रुतधर आचार्य कालकवलित हो गये। (२) श्रमणों की कठोरचर्या-श्रमण साधुओं की चर्या के नियम अत्यन्त कठोर हैं । आहार आदि के निश्चित नियम एवं मर्यादाएँ हैं। उन मर्यादाओं का उल्लंघन करके श्रमण सदोष आहार नहीं लेते। अकाल में जब अन्न का ही अभाव हो जाता है तो निर्दोष भिक्षा मिलनी भी बहुत कठिन हो जाती है। इस कारण भी अनेक श्रुतधर आचार्य मृत्यु की गोद में चले गये। जबकि वैदिक ऋषियों के आहार की कोई कठोर मर्यादा एवं विशेष नियम नहीं है और फिर वे 'आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति' का सिद्धान्त मानते हैं। इस कारण भी वैदिक साहित्य सुरक्षित रहा और जैन आगम संपदा विच्छिन्न होती गयी। (३) हिन्दू राजाओं का श्रमण साधुओं के प्रति विद्वेष भावअनेक हिन्दू राजा, विशेष रूप से शुंग और कण्व वंश के नरेश, ऐसे हुए जिनमें धार्मिक सहिष्णुता का अभाव था। वे ब्राह्मणधर्म के कट्टर अनुयायी थे। उनकी असहिष्णुता के कारण भी अनेक श्रमणों को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जैन आगम : एक परिचय] (४) आगम विच्छिन्न होने का सबसे बड़ा कारण प्राचीन युगीन भारत में लेखन परम्परा का अभाव था। यद्यपि लिपिविद्या का आविष्कार आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने किया था, प्रज्ञापनासूत्र में अठारह लिपियों का वर्णन मिलता है, पुरूष की ७२ कलाओं में भी लेखन-कला का प्रमुख स्थान है, फिर भी प्राचीन भारत में लेखन-परम्परा का अभाव था। सिकन्दर के सेनापति निआस ने अपने संस्मरणों में बताया है कि भारतवासी कागज बनाना जानते हैं। ईसा की दूसरी शताब्दी में लिखने के लिए ताड़पत्रों और चौथी शताब्दी में भोजपत्रों का प्रयोग होता था। लेखन-विधि, लिपिविद्या और लेखन-साम्रगी आदि सभी साधनों के होते हुए भी आगम क्यों नहीं लिखे गए, इसका प्रमुख कारण यह था कि श्रमण अपने हाथ से पुस्तक नहीं लिख सकते थे और न ही लिखी पुस्तकें साथ में रख सकते थे। इसमें निम्न दोषों की सम्भावना थी (१) अक्षर आदि लिखने से तथा ताड़पत्रों एवं कागज में कुंथु आदि सूक्ष्म जीवों की हिंसा होती है, इसलिए पुस्तक लिखना संयम-विराधना का कारण है। (२) तीर्थंकरों ने पुस्तक नामक उपधि रखने की आज्ञा नही दी है। (३) पुस्तकें पास में रखने से स्वाध्याय में प्रमाद आता है। (४) बृहत्कल्पभाष्य (उ. ३ गाथा ३८३१ ) के अनुसार साधु जितनी बार पुस्तक खोलते-बाँधते और अक्षर लिखते हैं उन्हें उतने ही चतुर्लघुकों का प्रायश्चित्त आता है और आज्ञा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ [जैन आगम : एक परिचय - आदि दोष लगते हैं। इन दोषों की मान्यता के कारण ही सभी सुविधा एवं साधन होते हुए भी आगमों का लेखन न हो सका। लेकिन इसका यह अभिप्राय नहीं है कि आगम-लेखन की भावना ही श्रमणों के हृदय में उद्बुद्ध नहीं हुई। ऐसी सम्भावना है कि कुछ श्रमण अपनी स्मृति का भार हल्का करने के लिए टिप्पणरूप में कुछ नोट्स लिख लेते होंगे। इसीलिये वाचना के शिक्षित आदि गुणों के वर्णन में आचार्य जिनभद्र ने 'गुरूवायणोवगयं' (गुरुवचनोपगत) का स्पष्टीकरण किया है कि 'ण चोरितं पोत्थयातोवा (गाथा ८५२) और फिर उसकी स्वकृत व्याख्या में लिखा है कि 'गुरु निर्वचितम्, न चौर्यात् कर्णाघाटितं, स्वतन्त्रेण वाऽधीतं पुस्तकात् (स्वोपज्ञ व्याख्या गा. ८५२)। तात्पर्य यह कि गुरू किसी अन्य को पढ़ाते हों उस समय उस ज्ञान को चोरी से सुनकर अथवा पुस्तकों से श्रुतज्ञान लेना उचित नहीं है, वह तो गुर मुख से सुनकर तथा उनकी सम्मति से ही लेना चाहिए। इस उल्लेख से स्पष्ट ध्वनित होता है कि उस समय भी नोट्सरूप में ही सही, कुछ ज्ञान लिख लिया जाता होगा। यद्यपि इस प्रवृत्ति को उचित नहीं माना जाता था और आगम-लेखन की कोई सुविचारित एवं क्रमबद्ध योजना नहीं बनी थी। ऐसा नहीं था कि जैन आगमों के साथ ही यह बात हो; लेखन-परम्परा तो भारत के किसी भी धर्म-सम्प्रदाय में नहीं थी। यही कारण है कि वेदों को 'श्रुति' (सुने हुए) कहा जाता था और वैदिक आचरण-ग्रन्थों को 'स्मृति' (याद किये हुए)। ये दोनों ही Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] सुनकर स्मृति में धारण किये जाते थे। इसी प्रकार जैन साहित्य को भी 'सुत्त,' 'सुय' अथवा 'श्रुत' कहा जाता है। ईसा की चौथी शताब्दी तक भारत का सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान वाङ्मय कहलाता रहा है। 'वाङ्मय' शब्द का अर्थ है-समस्त ज्ञान वचन और कंठ में ही सुरक्षित रखना। इस सम्पूर्ण विवेचन का अभिप्राय यह है कि प्राचीन भारत में ईसा की चौथी शताब्दी तक ग्रन्थ-लेखन की न तो सर्वमान्य परम्परा ही थी और न इस ओर क्रमबद्ध एवं योजनाबद्ध प्रयास ही किया गया। आगम वाचनाएँ उक्त विवेचन से यह मान लेना भूल होगी कि जैन आचार्यों ने श्रुतरक्षा का कोई उपाय ही नहीं किया। समय-समय पर श्रुत की रक्षार्थ उचित उपाय किये गये। इसी क्रम में आगम-संकलन हेतु पाँच वाचनाएँ हुई। प्रथम वाचना- भगवान महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल पड़ा, जिसके कारण श्रमण संघ छिन्न-भिन्न हो गया। अनेक श्रुतधर आचार्य काल-कवलित हो गये। अन्य विघ्न-बाधाओं के कारण भी यथावस्थित सूत्र परावर्तन में बाधाएँ पड़ी। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर उस समय विद्यमान विशिष्ट आचार्य पाटलिपुत्र में एकत्र हुए। ग्यारह अंगों का व्यवस्थित संकलन किया गया। बारहवें अंग दृष्टिवाद के एक मात्र ज्ञाता श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु उस समय नेपाल में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ की प्रार्थना Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० [ जैन आगम : एक परिचय पर उन्होंने बारहवें अंग की वाचना मुनि स्थूलभद्र को देना स्वीकार किया। मुनि स्थूलभद्र ने दस पूर्वो की अर्थ सहित वाचना ग्रहण की और चार पूर्वों की केवल शाब्दी वाचना ही प्राप्त कर सके । द्वितीय वाचना- उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर सम्राट खारवेल ने ईसा की दूसरी शताब्दी में जैन मुनियों का एक संघ बुलवाया और मौर्य काल में जो अंग विस्मृत हो गये थे उनका पुनः उद्धार करवाया । तृतीय वाचना- यह वाचना स्कन्दिलाचार्य के नेतृत्व में मथुरा में वीर निर्वाण संवत् ८२७ से ८४० के मध्य हुई। उस समय द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के कारण स्थिति जटिल हो गयी थी । अनेक युवक श्रमण विशुद्ध आहार की गवेषणाहेतु दूरदूर देशों की ओर चल पड़े तथा अनेक वृद्ध और बहुश्रुत श्रमण / आयुष्य पूर्ण कर गये । क्षुधा से संत्रस्त मुनि अध्ययन, अध्यापन, प्रत्यावर्तन आदि न कर सके। परिणामस्वरूप श्रुत का ह्रास हुआ। अतिशयी श्रुत नष्ट हो गया । अंग और उपांग साहित्य का भी अर्थ की दृष्टि से बहुत बड़ा भाग विलुप्त हो गया । तब स्कंदिलाचार्य के नेतृत्व में मथुरा नगरी में श्रमण संघ एकत्र हुआ। जिन-जिन श्रमणों को जितना - जितना अंश याद था, उसका संकलन हुआ । मथुरा नगरी में होने के कारण यह वाचना 'माथुरी वाचना' के रूप में विश्रुत हुई । उस संकलन श्रुत के अर्थ की अनुशिष्टि आचार्य स्कन्दिल ने दी थी अतः उस अनुयोग को 'स्कन्दिली वाचना' भी कहा गया। चतुर्थ वाचना- जिस समय उत्तर-पूर्व और मध्य भारत में Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] २१ _ विचरण करने वाले श्रमणों का सम्मेलन मथुरा में हुआ उसी समय (वीर नि. सं. ८२७ -८४०) दक्षिण-पश्चिम में विचरण करने वाले श्रमणों का सम्मेलन वल्लभी (सौराष्ट्र) में आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में हुआ। वहाँ भी जितना श्रुत श्रमणों को स्मरण था, उसका संकलन किया गया। यह वाचना 'वल्लभी वाचना' या 'नागार्जुनीय वाचना' कहलाती है। पंचम वाचना- यह वाचना वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी (वी. नि. संवत् ९८० या ९९३ ; ईस्वी सन् ४५४ या ४६६) में देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वल्लभी नगरी में हुई। स्वयं देवर्द्धिगणी अंग ११ और १ पूर्व से अधिक श्रुत के ज्ञाता थे। स्मृति की दुर्बलता और परावर्तन की न्यूनता से अधिकांश श्रुत विलुप्त हो गया था। — देवर्द्धिगणी ने यह उचित समझा कि स्मृति की दुर्बलता के कारण आगामी काल के श्रमण भगवद्वाणी को स्मरण नहीं रख पायेंगे, इसलिए जितना ज्ञान इस समय उपलब्ध है, उसे पुस्तकारूढ़ कर दिया जाये। उन्होंने उपलब्ध ज्ञान को संकलित करके लिपिबद्ध करने का ऐतिहासिक तथा साहसपूर्ण निर्णय किया। इस लेखन के समय उन्होंने माथुरी वाचना को मूल में स्थान दिया और जहाँ नागार्जुनीय वाचना में भेद था, उसे पाठान्तर में रखा। इसीलिये आगमों के व्याख्या ग्रन्थों में यत्रतत्र 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' इस प्रकार का निर्देश प्राप्त होता है। इसके पश्चात् आगमों की कोई सर्वमान्य वाचना नहीं हुई और पूर्वश्रुत विलुप्त हो गया। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ [जैन आगम : एक परिचय आज जो भी आगम उपलब्ध हैं, वे सब देवर्द्धिगणी की दूरदर्शिता और उपकार-भावना के परिणाम हैं । उन्होंने ही आगमों को लिपिबद्ध करके वीर-वाणी की रक्षा का स्तुत्य प्रयास किया। __ आगमों की संख्या मान्यता में भेद आगमों की सूची जो नन्दीसूत्र में दी गयी है, वे सभी आगम आज हमें उपलब्ध नहीं है। द्वादश अंगों को तो सभी स्वीकार करते हैं, लेकिन अंगबाह्य आगमों की संख्या तथा उनकी मान्यता में मतैक्य नहीं है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज बारह अंगों और मूल आगमों के साथ कुछ नियुक्तियों को मिलाकर ४५ आगम मानते हैं और कुछ लोग ८४ आगम मानते हैं। तेरापंथी और स्थानकवासी परम्परा ३२ आगमों को प्रमाणभूत मानती है। __स्थानकवासी परम्परामान्य बत्तीस आगम स्थानकवासी परम्परा द्वारा प्रमाणभूत ३२ आगम निम्न हैं - अंग उपांग आचार औपपातिक सूत्रकृत् राजप्रश्नीय स्थान जीवाभिगम समवाय प्रज्ञापना भगवती जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथा चन्द्रप्रज्ञप्ति उपासकदशा सूर्यप्रज्ञप्ति Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] - अंतकृत्दशा निरयावलिका अनुत्तरौपपातिकदशा कल्पावतंसिका प्रश्नव्याकरण पुष्पिका विपाक पुष्पचूलिका वृष्णिदशा मूलसूत्र छेदसूत्र उत्तराध्ययन निशीथ दशवैकालिक व्यवहार नन्दीसूत्र बृहत्कल्प अनुयोगद्वार दशाश्रुतस्कन्ध आवश्यक सूत्र इन बत्तीस आगमों को प्रभावपूर्ण मानने का कारण यह है कि इनमें क्षेपक आदि नहीं है। बत्तीस आगमों का संक्षिप्त परिचय अब इन आगमों का संक्षिप्त परिचय सामान्य जानकारी के लिए प्रस्तुत है। अंग आगम- मूलतः अंग आगम बारह हैं। भगवान की वाणी द्वादश अंगों में गणधरों द्वारा संकलित की गयी थी। किन्तु कालदोष तथा अन्य विध्न-बाधाओं एवं देश-काल की विषम परिस्थिति के कारण बारहवाँ अंग दृष्टिवाद पूर्ण रूप से विलुप्त हो चुका है। अतः अब हमें ग्यारह अंग ही उपलब्ध हैं। इनका Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जैन आगम : एक परिचय संक्षिप्त परिचय, विषयवस्तु एवं भाषा-शैली आदि का परिचय निम्न प्रकार है । २४ (१) आचारांग सूत्र- यह बारह अंगों में प्रथम अंग है । इसमें आचार का वर्णन किया गया है अत: इसे सब अंगों का सार माना गया है । प्राचीनकाल में इस अंग का अध्ययन सर्वप्रथम किया जाता था । इसके अध्ययन के बाद ही अन्य श्रुत का अभ्यास साधक को कराया जाता था । रचयिता एवं रचनाकाल - आचारांग के रचयिता' गणधर सुधर्मा हैं और इसका रचनाकाल भगवान महावीर का समय है । भाषा आदि की दृष्टि से सभी विद्वान यह मान चुके हैं कि यह महावीरकालीन प्राचीनतम रचना है। इसकी भाषा वही है जो आज से ढाई हजार वर्ष पहले प्रचलित थी । 1 रचनाशैली - आचारांग में दो श्रुतस्कन्ध हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध की रचना शैली द्वितीय श्रुतस्कन्ध की रचनाशैली से सर्वथा भिन्न है । प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवें अध्ययन के सातवें उद्देशक तक की रचना चौर्ण शैली में हुई है । चौर्ण शैली के बारे में दशवैकालिकनिर्युक्ति (गाथा १७४ ) में कहा गया है कि 'जो अर्थ - बहुल, महार्थ, हेतु, निपात और उपसर्ग से गम्भीर, बहुपाद, अव्यवच्छिन्न (विराम रहित) गम और नय से विशुद्ध होता है, वह चौर्ण पद है। आठवाँ उद्देशक तथा नवाँ अध्ययन पद्यात्मक है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में पाँच चूलाएँ हैं। उनके पन्द्रह अध्ययन मुख्य रूप से गद्यात्मक हैं और सोलहवाँ अध्ययन पद्यात्मक है । १ रचयिता से तात्पर्य आगम की सूत्ररूप रचना से है । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ " जैन आगम : एक परिचय] विषय-वस्तु- जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि आचारांग सूत्र दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है । इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में ९अध्ययन हैं । इन नौ अध्ययनों का सम्मिलित नाम 'नव ब्रह्मचर्य' भी है। - प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन का नाम शस्त्रपरिज्ञा है। इसमें बताया गया है कि शस्त्र (हिंसा) एक से बढ़कर एक हैं, लेकिन अशस्त्र (अहिंसा) एक ही है और वह सर्वोत्तम है। इसलिए साधक को द्रव्य-भाव से शस्त्र से दूर रहना चाहिए। प्रथम अध्ययन के सात उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में समुच्चय रूप से जीव हिंसा न करने का उपदेश है। शेष ६ उद्देशकों में क्रमशः पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति, त्रस और वायुकाय के जीवों का वर्णन करके किसी को भी पीड़ा न देने का उपदेश है। द्वितीय अध्ययन का नाम लोगविजय है। इसके ६ उद्देशक हैं । इसका प्रमुख उद्देश्य वैराग्यभाव की वृद्धि करना और भावलोक (कषायलोक) की विजय करने की प्रेरणा देना है। तृतीय अध्ययन का नाम शीतोष्णीय है । इसके चार उद्देशक हैं। इसमें विविध परीषहों को समताभाव से सहन करने की प्रेरणा दी गयी है। चतुर्थ अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है। इसके चार उद्देशक हैं। इसमें अहिंसा की स्थापना करके सम्यक्त्ववाद का प्ररूपण किया गया है। पाँचवें अध्ययन का नाम लोकसार है। इसके ६ उद्देशक हैं। इसमें लोक का सारभूत तत्त्व धर्म, और धर्म का सार ज्ञान बताया Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय है। ज्ञान का सार संयम और संयम का सार मोक्ष प्रतिपादित किया - छठे अध्ययन का नाम धूत है। इसके पाँच उद्देशक हैं। धूत का अर्थ है मैल को साफ करना। इस अध्ययन में भी तप-साधना द्वारा आत्मा को निर्मल बनाने की प्रक्रिया बतायी गयी है। सातवें अध्ययन का नाम महापरिज्ञा है। यह मूल अध्ययन तो आज उपलब्ध नहीं है किन्तु इस पर लिखी हुई नियुक्ति आज भी विद्यमान है। नियुक्ति से ज्ञात होता है कि इसमें स्त्रीजन्य परीषह को समभाव से सहने का उपदेश दिया गया था। ___ आठवें अध्ययन के दो नाम मिलते हैं-विमोक्ष और विमोह। इसके आठ उद्देशक हैं। इसमें श्रमण के लिए समस्त भौतिक संसर्गों के त्याग का उपदेश है । इसके आठवें उद्देशक में पंडितमरण का हृदयस्पर्शी वर्णन है। नवें अध्ययन का नाम उपधानश्रुत है। इसके चार उद्देशक हैं । इसमें भगवान महावीर के साधक-जीवन का बड़ा रोमांचकारी और हृदयस्पर्शी चित्रण है। इस प्रकार वर्तमान आचारांग सूत्र में ८ अध्ययन और ४४ उद्देशक हैं (सातवें अध्ययन महापरिज्ञा और उसके सात उद्देशकों के विलुप्त होने के बाद)। वैसे इसमें ९ अध्ययन और ५१ उद्देशक थे। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ५ चूलाएँ है । इसे आचाराग्र भी कहा जाता है। इन पाँच चूलाओं में से चार चूलाएँ तो आचारांग में हैं और पाँचवीं चूला अत्यधिक विस्तृत होने के कारण अलग कर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • २७ जैन आगम : एक परिचय] दी गयी है जो 'निशीथ' नाम से उपलब्ध है। - चार चूलाओं में से प्रथम चूलिका के सात अध्ययन और पच्चीस उद्देशक हैं। इनमें श्रमणचर्या का वर्णन है। उत्सर्ग-मार्ग के साथ-साथ अपवाद-मार्ग का भी उल्लेख हुआ है। द्वितीय चूलिका में सात अध्ययन हैं, लेकिन उद्देशक एक भी नहीं है। तृतीय भावना नामक चूलिका में भगवान महावीर के पवित्र चरित्र का वर्णन है। चतुर्थ विमुक्ति नामक चूलिका में ममत्वमूलक आरम्भ और परिग्रह के फल की मीमांसा करते हुए उनसे दूर रहने की प्रेरणा दी गयी है। इस प्रकार आचारांग में आराध्यदेव चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के पवित्र चरित्र के वर्णन के साथ ही आचार का वर्णन है और सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चरित्र की सुन्दर त्रिवेणी का संगम है। (२) सूत्रकृतांग सूत्र- यह द्वितीय अंग आगम है। इसके सूतगड, सुत्तकड, अन्य नाम हैं। इसमें दार्शनिक अंश अधिक है। रचयिता एवं रचनाकाल- इसके रचयिता भी गणधर सुधर्मा हैं और इसका रचना काल भी वही है। रचनाशैली- इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध का अधिकांश भाग पद्य में है, केवल सोलहवाँ अध्ययन ही गद्य में है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का अधिकांश भाग गद्य में है। वर्गीकरण- अनुयोगों की दृष्टि से इसको चरणकरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग में रखा गया है । चूर्णिकार ने इसे चरणकरणानुयोग में रखा है और आचार्य शीलांक ने द्रव्यानुयोग में। वस्तुतः इसमें दोनों अनुयोगों का वर्णन है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ [जैन आगम : एक परिचय विषयवस्तु- सूत्रकृतांग में स्वमत-परमत के रूप में तात्कालिक दर्शनों की चर्चा, जीव, अजीव आदि सात तत्त्व, तथा श्रमणों की चर्या का वर्णन है। इसमें १८० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ६७ अज्ञानवादी और ३२ विनयवादी-इस प्रकार कुल ३६३ पर-मतों का निरसन करते हुए स्वमत (जिनमत) की प्रतिष्ठा की गयी है। . इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययन और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययन है। ३३ उद्देशक, ३३ समुद्देशक और ३६००० पद हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के पहले अध्ययन का नाम समय है। इसके चार उद्देशक हैं। इसमें स्वमत का मंडन और परमत (३६३ मतों) का निरसन है। दूसरे अध्ययन का नाम वैतालीय है। इसके तीन उद्देशक हैं। इसमें अनित्यता-संबोध और अभिमान आदि कषायों के त्याग तथा उपसर्गों को समभाव से सहन करने का उपदेश है। तीसरे अध्ययन का नाम उपसर्गपरिज्ञा है। इसके चार उद्देशक हैं। इसमें प्रतिकुल उपसर्ग, अनुकूल उपसर्ग, विषादयुक्त वचन उपसर्गों को समभाव और स्थिरता एवं दृढ़ता से सहन करने की प्ररेणा दी गयी है। चौथे अध्ययन का नाम स्त्रीपरिज्ञा है । इसके दो उद्देशक हैं। इसमें स्त्री संसर्ग से शीलनाश और शीलभ्रष्ट साधक की दशा का वर्णन करके स्त्री-सहवास से दूर रहने की प्रेरणा दी गयी है। पाँचवा अध्ययन नरक-विभक्ति है। इसके दो उद्देशक हैं। इसमें नरकों के दुखों का वर्णन करके साधक को उससे शिक्षा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ . जैन आगम : एक परिचय] लेने की प्रेरणा दी गयी है। छठवाँ अध्ययन वीरस्तुति है। इसमें गणधर सुधर्मा भगवान महावीर के विभिन्न गुणों का वर्णन करते हुए भाव-विभोर होकर उनकी स्तुति करते हैं। ___ सातवाँ अध्ययन कुशील परिभाषा है। इसमें शील, अशील और कुशील का वर्णन है। छहों प्रकार के जीवों की हिंसा से विरत होने की प्रेरणा दी गयी है। __आठवाँ अध्ययन वीर्य है। इसमें पण्डित और बालवीर्य का वर्णन करके पण्डितवीर्य को मुक्ति का कारण बताया गया है। नवाँ अध्ययन धर्म है। इसमें भगवान महावीर द्वारा बताये गये धर्म का निरूपण है। दसवाँ अध्ययन समाधि है । इसमें भाव, श्रुत, दर्शन, आचारचार प्रकार की समाधि का वर्णन किया गया है। ग्यारहवाँ अध्ययन मार्ग है। इसमें भावमार्ग-मोक्षमार्ग का निरूपण है। बारहवाँ अध्ययन समवसरण है। इसमें चार वादों के समवसरण का उल्लेख है। तेरहवाँ अध्ययन याथातथ्य है। इसमें याथातथ्य धर्म का पालन करने की प्रेरणा है। चौदहवाँ अध्ययन ग्रन्थ है । इसमें नवदीक्षित साधक को गुरु के सान्निध्य में रहने के लाभों का वर्णन है। पन्द्रहवाँ अध्ययन आदानीय अथवा आदान है। इसमें संयम Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० [ जैन आगम : एक परिचय एवं मोक्षमार्ग की साधना का सुपरिणाम बताया गया है । सोलहवाँ अध्ययन गाथा है । इसमें श्रमण, माहन, भिक्षु और निर्ग्रन्थ किसे कहना चाहिए, यह बताया है । द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन का नाम पुंडरीक है । इसमें बताया गया है कि यह संसार पुष्करिणी है, उसमें कर्मरूपी जल एवं काम-भोग का कीचड़ भरा है। उसके मध्य में एक पुंडरीक ( कमल) है । उस कमल को अनासक्त, निस्पृह और अहिंसादि महाव्रतों को पालन करने वाले साधक ही प्राप्त कर सकते हैं। द्वितीय अध्ययन का नाम क्रियास्थान है । धर्मक्रिया और अधर्मक्रिया का वर्णन करके धर्मक्रिया की प्रेरणा दी गयी है। तृतीय अध्ययन का नाम आहारपरिज्ञा है। इसमें आहार की विस्तृत चर्चा है । चतुर्थ अध्ययन प्रत्याख्यानपरिज्ञा है। इसमें पाप का प्रत्याख्यान करने की आवश्यकता बतायी गयी है । पाँचवाँ अध्ययन आचारश्रुत व अनगारश्रुत है । इसमें बताया गया है कि आचार के सम्यक् पालन के लिए बहुश्रुत होना आवश्यक है। साथ ही श्रमण को अमुक-अमुक प्रकार की भाषा बोलने का भी निर्देश है । छठवाँ अध्ययन आर्द्रकीय है। इसमें अनार्यदेश में जनमें राजकुमार आर्द्रक के जैन मुनि बनने का उल्लेख करने के पश्चात् उनके द्वारा गोशालक, हस्तीतापस आदि के मतों का निरसन कराया गया है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] ३१ सातवाँ अध्ययन नालंदीय है । इस अध्ययन में गणधर गौतम का पार्वापत्य पेढालपुत्र के साथ संवाद होता है और पेढालपुत्र चातुर्याम धर्म को छोड़कर पंचयाम धर्म स्वीकार कर लेते हैं । इस प्रकार सूत्रकृतांगसूत्र में दार्शनिक चर्चाओं के साथ आचारधर्म का सुन्दर निरूपण हुआ है । ( ३ ) स्थानांग - यह तीसरा अंग आगम है । स्थान शब्द अनेकार्थवाची है । स्थान शब्द का एक अर्थ 'मान' अथवा 'परिमाण', दूसरा अर्थ 'उपयुक्त' और तीसरा अर्थ 'विश्रान्ति स्थल' है । इसमें संख्या क्रम से जीव आदि तत्त्वों की प्ररूपणा की गयी है । रचनाशैली- इस आगम की रचनाशैली में कुछ विशेषता है । यहाँ विषय को नहीं, संख्या को प्रधानता दी गयी है । संख्या के अनुसार विषय बताये गये है- जैसे ४ प्रकार के देव, ४ प्रकार के मनुष्य, ४ प्रकार के श्रोता, ५ प्रकार के ज्ञान, ९ निधियाँ आदि । ऐसी शैली महाभारत के वनपर्व के १३४ वें अध्याय तथा बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय, धर्मसंग्रह आदि में भी मिलती है । विषयवस्तु इस आगम में संख्याक्रम के अनुसार स्वसमय, परसमय, लोक, अलोक आदि की विवेचना की गयी है । इसमें दस अध्ययन, इक्कीस उद्देशक और ३७७० सूत्र हैं । दसों अध्ययन एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस- इस प्रकार संख्या के आधार पर विभाजित हैं और इनमें संख्या के अनुसार ही विषय का निरूपण है । स्थानांगसूत्र की चौभंगियाँ विशेष प्रसिद्ध हैं । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय भेद-अभेद की व्याख्या की दृष्टि से यह आगम महत्वपूर्ण है। (४) समवायांग- यह चौथा अंग आगम है। इसमें जीवअजीव आदि पदार्थो का समावतार है, इसलिए इसका नाम समवाय है। . रचनाशैली- स्थानांग की भाँति इसकी रचना भी संख्या के आधार पर की गयी है। इनमें से सौ तक की संख्या को आधार बनाकर विषय का निरूपण हुआ है। विषय वस्तु- इसमें जीव-अजीव आदि तत्वों का समवतार, एक से सौ तक की संख्या का विकास और द्वादशांग गणिपिटक का परिचय है। . इसमें १०० समवायों तक क्रमपूर्वक संख्याक्रम चला है। उसके बाद १५०, २००, २५० आदि से लेकर कोटि समवाय तक आये हैं। तीर्थंकर (भूत-भविष्य-वर्तमानकालीन), चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, लोक, आदि की जानकारी दी गयी है। सूत्र के अन्त में प्रस्तुत सूत्र की संक्षिप्त सूची भी दी गयी है। इस आगम में जिज्ञासु एंव शोधकर्ताओं के लिए महत्वपूर्ण सामग्री का संकलन हुआ है। (५) भगवती- यह पाँचवाँ अंग आगम है। इसका दूसरा नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति अथवा विवाहपण्णति है । यह आगम अत्यन्त विशाल है। रचनाशैली- इस आगम की रचना प्रश्नोत्तर शैली में हुई है। प्रमुख रूप से गणधर गौतम प्रश्न करते हैं और भगवान महावीर उनका समाधान करते हैं। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] ३३ विषयवस्तु इस आगम की विषय-वस्तु विशाल है। इसमें विभिन्न विषयों पर प्रश्न हैं और उनके उत्तर भगवान महावीर द्वारा दिये गये हैं । इसी कारण इस आगम की परिधि में सभी प्रकार के विषय आ गये हैं, जैसे जीव, अजीव, पुद्गल, स्वसमय, परसमय, काल, आकाश, लोक, त्रस, स्थावर आदि । -- परमाणु का इसमें सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन है और ज्ञान-विज्ञान प्रचुर सामग्री विशाल मात्रा में उपलब्ध होती है । की परिमाण - परिमाण में यह आगम अन्य सभी आगमों से विशाल है । इसमें गणधर गौतम आदि द्वारा पूछे गये छत्तीस हजार (३६०००) प्रश्नों का भगवान महावीर द्वारा दिये गये समाधानों सहित संग्रह है। इसमें सैकड़ों-हजारों विषयों का प्रतिपादन है । प्रस्तुत आगम के शतक और १९२५ उद्देशक हैं । विशेषता - इस आगम की प्रमुख विशेषता यह है कि महामन्त्र नवकार सर्वप्रथम इसी आगम में लिपिबद्ध हुआ है । (६) ज्ञाताधर्मकथा - यह छठवाँ अंग आगम है। इसका प्राकृत नाम नायाधम्मका है। विषयवस्तु - इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञात-उदाहरण और दूसरे श्रुतस्कन्ध में धर्मकथाएँ हैं । नायाधम्मकहा का अर्थ अभयदेव सूरि के अनुसार नाथ ( नाय - भगवान महावीर ) द्वारा प्रतिपादित धर्मकथा है। रचनाशैली- इसकी रचनाशैली उदाहरणात्मक है। इसमें उदाहरणों द्वारा धर्मतत्व का कथन किया गया है । परिमाण - इसमें उदाहरणप्रधान धर्मकथाएँ है । उन धीर Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय . वीर साधकों की कथाएँ है जो घोर उपसर्ग आने पर भी धर्म से विचलित नहीं हुए। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में १९ अध्ययन . और दूसरे श्रुतस्कन्ध में १० वर्ग है। दोनों श्रुतस्कन्धों के २९ उद्देशनकाल, २९ समुद्देशनकाल और ५७६००० पद हैं। महत्व- ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि दृष्टियों से इस आगम का बहुत महत्व है। इसमें भगवान पार्श्व के समय के जन-जीवन, विभिन्न मत-मतान्तर, प्रचलित रीति-रिवाज, नौका सम्बन्धी साधन-सामग्री, राजमार्ग, वन-पथ आदि सभी बातों का सजीव चित्रण हुआ है। (७) उपासकदशांग- यह सातवाँ अंग आगम है। उपासक शब्द यहाँ श्रावकों के लिए व्यवहृत हुआ है। विषयवस्तु- यों तो भगवान महावीर के लाखों उपासक थे। लेकिन इस आगम में भगवान के विशिष्ट दस श्रावकों का वर्णन है। ये श्रावक हैं -आनन्द, कामदेव, चूलणीपिया, सुरादेव, चुल्लशतक, कुंडकोलिक, सकडालपुत्र, महाशतक, नन्दिनीपिता, और सालिहीपिता। इस आगम में श्रावकधर्म का सूक्ष्मातिसूक्ष्म और विस्तृत वर्णन हुआ है। __परिमाण- इस आगम में दस अध्ययन, दस उद्देशनकाल और दस समुद्देशनकाल हैं। वर्तमान में इस आगम का परिमाण ८१२ श्लोक हैं। विशेषता- सम्पूर्ण द्वादशांगी में यही अंग ऐसा है जिसमें श्रावक की जीवनचर्चा का वर्णन है। इसमें श्रावक के १२ व्रत, १५ कर्मादान, ११ प्रतिमाओं का वर्णन है। सबसे बड़ी विशेषता है- सत्य का सम्मान । स्वयं गौतम गणधर सत्यवादी श्रावक आनन्द Jain Educatioși International Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] से क्षमायाचना करते हैं । ( ८ ) अन्तकृत्दशा - यह आठवाँ अंग आगम है। इसमें जन्ममरण की परम्परा का अन्त करने वाले साधकों का उल्लेख है । इसलिए इसका नाम भी अन्तकृत् है । ३५ परिमाण - इस आगम में एक श्रुतस्कन्ध, ८ वर्ग, ९० अध्ययन, ८ उद्देशनकाल और समुद्देशनकाल हैं । इसमें संख्यात पद और संख्यात हजार अक्षर हैं । इसके आठों वर्ग क्रमशः १०, ८, १३, १०, १०, १६, १३ और १० अध्ययनों में विभक्त हैं । विषयवस्तु प्रथम दो वर्गों में गौतम आदि वृष्णिकुल १८ राजकुमारों की साधना का वर्णन हैं । ये सभी उग्र तप करके मुक्ति प्राप्त करते हैं। तीसरे, चौथे, पाँचवे वर्ग में भगवान अरिष्टनेमि के युग के साधकों का वर्णन हैं । छठे, सातवें और आठवें वर्ग में महावीर युग के उग्र साधकों का वर्णन हैं । महत्व - इस सम्पूर्ण आगम में भौतिकता पर आध्यात्मिकता की विजय दिखायी गयी है । सर्वत्र तप की, उत्कृष्ट साधना की ज्योति विकीर्ण हो रही है। (९) अनुत्तरौपपातिकदशा- यह नवाँ अंग आगम है। इसमें उन साधकों का वर्णन हुआ है जो उत्कृष्ट साधना करके अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए और फिर मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष प्राप्त करेंगें । विषयवस्तु - इस आगम में ३ वर्ग हैं जो क्रमशः १०,१३ और १० अध्ययनों में विभक्त हैं । इन ३३ अध्ययनों में भगवान महावीरकालीन ३३ महान साधक - आत्माओं का वर्णन है । महत्व - इस आगम का सामाजिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय भी बहुत महत्व है। सभी साधक ऐतिहासिक पुरुष हैं। इसमें भगवान महावीर के युग की सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों की भी भलीभांति जानकारी मिलती है। (१०) प्रश्नव्याकरणसूत्र- यह दसवाँ अंग आगम है। इसका प्राकृत नाम पण्हावागरणाई है। विषयवस्तु- प्रश्नव्याकरण का अर्थ प्रश्नों का व्याकरण अर्थात् निर्वचन, उत्तर एवं निर्णय है । इस आगम के दो श्रुतस्कंध हैं । प्रथम श्रुतस्कंध आस्त्रवद्वार है और द्वितीय संवरद्वार। प्रथम श्रुतस्कंध के पाँच अध्ययन हैं जिनमें क्रमशः हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का विस्तृत विश्लेषण है। ये मन के रोग हैं। इनका उपचार दूसरे श्रुतस्कंध संवरद्वार में बताया गया है। इसके भी पाँच अध्ययन हैं। इनमें क्रमशः अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का विस्तृत विवेचन है। ये पाँचों ही मनोरोग के उपचार हैं। इसमें पाँचों संवरद्वारों की २५ चारित्र भावनाएँ बतायी गयी हैं। ____ महत्व- यद्यपि आस्रव और संवर का निरूपण आगम में अनेक स्थलों पर हुआ है लेकिन प्रस्तुत आगम प्रश्नव्याकरण में जितना विस्तार और सूक्ष्मतापूर्ण वर्णन है, वह अनूठा है। ऐसा वर्णन अन्य आगम साहित्य में उपलब्ध नहीं है। (११) विपाकसूत्र- यह द्वादशांगी का ग्यारहवाँ अंग है। इसमें शुभ-कर्म और अशुभ-कर्मों के विपाक का वर्णन है। इसमें कर्मसिद्धान्त की मीमांसा नहीं है, वरन् उदाहरण शैली में कर्मों के विपाक का वर्णन है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] ३७ विषयवस्तु- इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं-प्रथम दुःखविपाक और दूसरा सुखविपाक । दोनों के दस-दस अध्ययन हैं । प्रत्येक अध्ययन में एक-एक व्यक्ति का जीवन-प्रसंग वर्णित हुआ है। प्रथम श्रुतस्कन्ध दुखविपाक में ऐसे व्यक्तियों के जीवन-प्रसंग हैं जिन्हें दुष्कर्मों के विपाक के कारण दुख भोगना पड़ा। दूसरे श्रुतस्कंध में सुकृत करने वाले व्यक्तियों के जीवन प्रसंग हैं। इन्हें शुभकर्मों के विपाक के फलस्वरूप सुख प्राप्त हुआ। सुख-विपाक में सुबाहुकुमार का जीवन-प्रसंग विस्तार के साथ वर्णित हुआ है। विशेष बात यह है कि दुखविपाक में हिंसा, चोरी और अब्रह्म के कटु परिणामों का दिग्दर्शन कराने वाले प्रसंग तो हैं, किन्तु असत्य और परिग्रह के दुष्परिणामों को दिखाने वाले प्रसंग नहीं हैं। इसी प्रकार सुख-विपाक में दान के शुभ फलों का दिग्दर्शन है लेकिन अन्य धर्मों की आराधना से होने वाले शुभफलों को दिखाने वाला कोई जीवन-प्रसंग नहीं है। ___उपांग आगम साहित्य- उपांगों की गणना अंगबाह्य आगमों में होती है। ये मूलत: बारह हैं और प्रत्येक उपांग प्रत्येक अंग से सम्बन्धित माना गया है। इनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है: (१) औपपातिक सूत्र- यह जैन आगम साहित्य का पहला उपांग है । अंग आगमों में जो स्थान आचारांग का है, उपांग साहित्य में वही स्थान इसका (औपपातिक सूत्र का) है। १ विशेष-बारहवाँ अंग दृष्टिवाद विलुप्त हो चुका है, इसलिए उपलब्ध बत्तीस आगमों से उसका उल्लेख नहीं है और इसी कारण यहाँ उसका परिचय नहीं दिया गया है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जैन आगम : एक परिचय विषयवस्तु - इसके दो अध्ययन हैं - प्रथम का नाम समवसरण है और दूसरे का नाम उपपात है। इसका प्रारम्भिक अंश गद्यात्मक और अन्तिम अंश पद्यात्मक है, मध्य भाग में गद्य-पद्य मिश्रित है । इसमें ४३ सूत्र हैं । ३८ विशेषता - इस उपांग आगम की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें जिन विषयों की चर्चा की गयी है, उनका पूर्ण विवेचन है । भगवान महावीर के समवसरण का सजीव चित्रण और उनकी उपदेश-विधि इसमें सुरक्षित है। इसमें नगर, चैत्य, राजा-रानियों आदि का सांगोपांग वर्णन है । यह वर्णन अन्य आगमों के लिए आधारभूत है । (२) राजप्रश्नीय- यह दूसरा उपांग है। आचार्य मलयगिरि ने इसे सूत्रकृतांग का उपांग माना है। विषयवस्तु - यह आगम दो भागों में विभक्त है । पहले विभाग में सूर्याभ नामक देव भगवान महावीर के सामने उपस्थित होकर विभिन्न प्रकार के नृत्य और नाटक करता है । दूसरे विभाग में भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी केशीश्रमण और श्वेताम्बिका नगरी के राजा प्रदेशी के मध्य हुए प्रश्नोत्तर हैं । विभिन्न उदाहरणों और दृष्टान्तों से केशी श्रमण आत्मा की सिद्धि करते हैं और राजा प्रदेशी को श्रावकव्रत ग्रहण करवाते हैं । विशेषताएँ- इस आगम की अनेक विशेषताएँ हैं । इसमें स्थापत्य, संगीत और नाट्यकला के अनेक तत्त्वों का समावेश हुआ है । ३२ प्रकार के नाटकों का वर्णन है । लेखन सम्बन्धी सामग्री का निर्देश है। साम, दाम, दण्ड नीति के अनेक सिद्धान्तों Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] __ का उल्लेख है । ७२ कलाएँ, ४ परिषद्, कलाचार्य, शिल्पाचार्य, धर्माचार्य का निरूपण है। पार्श्वनाथ-परम्परा की जानकारी दी गयी है। काव्य और कथाओं के विकास के लिए वार्तालाप और संवादों का आदर्श रूप इसमें मिलता है। इन सब बातों से यह आगम महत्वपूर्ण है। (३) जीवाभिगम- यह तीसरा उपांग आगम है। आचार्य मलयगिरि ने इसे स्थानांग का उपांग माना है। विषयवस्तु- इसमें जीव और अजीव के भेद-प्रभेदों की चर्चा की गयी है। इसकी रचना प्रश्नोत्तर शैली में है। गौतम गणधर प्रश्न करते है और भगवान महावीर समाधान देते हैं। इसमें ९ प्रतिपत्ति (प्रकरण), एक अध्ययन, १८ उद्देशक, ४७५० श्लोक प्रमाण पाठ उपलब्ध है । २७२ गद्य-सूत्र और ८१पद्य-गाथा हैं। विशेषताएँ- इसमें द्वीप-सागरों का विस्तृत वर्णन है। १६ प्रकार के रत्न, अस्त्र-शस्त्रों के नाम, धातुओं के नाम, कल्पवृक्ष, विविध प्रकार के उपकरण; पात्र, आभूषण, भवन, वस्त्र, ग्राम, नगर, राजा आदि के नाम; त्यौहार, उत्सव, नट, यान, कला, युद्ध, रोग आदि का भी उल्लेख है। उद्यान, पुष्करिणी आदि का सरस वर्णन है। .इस प्रकार कला और सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस आगम का महत्व है। (४)प्रज्ञापना-यह चतुर्थ उपांग आगम है। आचार्य मलयगिरि ने इसे समवायांग का उपांग माना है किन्तु स्वयं शास्त्रकार ने इसे दृष्टिवाद से सम्बन्धित बताया है। इसके रचयिता श्यामार्य है। " Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० । [जैन आगम : एक परिचय रचनाशैली- इस आगम की रचना प्रश्नोत्तर शैली में हुई है। गणधर गौतम प्रश्न करते है और भगवान महावीर समाधान देते हैं। विषयवस्तु- इसमें ३६ विषयों का निर्देश है, इसलिए ३६ पद हैं । सम्पूर्ण आगम का श्लोक प्रमाण ७८८७ है । प्रक्षिप्त गाथाओं के अतिरिक्त कुल गाथाएँ २३२ और शेष गद्य भाग है । इसमें जीवों की विचारणा की गयी है। गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि सभी दृष्टियों से जीवों पर विचार किया गया है। नारक से लेकर २४ दण्डकों के जीवों की चर्चा है। विशेषताएँ- प्रज्ञापना (पन्नवणा) में साहित्य, धर्म, इतिहास, भूगोल आदि अनेक विषयों पर महत्वपूर्ण चिन्तन है। भाषा में आलंकारिकता कम है किन्तु जैन पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है। (५) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति- यह पाँचवाँ उपांग है। इसके सात वक्षस्कार है। उपलब्ध मूल पाठ ४१४६ श्लोक प्रमाण हैं। १७८ गद्य-सूत्र हैं और ५२ पद्य-सूत्र हैं। विषयवस्तु- प्रथम वक्षस्कार में भरतक्षेत्र का वर्णन है । दूसरे में काल का निरूपण है। यहाँ भगवान ऋषभदेव का भी वर्णन है। तीसरे में भरत चक्रवर्ती का विस्तृत वर्णन है। चौथे में चुल्लहिमवंत का वर्णन है। पाँचवें में जिन-जन्माभिषेक का वर्णन है। छठे में जम्बूद्वीपगत पदार्थ संग्रह का उल्लेख हुआ है । सातवें में ज्योतिष्क का विवरण है। यहाँ सूर्य-चन्द्र की गति, दिन-रात्रि होने के कारण और उनका मान आदि पर भी प्रकाश डाला गया है। महत्व- प्राचीन भूगोल, खगोल और सृष्टिविद्या एवं ज्योतिष्क Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] सम्बन्धी विचारणा की दृष्टि से यह आगम महत्वपूर्ण है। इसकी प्रशंसा पश्चिमी विद्वानों ने भी की है। (६-७) सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति- ये क्रमशः छठवें और सातवें उपांग है। विषयवस्तु- ये दोनों ही ग्रन्थ ज्योतिष सम्बन्धी हैं । सूर्यप्रज्ञसि में सूर्य आदि ज्योतिष चक्र का वर्णन है और चन्द्रप्रज्ञप्ति में चन्द्र आदि ज्योतिष चक्र का। सूर्यप्रज्ञप्ति में एक अध्ययन, २० प्राभृत और मूल पाठ २२०० श्लोक प्रमाण है। इतना ही परिमाण चन्द्रप्रज्ञप्ति का है। इनमें आकाशीय ज्योतिष (Astronomy) के अतिरिक्त फलित ज्योतिष (Astrology) भी मिलती है। मुहूर्तशास्त्र की नींव इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर पड़ी। क्योंकि चन्द्रप्रज्ञप्ति में जो नक्षत्रों आदि के स्वभाव एवं गुणों का वर्णन किया गया, वही आगे चलकर मुहूर्तशास्त्र के रूप में विकसित हुआ। ____ महत्व- इन दोनों ग्रन्थों की प्रशंसा विन्टरनित्स, शुब्रिग आदि पश्चिमी विद्वानों ने भी की है। शुबिंग ने तो स्पष्ट कहा है कि सूर्यप्रज्ञप्ति के अध्ययन बिना प्राचीन भारतीय ज्योतिष को समझा ही नहीं जा सकता। डॉ. धिवौ ने अपने शोधपूर्ण निबन्ध में बताया है कि प्राचीन ज्योतिष्क वेदांग ग्रन्थ के सिद्धान्त भी सूर्यप्रज्ञप्ति के सिद्धान्तों के समान ही थे और ये सिद्धान्त सर्वमान्य थे। - इस प्रकार इन ग्रन्थों में ज्योतिष सम्बन्धी महत्वपूर्ण ज्ञान का समावेश हुआ है। (८-१२) निरयावलिया आदि पाँच सूत्र- निरयावलिया में पाँच उपांग समाविष्ट है-(१) निरयावलिका या कल्पिका (२) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय कल्पावतंसिका (३) पुष्पिका, (४) पुष्पचूलिका और (५) वृष्णिदशा। पहले ये पाँचों उपांग निरयावलिया के नाम से ही विश्रुत थे किन्तु बाद में बारह अंगों के साथ संगति बिठाने के लिए इन्हें पृथक्-पृथक् गिना जाने लगा। ___इस आगम में १ श्रुतस्कन्ध, ५ वर्ग, ५२अध्ययन और मूल पाठ ११०० श्लोक प्रमाण है। प्रथम वर्ग निरयावलिका के १० अध्ययन हैं । इसमें श्रेणिक की रानी चेलना का दोहद, कूणिक का जन्म, पिता को कैद करके राजा बनना, चेटक से युद्ध आदि का वर्णन है । इस युद्ध में कूणिक के नौ भाई भी मरण प्राप्त करते हैं। दूसरे वर्ग कल्पावतंसिका में श्रेणिक के पौत्रों का वर्णन है। इसके भी १० अध्ययन हैं। श्रेणिक के पौत्र भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण करके स्वर्ग प्राप्त करते हैं। तीसरा वर्ग पुष्पिका है। इसके भी दस अध्ययन हैं। इस उपांग में स्व-समय और पर-समय के ज्ञान की दृष्टि से कथाओं का संकलन है। इन कथाओं में कौतूहल की प्रधानता है और परलोक के जीवन पर अधिक प्रकाश डाला गया है। इनमें पुनर्जन्म और कर्मसिद्धान्त की पृष्ठभूमि है। चौथा वर्ग पुष्पचूलिका है। इसके अध्ययन हैं। इसमें भी कथाएँ हैं और कथाओं का प्रेरणातत्व शुद्ध श्रमणाचार है। पाँचवा वर्ग वृष्णिदशा है । इसके अध्ययन हैं। इसमें यदुवंशी राजाओं के विविध प्रसंगों का वर्णन है । यह वर्णन भी कथाओं के माध्यम से हुआ है। प्रत्येक अध्ययन में एक व्यक्ति का जीवन Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] प्रसंग अंकित हुआ है। __ मूलसूत्र- मूल सूत्र चार हैं - (१) उत्तराध्ययन (२) दशवैकालिक (३) नन्दीसूत्र और (४) अनुयोगद्वार। मूल संज्ञा क्यों?- अनेक चिन्तकों और विद्धानों के मन में यह प्रश्न उठता रहा है कि इन सूत्रों को ही मूल संज्ञा क्यों दी गयी, किसके द्वारा दी गयी और कब दी गयी? पहले ही आगमों के उत्तरवर्ती वर्गीकरण में बताया जा चुका है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में रचे गये प्रभावक चरित्र में इन सूत्रों का मूलसूत्रों के रूप में उल्लेख हुआ है। इससे अधिक स्पष्ट कोई उल्लेख नहीं मिलता। पश्चिमी विद्वान शान्टियर के अभिमतानुसार भगवान महावीर के मूल शब्दों का संकलन होने से ये मूलसूत्र कहलाये। फ्रान्सीसी विद्वान् गेरीनो इन पर अनेक टीका-टिप्पणियाँ लिखी जाने के कारण इन्हें मूलसूत्र मानता है। लेकिन ये दोनों ही मत भ्रान्तिपूर्ण है। यह निश्चित है कि दशवैकालिक आर्य शय्यंभव द्वारा नियूंढ आगम है फिर भी यह मूलसूत्र है और आचारांग तो भगवान महावीर की ही वाणी है, भाषा आदि से भी यह सिद्ध हो चुका है, फिर भी वह मूलसूत्र नहीं माना गया। टीका-टिप्पणी अन्य आगमों पर भी बहुत हैं । अतः पश्चिमी विद्वानों के ये मत मान्य नहीं हैं। सत्य तथ्य यह है कि जिन आगमों में मुख्य रूप से श्रमण के आचार सम्बन्धी मूलगुणों; महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि का निरूपण हो, जो श्रमणचर्या में सहायक होते हैं, जिनके द्वारा सम्यक्दर्शन-ज्ञानचारित्र की रत्नत्रयी की सहज प्राप्ति एवं दृढ़ता होती है, जिनको सर्वप्रथम श्रमण के लिए अध्ययन करना अपेक्षित है, वे सूत्र मूलसूत्र कहे गये। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ [जैन आगम : एक परिचय उन्हीं की मान्यता मूलसूत्रों में हुई। उदाहरण के लिए, पूर्वकाल में आगमों के अध्ययन का प्रारम्भ आचारांग से होता था लेकिन दशवैकालिक के निर्माण के बाद दशवैकालिक से होने लगा। इन चारों मूलसूत्रों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है: (१) उत्तराध्ययन सूत्र- आगम साहित्य के प्राचीन विभाजन के अनुसार उत्तराध्ययन सूत्र अंगबाह्य आवश्यकव्यतिरिक्त कालिकश्रुत का ही एक भेद है। उत्तराध्ययन में दो शब्द हैं-एक 'उत्तर' और दूसरा 'अध्ययन'। चूर्णि में इस प्रकार की योजना प्राप्त होती है स-उत्तर - पहला अध्ययन निरूत्तर - छत्तीसवाँ अध्ययन स-उत्तर-निरूत्तर - बीच के सभी अध्ययन लेकिन परम्परागत मान्यता यह है कि यह सूत्र आचारांग के अध्ययन के बाद पढ़ा जाता था इसलिए इसका नाम उत्तराध्ययन पड़ा। जब दशवैकालिक का निर्माण हो गया तो आचारांग के स्थान पर पहले दशवैकालिक पढ़ा जाने लगा और यह सूत्र उत्तराध्ययन ही रहा, अर्थात् बाद में ही पढ़ा जाता रहा। विषयवस्तु- विषयवस्तु की दृष्टि से उत्तराध्ययन सूत्र धर्मकथात्मक, उपदेशात्मक, आचारात्मक और सैद्धान्तिक इन चारों ही भागों में विभक्त किया जा सकता है। जैसे धर्मकथात्मक-अध्ययन ७, ८, ९, १२, १३, १४, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २५ और २७ । | Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ माहा . जैन आगम : एक परिचय] उपदेशात्मक-अध्ययन १, ३, ४, ५, ६ और १० ।। आचारात्मक-अध्ययन २, ११, १५, १६, १७, २४, २६, ३२ और ३५। सैद्धान्तिक-अध्ययन २८, २९, ३०, ३१, ३३, ३४ और ३६। परिमाण- उत्तराध्ययन में ३६ अध्ययन हैं । मूल पाठ २१०० गाथा प्रमाण है । १६५६ पद्यसूत्र हैं और ८९ गद्यसूत्र हैं। प्रथम अध्ययन का नाम विनय है। विनय को जिनशासन का मूल बताया गया है और अनुशासन का महत्व प्रदर्शित किया गया है। दूसरा अध्ययन परीषह है। इसमें साधु को समभावपूर्वक २२ परीषहों को सहन करने की प्रेरणा दी गयी है। तीसरे चतुरंगीय अध्ययन में मानवता, धर्मश्रवण, श्रद्धा व तप-संयम में पुरूषार्थ-इन चार दुर्लभ बातों का निरूपण हुआ है। चौथे असंस्कृत अध्ययन में संसार की क्षणभंगुरता बताकर साधक को भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त रहने का उपदेश है। पाँचवें अध्ययन का नाम अकाममरणीय है। इसमें यह बताया गया है कि मृत्यु भी एक कला है। पण्डितमरण करने वाले को बार-बार मरण नहीं करना पड़ता । .. छठवें अध्ययन 'क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय' में श्रमण के बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ त्याग की प्रेरणा है। सातवें एलय (उरब्भिय) अध्ययन में पाँच कथाएँ हैं। इन कथाओं द्वारा प्रेरणा दी गयी है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ [जैन आगम : एक परिचय आठवें अध्ययन का नाम कापिलीय है। कपिल लोभ से विरक्त होकर मुनि बनता है। चोर इसे घेर लेते हैं तब वह जो उपदेश देता है उसका संग्रह इस अध्ययन में है। ___ नवें अध्ययन का नाम नमिप्रव्रज्या है। इसमें प्रत्येकबुद्ध राजर्षि नमि और इन्द्र का संवाद है। दसवें अध्ययन द्रुमपत्रक में जीवन की क्षणभंगुरता का दिग्दर्शन है; और क्षणमात्र भी प्रमाद न करने की प्रेरणा दी गयी है। __ग्यारहवें अध्ययन बहुश्रुत में बहुश्रुत अर्थात् चतुर्दश पूर्वधर की भावपूजा का निरूपण है। - बारहवें अध्ययन हरिकेशीय में मुनि हरिकेशी ब्राह्मणों को यज्ञ का यथार्थ स्वरूप बताते है। तेरहवें चित्त संभूतीय अध्ययन में चित्त-संभूत दो भाइयों की कथा है। एक निदान के कारण नरक हो जाता है और दूसरा निरतिचार तप:साधना के द्वारा मुक्त हो जाता है। चौदहवाँ अध्ययन इषुकारीय है। इसमें छः पात्र हैं। इस अध्ययन में ब्राह्मण संस्कृति पर श्रमण संस्कृति की विजय दिखाई गयी है। पन्द्रहवें सभिक्षुक अध्ययन में भिक्षु के लक्षणों का निरूपण है। सोलहवें ब्रह्मचर्य समाधिस्थान अध्ययन में १० समाधिस्थानों का बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से निरूपण हुआ है। सत्रहवें पापश्रमणीय अध्ययन में साधु को दोषों के परित्याग की प्रेरणा दी गयी है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] ४७ __ अठारहवें संयतीय अध्ययन में राजर्षि संजय का जीवनप्रसंग है। वह गर्दभाली मुनि के उपदेश को सुनकर साधु बन जाता है। ___उन्नीसवें अध्ययन मृगापुत्रीय में मृगापुत्र के दीक्षा लेने और अपने माता-पिता को समझाने का वर्णन है। बीसवें महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन में अनाथी मुनि और राजा श्रेणिक के मध्य हुआ रोचक संवाद संग्रहीत है। इक्कीसवें समुद्रपालीय अध्ययन में साधु के आतंरिक आचार का वर्णन करते हुए यह बताया है कि साधु प्रिय और अप्रिय दोनों स्थितियों में सम रहे। ___ बाईसवें अध्ययन रथनेमीय के राजुल द्वारा रथनेमि को बोधप्रद उपदेश दिया गया है। तेईसवें केशी-गौतमीय अध्ययन में पार्श्वनाथ परम्परा के केशीश्रमण और गौतम गणधर का संवाद है। केशीश्रमण संतुष्ट होकर भगवान महावीर के संघ में सम्मिलित हो जाते हैं। ___चौबीसवें समितीय अध्ययन में पाँच समिति और तीन गुप्ति का वर्णन है। यहाँ बताया है कि माता के समान प्रवचनमाता भी सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है। ___ पच्चीसवें यज्ञीय अध्ययन में यज्ञ का सही स्वरूप और ब्राह्मण शब्द की मार्मिक व्याख्या की गयी है। यहीं यह भी बताया गया है जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता, कर्म से होता है। कर्मानुसार वर्णव्यवस्था का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ [जैन आगम : एक परिचय छब्बीसवें समाचारी अध्ययन में साधुचर्या का निरूपण है। · सत्ताईसवें अध्ययन का नाम खलुंकीय है। खलुंकीय शब्द का अर्थ दुष्ट बैल होता है । यहाँ यह बताया है कि जिस प्रकार दुष्ट बैल अपने स्वामी को दुख देता है, उसी प्रकार अविनीत शिष्य भी गुरू के लिए दुखदायी होता है। अट्ठाईसवें अध्ययन मोक्षमार्ग-गति में बताया गया है कि सम्यक् -दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग के साधन हैं । इन तीनों की पूर्णता ही मोक्ष है। उन्तीसवें अध्ययन का नाम सम्यक्त्व-पराक्रम है। इसकी रचना प्रश्नोत्तर शैली में हुई है। इसमें संवेग-निर्वेद आदि ७३ स्थानों का प्रतिपादन है। यह प्रश्नोत्तरमाला सम्पूर्ण उत्तराध्ययन सूत्र का सार है। तीसवाँ अध्ययन तपोमार्गगति है। इस अध्ययन में बारह प्रकार के तपों और उनके अवान्तर भेदों का विस्तार से निरूपण इकत्तीसवें अध्ययन का नाम चरणविधि है। चरणविधि का अर्थ विवेकमूलक प्रवृत्ति है। साधना में बाधक तत्त्वों की सूची देकर उनसे बचने की प्रेरणा भी दी गयी है। बत्तीसवाँ अध्ययन अप्रमादस्थान है। इसमें साधकों को समस्त प्रमादस्थानों से बचने का उपदेश है। तेतीसवाँ अध्ययन कर्मप्रकृति है। इसमें आठों कर्मों और उनकी १४८ उत्तरप्रकृतियों का वर्णन, उनके बन्ध के कारण, उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति आदि का वर्णन है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] ४९ चौंतीसवें लेश्याध्ययन में लेश्याओं का वर्णन है । इसमें छहों लेश्याओं के वर्ण, रस, स्पर्श, परिणाम, लक्षण आदि पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला गया है । पैंतीसवें अनगारमार्गगति अध्ययन में अनगारधर्म का वर्णन है । छत्तीसवें जीवाजीव विभक्ति अध्ययन में जीव और अजीव के तत्त्वज्ञान का निरूपण है । इस अध्ययन के अन्त में समाधिमरण का भी निरूपण हुआ है । इस प्रकार इस मूलसूत्र में सभी उपयोगी ज्ञान का संकलन हुआ है । इसे भगवान महावीर की अन्तिम वाणी कहा जाता है क्योंकि कल्पसूत्र में कहा गया है कि भगवान महावीर छत्तीस अपृष्ट व्याकरणों का व्याकरण कर प्रधान नामक अध्ययन का प्ररूपण करते-करते सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो गये । भाषा की दृष्टि से भी यह आगम प्राचीन है। इसके सुभाषित व संवाद बौद्ध ग्रन्थों में भी मिलते हैं । उत्तराध्ययन के अनेक श्लोक व उपमाएँ धम्मपद तथा गीता में भी मिलते हैं । ये सब इसकी प्राचीनता और बहुमान्यता को सिद्ध करते हैं । (२) दशवैकालिक सूत्र- दशवैकालिक दूसरा मूलसूत्र है । नन्दी सूत्र के वर्गीकरण के अनुसार उत्कालिक सूत्रों में दशवैकालिक प्रथम है । इसकी रचना आर्य शय्यम्भव ने अपने अल्पायु पुत्र मणक के लिए पूर्वो से निर्यूहण करके की है। इसका रचनाकाल वीर नि.संवत् ७२ के आस-पास है । उस समय प्रभव स्वामी विद्यमान थे । इसकी मान्यता इतनी है कि नवदीक्षित साधु को सर्वप्रथम इसी का अध्ययन कराया जाता है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० [जैन आगम : एक परिचय विषयवस्तु- इस आगम के दस अध्ययन हैं। इनमें पाँचवें अध्ययन के दो और नवें अध्ययन के चार उद्देशक हैं । चौथा और नवाँ अध्ययन गद्य-पद्यात्मक है और शेष अध्ययन पद्यात्मक हैं। इसके प्रथम अध्ययन का नाम द्रुमपुष्पिका है। इसमें धर्म का स्वरूप बताकर श्रमण द्वारा अहिंसा के विवेकयुक्त आचरण का निर्देश है। दूसरे अध्ययन सामण्णपुव्वयं में धृति-दृढ़ता की प्रेरणा है तथा रथनेमि-राजीमती का प्रसंग भी संकेतित है। तीसरे अध्ययन खुड्डियारबंधकहा में बताया गया है कि जिस श्रमण में धृति नहीं होती उसके लिए आचार-अनाचार का भेद भी नहीं होता। चतुर्थ अध्ययन छज्जीवणिया में षट्जीवनिकाय का वर्णन करते हुए श्रमण को इनकी विराधना से दूर रहने की प्रेरणा दी गई है। पाँच महाव्रतों का तथा छठे रात्रिभोजनविरमणव्रत का वर्णन इसमें है। पाँचवे अध्ययन पिंडेसणा में गवेषणैषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा का वर्णन कर श्रमण की निर्दोष तथा आदर्श भिक्षा-विधि पर प्रकाश डाला गया है । छठे अध्ययन महायारकहा में अनाचार (अनाचीर्ण) के विविध पहलुओं पर विचार किया गया है। सातवें अध्ययन वक्कसुद्धि (वाक्य शुद्धि) में साधु को किस प्रकार की भाषा बोलनी चाहिए, यह बताया गया है। आठवें अध्ययन आयारपणिही (आचार प्रणिधि) में आचार निधि को प्राप्त करके किस प्रकार रहना चाहिए-यह निर्देश है । नवें अध्ययन विणयसमाही (विनय समाधि) में 'विनय' शब्द का प्रयोग आचार एवं उसकी विविध धाराओं में हुआ है। आचार्य के साथ शिष्य को कैसा व्यवहार करना चाहिए, विनय और अविनय का भेद एवं परिणाम बताया गया है। साथ ही कहा गया है कि आयु में Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] ५१ छोटा होने पर भी पहले दीक्षित मुनि पूज्य होता है। इनके अतिरिक्त विनयसमाधि, श्रुतसमाधि, तपसमाधि और आचार-समाधि-चार समाधियों का वर्णन है। इनके चार-चार भेद बताये हैं। दसवें सभिक्खु अध्ययन में भिक्षु के लक्षण बताये हैं। दस अध्ययनों के अतिरिक्त दो चूलिकाएँ हैं-पहली रतिवाक्या और दूसरी विवित्तचर्या । रतिवाक्या में बताया गया है कि प्राणियों की असंयम में सहज ही रति और संयम में अरति होती है। विवित्तचर्या में श्रमणों की चर्या, गुणों और नियमों का निरूपण है। विशेषताएँ- चार अनुयोगों में दशवैकालिक का समावेश चरणकरणानुयोग में होता है। इसमें चरण (मूलगुण) और करण (उत्तरगुण) इन दोनों का समावेश है । इसका वाक्यशुद्धि अध्ययन तो जन-साधारण के लिए भी बहुत उपयोगी है। अपनी भाषा और वाणी पर विवेकपूर्ण संयम रखकर मानव अपने और सम्पूर्ण समाज के जीवन में सुख-सरिता प्रवाहित कर सकता है। (३) नन्दीसूत्र- नन्दीसूत्र को चूलिकासूत्र भी कहा जाता है। चूलिकासूत्रों में अवशिष्ट विषयों का वर्णन या वर्णित विषयों का स्पष्टीकरण होता है । आधुनिक भाषा में चूलिका को परिशिष्ट कहा जा सकता है। नन्दीसूत्र भी आगम साहित्य के लिए परिशिष्ट का कार्य करता है। ___ . रचयिता एवं रचनाकाल- नन्दीसूत्र के रचयिता देववाचक हैं। इनका समय वीर नि.संवत् ९८० है। अतः यही काल प्रस्तुत आगम की रचना का माना जा सकता है। विषयवस्तु- इस आगम की रचना गद्य और पद्य दोनों में हुई Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ [जैन आगम : एक परिचय है। इसमें एक अध्ययन, ७०० श्लोक प्रमाण मूल पाठ, ५७ गद्यसूत्र और ९७ पद्य गाथाएँ हैं । इसमें २४ तीर्थंकरों और भगवान महावीर के ११ गणधरों तथा जिन-प्रवचन को नमस्कार करने के बाद स्थविरावली (गुरु-शिष्य परम्परा) दी गयी है। इसमें ज्ञान पर विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें मति, श्रुत आदि पाँच ज्ञान, उनके उत्तरभेद, स्वरूप, वर्गीकरण आदि पर बहुत ही सुन्दर व तार्किक दृष्टि से विस्तृत प्रकाश डाला गया है। हेतुवादिकी आदि तीन संज्ञाओं का भी वर्णन है। श्रुत-ज्ञान के अक्षर-अनक्षर आदि भेद भी बताये गये है। महत्व- नन्दीसूत्र में भावमंगलमय ५ ज्ञानों का वर्णन होने से आगम साहित्य में इसका विशेष महत्व रहा है । ज्ञान की जितनी विस्तृत चर्चा यहाँ मिलती है, उतनी अन्य आगमों में नहीं। . (४) अनुयोगद्वार- अनुयोगद्वार को भी आगम चूलिकासूत्र के नाम से पहचाना जाता है। इसे समस्त आगमों और उनकी व्याख्याओं को समझने के लिए कुंजी ही समझना चाहिए। ____ अनुयोग का अर्थ व्याख्या अथवा विवेचन है । दूसरे शब्दों में, शब्दों की व्याख्या करने की प्रक्रिया अनुयोग है। रचनाकाल एवं रचयिता- इस आगम के रचयिता अथवा संकलनकर्ता आर्यरक्षित हैं। उनका काल वी.नि. संवत् ८२७ से पूर्व का है, इसलिए यही काल अनुयोगद्वार की रचना माना गया है। यह तो सर्वविदित तथ्य है कि आगम को पृथक्त्वानुयोग अर्थात् चार अनुयोगों में उन्होंने ही विभाजित किया था। आगम के मूल अनेकान्तभाव को विस्मृत कर आगे के शिष्य कहीं Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] ५३ एकान्तभाव ग्रहण करके मिथ्या आग्रही न बन जायें इसीलिए उन्होंने नयों का विभाग भी किया था । विषयवस्तु - इस आगम में चार द्वार हैं, १८९९ श्लोक प्रमाण मूल पाठ है, १५२ गद्यसूत्र हैं और १४३ पद्यसूत्र हैं । पंच ज्ञान से मंगलाचरण करने के उपरान्त प्रथम आवश्यकद्वार ( अनुयोग ) शुरू होता है। आवश्यकसूत्र का अंगों के पश्चात् सबसे महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि श्रमण जीवन का प्रारम्भ ही आवश्यकसूत्र में निरूपित सामायिक से होता है। प्रतिदिन प्रात: और सन्ध्या के समय श्रमण जीवन की जो आवश्यक क्रिया हैं, उनकी शुद्धि और आराधना का निरूपण आवश्यकसूत्र में हैं । -- यहाँ आवश्यक के नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि निक्षेपों की दृष्टि से विवेचन किया गया है। सामायिकरूप प्रथम अध्ययन के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय इन चारो द्वारों से चर्चा की गयी है । अनुयोगद्वार का पहला द्वार उपक्रम है, और दूसरा निक्षेप है । निक्षेप के ओघनिष्पन्ननिक्षेप, नामनिष्पन्ननिक्षेप और सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप तीन भेद किये गये हैं। इसके बाद निक्षेप की विस्तृत चर्चा है । तीसरा द्वार अनुगम है। इसके सूत्रानुगम और निर्युक्त्यनुगम, ये दो भेद बताये गये हैं । चौथा द्वार नय है । इसमें नैगम आदि सात नयों का स्वरूप बताया गया है । महत्व - इस आगम में महत्वपूर्ण जैन पारिभाषिक शब्द सिद्धान्तों Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जैन आगम : एक परिचय का विवेचन है । उपक्रम शैली की प्रधानता और भेद - प्रभेदों की प्रचुरता से यह आगम कुछ क्लिष्ट है, लेकिन जैनदर्शन के रहस्य को समझने के लिए बहुत उपयोगी है। चूर्णि टीकाओं आदि में भी इसी शैली को अपनाया गया है। ५४ इसके अतिरिक्त इस आगम में सांस्कृतिक सामग्री भी काफी परिमाण से मिलती है । संगीत के सात स्वर, स्वरस्थान, ग्राम, मूर्च्छनाएँ, संगीत के गणु दोष, नवरस; सामुद्रिक लक्षण, १०८ अंगुल के माप वाले, शंखादि चिन्ह वाले, मस, तिल आदि व्यंजन वाले उत्तम पुरुष भी बताये गये हैं । नक्षत्र आदि के प्रशस्त होने पर सुवृष्टि और अप्रशस्त होने पर दुर्भिक्ष आदि-निमित्त के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है । छेदसूत्र- छेदसूत्रों में जैन साधुओं की आचार संहिता का विस्तृत विवेचन है । यह सम्पूर्ण विवेचन उत्सर्ग, अपवाद, दोष और प्रायश्चित्त- इन चार विभागों में विभाजित किया जा सकता है । ' उत्सर्ग' का अभिप्राय सामान्य विधान और नियम हैं । 'अपवाद' किसी विशेष परिस्थिति में विशिष्ट विधान को कहा जाता है । दोष - उत्सर्ग और अपवाद मार्ग में किसी प्रकार की स्खलना अथवा भंग को कहा जाता है । प्रायश्चित - इसका अर्थ है दोष लगने पर निष्कपट भाव से आलोचना करके और समुचित दण्ड ग्रहण करके पुनः शुद्धीकरण करना । छेदसूत्रों में इन चारों का विवेचन है । अतः कहा जा सकता है कि छेदसूत्रों के समुचित ज्ञान के अभाव में आचारधर्म के गहन रहस्यों और विशुद्ध आचारविचार को समझना कठिन है । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] छेदसूत्रों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार से है: (१) दशाश्रुतस्कन्ध- यह छेदसूत्र है। ठाणांग में इसका दूसरा नाम आचारदशा (आयारदसा) भी दिया गया है। इसमें दोषों से बचने का विधान है। विषयवस्तु- दशाश्रुतस्कन्ध में दस अध्ययन हैं। इसीलिए इसका नाम दशाश्रुतस्कन्ध है । इसका प्रमाण १८३० अनुष्टुप श्लोक है। इसमें २१६ गद्यसूत्र और ५२ पद्यसूत्र हैं। इसमें अध्ययनों को दशा अथवा उद्देशक कहा गया है। प्रथम दशा में २० असमाधिस्थानों का वर्णन है। असमाधिस्थान वे होते हैं, जिनसे चित्त की शांति भंग होती है। दूसरी दशा में शबल दोषों का वर्णन है । शबल दोष का अर्थ है जिनसे चारित्र की निर्मलता दूषित एवं खण्डित होती है। तीसरी दशा में ३३ प्रकार की आशातनाओं का वर्णन है। आशातना गुरु आदि महान् पुरु षों के अपमान को कहा जाता है। इससे सम्यग्दर्शनादि गुण खण्डित हो जाते हैं। चतुर्थ दशा में आठ गणी संपदाओं का वर्णन है । गणी संघ के नायक अथवा आचार्य होते है । पाँचवीं दशा में दस प्रकार की चित्तसमाधि का वर्णन है। छठी दशा में ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का वर्णन है। सातवीं दशा में श्रमण की बारह प्रतिमाओं का वर्णन है । आठवीं दशा में पर्युषणा कल्प का वर्णन है। पर्युषणा का अर्थ होता है आत्मा के समीप रहना, आत्मरमण करना और आत्मस्थ होना। दूसरा अर्थ है एक स्थान पर रहना। यहाँ विभिन्न अपेक्षाओं से पर्युषणा के ९ पर्यायवाची शब्द देकर इनका विवेचन भी किया Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ [जैन आगम : एक परिचय गया है। नवी दशा में ३० महामोहनीयस्थानों का वर्णन है। ये मोहनीय कर्मबंध के हेतुभूत ३० भेद हैं। इन भेदों में हिंसा, गुस रूप से अनाचार सेवन करना, केवल ज्ञानी की निन्दा करना, किसी पर मिथ्या कलंक लगाना, जादू-टोना करना आदि प्रमुख हैं। दसवीं दशा का नाम आयतिस्थान है। इसमें विभिन्न प्रकार के निदानों का वर्णन है। आयति का अर्थ जन्म-मरण का लाभ प्राप्त करना बताया है। निदान वासनाओं अथवा भौतिक सुखों की पूर्ति के लिए आत्मा का दृढ़ संकल्प है। यहाँ राजगृह नगर में भगवान महावीर के समवसरण में श्रेणिक-चेलना के दिव्यभव्य-तेजस्वी रूप को देखकर श्रमण-श्रमणियों द्वारा निदान करने की घटना का उल्लेख करके भगवान द्वारा उनको निदान के कटु परिणामों को समझाने का वर्णन है। विशेषताएँ- प्रस्तुत आगम में भगवान महावीर की जीवनी विस्तार से आठवीं दशा में मिलती है। इस आगम में चित्तसमाधि और धर्म-चिन्तवन का सुन्दर निरूपण हुआ है। इसके प्रणेता चरम श्रुतकेवली भद्रबाहु है। (२) बृहत्कल्प- प्रस्तुत आगम का छेदसूत्रों में गौरवपूर्ण स्थान है। अन्य छेदसूत्रों के समान इसमें भी आचार-सम्बधी विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपवाद, प्रायश्चित्त आदि पर चर्चा उपल्ब्ध होती है। इसे 'कप्प सुत्तं' भी कहते हैं। विषयवस्तु- इसमें ६ उद्देशक, ८१ अधिकार और ४७३ श्लोक प्रमाण मूल पाठ है। प्रथम उद्देशक में ५० सूत्र हैं। इनमें पहले के ५ सूत्र ताल Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] प्रलम्ब सम्बन्धी हैं । श्रमण- श्रमणियों को अपक्व तालफल अथवा तालमूल नहीं लेना चाहिए आदि । मासकल्प सम्बन्धी नियमों में श्रमण- श्रमणियों के एक स्थान पर ठहरने आदि की मर्यादा बतायी गयी है । इसी सन्दर्भ में ग्राम, नगर, खेट, आदि की परिभाषा भी बतायी गयी है। रात्रिविश्राम आदि के नियम भी दिये गये हैं । विहार क्षेत्र की मर्यादा भी निश्चित की गयी है । ५७ दूसरे उद्देशक में श्रमण- श्रमणियों के ठहरने योग्य आश्रयस्थान का वर्णन है । तीसरे उद्देशक में बताया गया है कि श्रमणों को श्रमणियों के उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। इसी प्रकार श्रमणियाँ भी श्रमणों के उपाश्रय में न रहें । चौथे उद्देशक में अब्रह्मसेवन और रात्रिभोजन आदि व्रतों में दोष लग जाने पर प्रायश्चित का विधान है । इसी उद्देशक में आहार ग्रहण करने के नियम, विहार के नियम और मृत श्रमणश्रमणी की अन्तिम क्रिया के सम्बन्ध में निर्देश हैं । पाँचवें उद्देशक में आहार आदि के खाने पर विशेष चिन्तन है । छठे उद्देशक में श्रमणों की वाक्यशुद्धि पर विशेष बल दिया गया है । महत्व - प्रस्तुत आगम में श्रमणों के जीवन और व्यवहार विषयक अनेक तथ्यों का सूक्ष्म विवेचन है । यही इस आगम की विशेषता है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जैन आगम : एक परिचय (३) व्यवहारसूत्र - बृहत्कल्प और व्यवहार एक-दूसरे के पूरक हैं । व्यवहार में भी श्रमणों की आचार - विषयक बातों पर चिन्तन है । यह भी छेदसूत्र है और अनुयोगों के अनुसार इसका वर्गीकरण चरणानुयोग में है । ५८ विषयवस्तु - इसमें १० उद्देशक हैं, ३७३ अनुष्टुप श्लोक प्रमाण मूल पाठ है और सूत्र संख्या २६७ है । प्रथम उद्देशक में प्रायश्चित्त का वर्णन है । साथ ही यह भी बताया है कि आचार्य, उपाध्याय के समक्ष आलोचना करके और प्रायश्चित लेकर शुद्ध हो जाना चाहिए। यदि वे न हों तो संभोगी, सधार्मिक और बहुश्रुत के समक्ष आलोचना करनी चाहिए । दूसरे उद्देशक में भी प्रायश्चित का चिन्तन है । तीसरे उद्देशक में आचार्य, उपाध्याय बनने की योग्यता निर्धारित की गयी है। चौथे उद्देशक में यह बताया गया है कि यदि आचार्य अथवा उपाध्याय उपस्थित न हों तो इनके अभाव में श्रमणों को किस प्रकार रहना चाहिए । पाँचवें उद्देशक में श्रमणियों के लिए निर्देश हैं तथा वैयावृत्य सम्बन्धी नियमों का निरूपण है । छठे उद्देशक में बताया गया है कि अगीतार्थ (अल्पश्रुत) साधु को बिना स्थविरों की अनुमति के अपने स्वजनों के घर नहीं जाना चाहिए। साथ ही आचार्य - उपाध्याय की सेवा करने का विधान भी है । . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ जैन आगम : एक परिचय] सातवें उद्देशक में बताया गया है कि साधु स्त्री को और साध्वी पुरुष को दीक्षा न दे। यदि परिस्थितिवश ऐसा करना पड़े तो शीघ्र ही स्त्री को साध्वीसंघ में और पुरुष को श्रमणसंघ के सुपुर्द कर दे। __ आठवें उद्देशक में वस्त्र, पात्र आदि की मर्यादा बताई गई है। साथ ही आहार की चर्चा में अल्पाहारी, द्विभागप्राप्त, प्रामाणोपेताहारी तथा अवमौदरिक साधु के आहार का परिमाण बताया है। नवें उद्देशक में भिक्षु प्रतिमाओं का वर्णन है। दसवें उद्देशक में यवमध्यचन्द्रप्रतिमा या वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा का स्वरूप बताया गया है। व्यवहार के आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत व्यवहार ये पाँच प्रकार हैं। इनमें आगम का स्थान प्रथम है। स्थविरों के ३ भेद, शैक्ष-भूमियों के ३ प्रकार, दस प्रकार की वैयावृत्य का वर्णन है और बताया गया है कि वैयावृत्य से महानिर्जरा होती है। विशेषताएँ- इस आगम की अनेक विशेषताएँ हैं । सर्वप्रथम, इसमें स्वाध्याय पर विशेष बल दिया गया है। साथ ही अयोग्य काल में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, ऐसा बताया गया है । अनध्याय काल की विवेचना भी की गई है। दूसरे, श्रमण-श्रमणियों के मध्य अध्ययन की सीमाएँ निर्धारित की गई हैं। साध्वियों के निवास, चर्या, उपधान, वैयावृत्य आदि के नियम निर्धारित किये गये हैं। तीसरे, संघ व्यवस्था के नियमोपनियमों का विवेचन किया गया है। चौथे, आहार के सम्बन्ध में अल्पाहारी, ऊनोदरी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० [जैन आगम : एक परिचय आदि का भी वर्णन है। पाँचवें, श्रमण-श्रमणी के विहार तथा आचार्य, उपाध्याय बनने की योग्यता का भी निदर्शन है। छठे, आलोचना, प्रायश्चित्त आदि की विधियों का विस्तृत विवेचन भी इसमें मिलता है। इस आगम के रचयिता भी श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। (४) निशीथ- छेदसूत्रों में निशीथ का प्रमुख स्थान है। इसे प्राकृत में 'णिसीह' अथवा 'निसीह' कहा गया है। संस्कृत में 'णिसिहिया' के 'निशीथिका' और 'निषिधिका' दोनों रूप हो सकते हैं। 'निषिधिका' का अर्थ निषेध करने वाला और 'निशीथिका' का अर्थ रात्रि सम्बन्धी अथवा अन्धकार या अप्रकाश होता है। निशीथभाष्य (गाथा ६४ ) में इसे 'अप्रकाश ' ही माना है। निशीथ के अध्ययन के लिए निर्धारित मर्यादाएँ- यह सूत्र अपवाद बहुल है, अतः इसे प्रत्येक साधक को नहीं पढ़ाया जाता। निशीथचूर्णि में बताया गया है कि पाठक तीन प्रकार के होते हैं-(१) अपरिणामिक-जिनकी बुद्धि अपरिपक्व होती है, (२) परिणामिक-जिनकी बुद्धि परिपक्व होती है, और (३) अतिपरिणामिक-जिनकी बुद्धि तर्कपूर्ण होती है। इनमें से अपरिणामिक और परिणामिक निशीथ पढ़ने योग्य नहीं है। निशीथ भाष्य (६७० २-३) में कहा गया है कि जो जीवन-रहस्य को धारण कर सकता है, वही निशीथ पढ़ने का अधिकारी है। यहाँ 'रहस्य' शब्द इस आगम की गोपनीयता का परिचायक है। निशीथचूर्णि, (गा. ६२६५), व्यवहार भाष्य (उद्देशक ७, गा. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] ६१ २०२ - ३) और व्यवहारसूत्र (उद्देशक, १० गा. २० - २१) के अनुसार निशीथ के अध्ययन के लिए यह प्रतिबन्ध लगाया गया है किकम से कम ३ वर्ष का दीक्षित हो, गाम्भीर्य आदि गुणों से युक्त हो, कांख में बालयुक्त और १६ वर्ष की आयु वाला हो, वही निशीथ का वाचक हो सकता है । लेकिन साथ ही व्यवहारसूत्र ( उद्देशक ३, सू. ३ और सूत्र १ ) में यह विधान भी है कि निशीथ का ज्ञाता हुए बिना कोई श्रमण न स्वतन्त्र विचरण कर सकता है और न उपाध्याय आदि पद का अधिकारी ही बन सकता है। इसीलिये व्यवहारसूत्र में निशीथ को एक मानदण्ड के रूप में प्रस्तुत किया गया है और निशीथ का ज्ञाता हुए बिना कोई साधु प्रायश्चित देने का अधिकारी नहीं माना गया है । अतः इस शास्त्र का महत्व स्पष्ट है । इतना महत्वपूर्ण ग्रन्थ होते हुए भी इन मर्यादाओं के कारण ही इसका वाचन सभा में नहीं होता । विषयवस्तु निशीथ में चार प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है । इसके २० उद्देशक हैं । १९ उद्देशकों में प्रायश्चित्त का विधान है और २० वें उद्देशक में प्रायश्चित्त देने की प्रक्रिया का निरूपण है । इस आगम में वर्णित चार प्रकार के प्रायश्चित्त ये है - (१) गुर मासिक, (२) लघुमासिक, (३) गुरुचातुर्मासिक और (४) लघुचातुर्मासिक। पहले उद्देशक में गुरुमासिक प्रायश्चित्त का विधान है, दूसरे से पाँचवें उद्देशक में लघुमासिक का, छठे से ग्यारहवें तक में गुरुचातुर्मासिक का और बारहवें से उन्नीसवें तक में लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित का विधान दिया गया है। बीसवें उद्देशक में आलोचना एवं प्रायश्चित्त करते समय लगने वाले दोषों का Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ [ जैन आगम : एक परिचय विचार किया गया है तथा उनके लिए विशेष प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है । इस आगम में लगभग १५०० सूत्र हैं इस आगम का विषय गोपनीय है इसलिए उसकी विशेष चर्चा करना यहाँ अपेक्षित नहीं; किन्तु संक्षेप में इतना ही कह देना काफी है कि महाव्रत, पंच समिति, आदि श्रमण - जीवन के आचरणीय व्रतों में लगने वाले सम्भावित दोषों के प्रायश्चित्त का विधान इस आगम में हुआ है । रचयिता एवं रचनाकाल - निशीथ के रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी माने जाते हैं । इसका सम्बन्ध चरणानुयोग से है । आचारांग की पाँच चूलाओं में अन्तिम चूला का नाम अग्र है और इसीलिये निशीथ का नाम भी ' अग्र' है क्योंकि यह आचारांग की पाँचवीं चूला है । इसकी रचना नवें पूर्व आचारप्राभृत से की गई है, इसलिए इसका नाम 'आचार प्रकल्प' भी है । आगम साहित्य में निशीथ का नाम 'आयारकप्प' भी मिलता है । • कुछ चिन्तकों ने इस आगम के श्रुतकेवली भद्रबाहुरचित होने पर शंका उठाई है। लेकिन किसी भी शास्त्र के रचनाकाल को निर्धारित करने के लिए अन्तः साक्ष्य प्रबल माना जाता है । निशीथ के उन्नीसवें उद्देशक में यह आता है कि 'नव ब्रह्मचर्य ( आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध) को छोड़ कर अन्य सूत्र को पहले पढ़ाने से लघु- चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि दशवैकालिक सूत्र के निर्माण से पहले ही आचारांग को प्रथम पढ़ाया जाता था और दशवैकालिक Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] ६३ के निर्माण के बाद आचारांग के स्थान पर दशवैकालिक पढ़ाया जाने लगा । दशवैकालिक आर्य शय्यंभव की रचना है और दशवैकालिक का रचनाकाल वीर नि. संवत् ७२ है । यदि निशीथ दशवैकालिक के बाद की रचना होती तो उसमें उपर्युक्त प्रायश्चित्त का विधान न होता। अतः स्पष्ट है कि निशीथ मूलतः स्थविरोंगणधरों की रचना है, इसके अर्थ के उपदेष्टा तीर्थंकर हैं और इसका निर्यहण श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने नवें पूर्व आचारप्राभृत से किया है । महत्व - निशीथ का जैन आगमों में विशिष्ट स्थान है । प्रायश्चित्त के सर्वांगीण विधान की दृष्टि से यह आगम अन्य आगमों से विलक्षण है । आवश्यकसूत्र - आवश्यक जैन साधना का प्राण है । यह जीवन-शुद्धि, आत्मोन्नति और दोष परिमार्जन का महासूत्र है । 1 जो श्रमण - श्रमणी श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध संध के लिए आवश्यक रूप से प्रतिदिन करने योग्य है, वह आवश्यक कहलाता है और जिस आगम में उसका वर्णन है वह आवश्यकसूत्र के नाम से अभिहित किया गया है। अनुयोगद्वार में आवश्यक के अवश्य करणीय, ध्रुव निग्रह, विशोधि, न्याय, आराधना, मार्ग, अध्ययन षट्कवर्ग आदि पर्यायवाची नाम दिये हैं । विषयवस्तु - आवश्यकसूत्र में ६ अध्ययन हैं- (१) सामायिक, (२) चतुर्विशतिस्तव, (३) वंदन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग (६) प्रत्याख्यान । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ [जैन आगम : एक परिचय सामायिक का अर्थ राग-द्वेषरहित समताभाव है । यह उत्कृष्ट साधना है। सावध योगों से विरत होकर जब आत्मा में रमण किया जाता है तब सामायिक की साधना होती है। सामायिक अन्य सभी साधनाओं का मूल है । इसके बिना अन्य सभी साधनाएँ व्यर्थ हैं । इसीलिए उपाध्याय यशोविजयजी ने इसे सम्पूर्ण जिनवाणी का सार और जिन-भद्रगणी क्षमाश्रमण ने १४ पूर्व का 'अर्थपिण्ड' कहा है। ___ चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक सूत्र का दूसरा अध्ययन है। इसमें साधक २४ तीर्थंकरों की स्तुति करता है। इस स्तुति से साधक का अहंकार नष्ट होता है और उसे महान आध्यात्मिक बल की प्राप्ति होती है, क्योंकि तीर्थंकर आध्यात्मिक जगत के सर्वोत्कृष्ट नेता हैं। उनकी स्तुति करने का अभिप्राय है उनके गुणों को अपने जीवन में उतारना। तृतीय अध्ययन वन्दन है। तीर्थंकरदेव की स्तुति के बाद गुरू को वन्दन किया जाता है; क्योंकि देव के बाद गुरु का क्रम है। मन-वचन-काया का वह समस्त व्यवहार जिसमें गुरुदेव के प्रति भक्ति और बहुमान प्रगट हो, वन्दन है। आवश्यकनियुक्ति में वन्दन के चितिकर्म, पूजाकर्म, कृतिकर्म आदि पर्याय दिये गये हैं। चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का अभिप्राय है अशुभ भावों में गयी आत्मा को शुभभावों में लौटाना। सावद्य और अशुभयोगों से निवृत्त होकर निःशल्य भाव से उत्तरोत्तर शुभ और शुद्ध भावों में प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण कहलाता है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] ६५ साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग ये पाँच भयावह दोष हैं । साधक को इन दोषों को दूर करके और इनके प्रतिपक्षी गुणों को धारण करना चाहिए। जैसे मिथ्यात्व को त्याग कर सम्यक्त्व, अविरति को त्यागकर विरति, प्रमाद के स्थान पर अप्रमाद, कषाय के बदले उपशम और संसार बढ़ाने वाले अशुभयोगों के स्थान पर शुभयोग में प्रवृत्ति करना तथा अन्त में योग निरोध कर 'सर्व-संवर' की भूमिका में पहुँचनासाधक का लक्ष्य है। काल की दृष्टि से प्रतिक्रमण के पाँच भेद हैं- (१) दैवसिक (२) रात्रिक (३) पाक्षिक (४) चातुर्मासिक और (५) सांवत्सरिक। पाँचवा अध्ययन कायोत्सर्ग है। अनुयोगद्वार में कायोत्सर्ग का दूसरा नाम 'व्रणचिकित्सा' दिया गया है। धर्मसाधना अथवा जीवन व्यवहार के समय प्रमादवश जो भूलें हो जाती हैं, आध्यात्मिक शब्दावली में वे 'व्रण' कहे गये हैं। कायोत्सर्ग एक प्रकार की औषधि है जो उन्हें ठीक करती है। 'कायोत्सर्ग' का शाब्दिक अर्थ काय का उत्सर्ग है। काय के उत्सर्ग का सही अभिप्राय काय की ममता-ममत्व का त्याग है। कायोत्सर्ग के चार रूप बताये हैं (१) उत्थित-उत्थित, (२) उत्थित-निविष्ट, (३) उपविष्ट-उत्थित, और (४) उपविष्ट-निविष्ट । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जैन आगम : एक परिचय उत्थित - उत्थित में साधक आत्मा से भी खड़ा होता है और शरीर से भी । उत्थित - निविष्ट में शरीर से तो खड़ा होता है लेकिन अशुभभावों में रमण करने के कारण आत्मा से बैठ जाता है । उपविष्ट - उत्थित में शारीरिक अस्वस्थता अथवा निर्बलता के कारण शरीर से तो बैठा रहता है किन्तु उसकी आत्मा शुभभावों में रमण करती है । उपविष्ट - निविष्ट कायोत्सर्ग में साधक शरीर और आत्मा दोनों प्रकार से ही बैठा रहता है । यह कार्योत्सर्ग नहीं, किन्तु दम्भ मात्र है । 1 ६६. छठा अध्ययन प्रत्याख्यान है । प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग करना । अनुयोगद्वार में इसका दूसरा नाम 'गुणधारण' है । प्रत्याख्यान के दो भेद हैं- (१) मूलगुणप्रत्याख्यान, और (२) उत्तर- गुणप्रत्याख्यान । मूलगुणप्रत्याख्यान के भी दो भेद हैं- (१) सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान, और (२) देशमूलगुणप्रत्याख्यान । इसी प्रकार उत्तरगुणप्रत्याख्यान के भी सर्व और देश की अपेक्षा दो भेद हैं। मूलगुण यावज्जीवन के लिए धारण किये जाते हैं और उत्तरगुण समय की मर्यादा के साथ । श्रावक के लिए तीन (३) गुणव्रत और चार (४) शिक्षाव्रत देशउत्तरगुण- प्रत्याख्यान है। अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, नियन्त्रित साकार, निराकार, परिमाणकृत, निरवशेष, सांकेतिक, अद्धासमय - यह दस प्रकार का प्रत्याख्यान सर्वउत्तरगुणप्रत्याख्यान है जो श्रमण और श्रावक दोनों के लिए है । , प्रत्याख्यान आवश्यक संयम साधना में तेजस्विता लाता है और त्याग - वैराग्य को दृढ़ता प्रदान करता है, इसलिए प्रत्येक Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] ६७ साधक को प्रत्याख्यान करना आवश्यक है। द्रव्य और भाव- ऊपर वर्णित छहों आवश्यक द्रव्य और भाव दोनों अपेक्षाओं से पालनीय हैं। द्रव्य का अर्थ है बाह्य दृष्टि और कार्यकलाप तथा भाव का अभिप्राय अन्तरंग से है। उदाहरणार्थसामायिक में बैठना आदि शारीरिक क्रियाएँ द्रव्य हैं और आत्मा का स्थिरता शुभ-शुद्धभावों में रमण करना भाव। इसी तरह चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन आदि में भी समझ लेना चाहिए। भावप्रत्याख्यान का अभिप्राय कषाय तथा दोषों के त्याग से है और द्रव्यप्रत्याख्यान का भौतिक उपभोग-परिभोग सामग्री के त्याग से। यह स्मरणीय है कि साधना के प्रत्येक मार्ग में भाव का ही अधिक महत्व है, द्रव्य का बहुत कम । बाह्य क्रियाओं का महत्व तभी है जब अन्तरंग भी उनमें रमा हो। महत्व- प्रस्तुत आगम बहुत ही महत्वपूर्ण है। वैदिक परम्परा की सन्ध्या, ईसाई धर्म की प्रार्थना, बौद्धधर्म की उपासना और इस्लाम-धर्म की नमाज से भी बढ़ कर स्थान जैनधर्मसम्मत आवश्यक का है। यह दोषशुद्धि गुणवृद्धि के लिए राम-रसायन के समान है, संजीवनी बूटी है। उपरोक्त पृष्ठों में बत्तीस (३२) आगमों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है । आगम तो रत्नाकर के समान गूढ़ रहस्यों से भरे और अति विशाल एवं धन-गम्भीर हैं। इनकी विषय-वस्तु का दिग्दर्शनमात्र ही यहाँ हो सका है। एक प्रश्न यह है कि आगम तो अधिक हैं, किन्तु स्थानकवासी परम्परा इन ३२ को ही क्यों प्रमाणभूत मानती है? इस प्रश्न का Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ [जैन आगम : एक परिचय समाधान यह है कि ये आगम भगवान महावीर की मूलवाणी हैं अथवा मूलवाणी से सम्मत हैं । इनमें प्रक्षिप्त अंश या तो बिल्कुल ही नहीं है अथवा न के बराबर है। इन आगमों को प्रमाणभूत मानने का कारण यही है। प्रकीर्णक-साहित्य प्रकीर्णक आगम साहित्य- नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार प्रकीर्णक (पइन्ना) वे कहलाते हैं जिनकी रचना तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण करते हैं। प्रकीर्णकों की संख्या १४००० मानी गयी है, लेकिन वर्तमान में उपलब्ध प्रमुख प्रकीर्णक दस हैं। इनका संक्षिप्त परिचय निम्न है: (१) चतुःशरण- इसका दूसरा नाम 'कुशलानुबन्धि अध्ययन' भी है। ये चार ही शरण माने गये हैं। इसीलिए इसका नाम चतु:शरण है। इन चारों के अतिरिक्त संसार में कोई भी शरणभूत नहीं है, यही इस आगम का हार्द है।। प्रारम्भ में षडावश्यक पर प्रकाश डाला गया है। इसमें बताया है कि सामायिक से चारित्र की विशुद्धि होती है , चतुर्विशतिजिनस्तवन से दर्शन की विशुद्धि होती है, गुरुवन्दन से ज्ञान निर्मल होता है, प्रतिक्रमण से ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तीनों की विशुद्धि होती है, कायोत्सर्ग से तप की विशुद्धि होती है और प्रत्याख्यान से वीर्य (पण्डितवीर्य) की शुद्धि होती है। इस आगम के रचयिता वीरभद्र माने जाते हैं। (२) आतुरप्रत्याख्यान (आउरपच्चक्खाण)- यह प्रकीर्णक मरण से सम्बन्धित है। इसलिए इसे 'अन्तकाल प्रकीर्णक' Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ जैन आगम : एक परिचय] भी कहा जाता है । इसमें ७० गाथाएँ है और दस गाथा के बाद कुछ भाग गद्य में भी है। विषयवस्तु- इसमें सर्वप्रथम पण्डितमरण की विवेचना की गयी है। मरण के तीन प्रकार-बालमरण, बालपण्डितमरण और पण्डितमरण बताये गये हैं। बालमरण करने वाला विराधक और पण्डितमरण करने वाला आराधक होता है, इसे तीन भव में मुक्ति प्राप्त हो जाती है। बालपण्डितमरण की विवेचना करते हुए देशविरत का स्वरूप बताया गया है। इसमें श्रावक के बारहव्रत, संलेखना तथा बालपण्डितमरण वाले जीव की वैमानिक देवों में उत्पति बताकर सात भवों मे मुक्ति बतायी गयी है। इसके रचयिता वीरभद्र माने गये हैं। (३) महाप्रत्याख्यान (महापच्चक्खाण)- इसमें सर्वत्र त्याग की विवेचना, चर्चा और उसका महत्व दिखाया गया है। इसमें १४२ गाथाएँ हैं। विषयवस्तु- प्रारम्भ में तीर्थंकर, जिन, सिद्ध और संयतों को नमस्कार किया गया है और उसके बाद पाप के प्रत्याख्यान की विस्तृत विवेचना है। इसमें विशेष रूप से प्रत्याख्यान और ममत्वत्याग का उपदेश एवं प्रेरणा है। (४) भक्तपरिज्ञा- इसमें भक्तपरिज्ञामरण का विशेष रूप से वर्णन हुआ है। इसमें १७२ गाथाएँ हैं । विषयवस्तु- इसमें भक्तपरिज्ञामरण के भी सविचार और अविचार-दो भेद किये गये हैं। इसमें बताया है कि सम्यग्दृष्टि को ही मुक्ति हो सकती है और मुक्त अवस्था में भी सम्यग्दर्शन साथ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ৩০ [जैन आगम : एक परिचय रहता है। इसमें मन को वश में करने के अनेक दृष्टान्त दिये गये हैं। भक्तपरिज्ञामरण का फल अच्युत कल्प, सर्वार्थसिद्ध अथवा मुक्ति प्राप्त करना बताया है। इसके रचयिता वीरभद्र हैं और गुणरत्न ने इस पर अवचूरि लिखी है। (५) तन्दुलवैचारिक (तन्दुलवेयालिय)- इसमें १०० वर्ष की आयु वाला मनुष्य कितना तन्दुल (चावल) खाता है, इस बात पर विस्तृत चिन्तन होने के कारण इसका नाम 'तन्दुलवैचारिक' पड़ गया। वैसे इसमें मुख्य रूप से गर्भ विषयक वर्णन है। इसमें १३९ गाथाएँ हैं । बीच-बीच में कुछ गद्यसूत्र भी हैं। विषयवस्तु- सर्वप्रथम भगवान महावीर को नमस्कार किया गया है। फिर मनुष्य के गर्भवास के काल का वर्णन है । गर्भस्थ मनुष्य के मुहूर्त, उसके श्वासोच्छ्वास, गर्भ में स्थित जीवों की अधिकतम संख्या, गर्भ समय के आहार आदि का वर्णन है। माता-पिता के बालक में तीन-तीन अंग भी बताये हैं। गर्भज जीव की दस दशाओं का भी वर्णन है। व्यावहारिक दृष्टि से काल की गणना की गयी है। स्त्रियों की प्रकृति का विस्तृत वर्णन है। सबसे अन्त में शरीर को जन्म-जरा-मरण आदि व्याधियों का घर बताकर सम्पूर्ण दुखों से मुक्ति प्राप्ति के प्रयास की प्रेरणा दी गयी है। (६) संस्तारक- इसमें मृत्यु के समय अपनाने योग्य तृण आदि की शैया का वर्णन है । इस ग्रन्थ में १२३ गाथाएँ हैं। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] ७१ विषयवस्तु- इसमें समस्त दुष्प्रवृत्तियों का परित्याग करके मन-वाणी-शरीर को संयम में रखकर हँसते-हँसते मृत्यु का वरण करने की प्रेरणा है। संथारे की साधना से मृत्यु को सफल बनाने का उपदेश है। अतीत काल में संथारा करने वाली कुछ महान आत्माओं की प्रशंसा भी इस ग्रन्थ में की गयी है। इस पर गुणरत्न ने अवचूरि की रचना की है। (७) गच्छाचार पइन्ना- यह प्रकीर्णक महानिशीथ, बृहत्कल्प व व्यवहार सूत्रों के आधार पर लिखा गया है। इसमें गच्छ अर्थात् समूह में रहने वाले श्रमण-श्रमणियों के आचार का वर्णन है। इसमें १३७ गाथाएँ हैं। विषयवस्तु- इसमें बताया गया है कि जो श्रमण आध्यात्मिक साधना से अपने जीवन की उन्नति करना चाहता है, वह गच्छ में ही रहे । इसमें गच्छ का महत्व प्रतिपादन किया गया है, साथ ही श्रमण-श्रमणियों के आचार-व्यवहार का भी विस्तृत वर्णन है। इस पर आनन्दविमल सूरि के शिष्य विजयविमल गणि ने टीका लिखी है। (८) गणिविद्या (गणिविज्जा)- यह ज्योतिष का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें केवल ८२ गाथाएँ हैं। विषयवस्तु- इसमें दिवस, तिथि, नक्षत्र, करण, ग्रहदिवस, मुहूर्त, शकुन, लग्न और निमित्त इन नौ विषयों का विवेचन है। इनमें क्रमश: पहले से बाद के विषयों को बलवान बताया है। इसमें होरा का भी वर्णन है। इस ग्रन्थ में शुभ-अशुभ तिथियाँ, नक्षत्रों, स्थिर नक्षत्रों एवं Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जैन आगम : एक परिचय विभिन्न नक्षत्रों तथा तिथियों में विभिन्न कार्य करने का निर्देश है। संक्षेप में यह ग्रन्थ फलित ज्योतिष सम्बन्धी विशिष्ट जानकारी देता है । ७२ (९) देवेन्द्रस्तव (देविंदथव ) - इस प्रकीर्णक में ३२ देवेन्द्रों का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है । इसमें ३०७ गाथाएँ हैं । विषयवस्तु सर्वप्रथम इसमें ३२ प्रकार के देवेन्द्रों का विस्तारपूर्वक वर्णन है । उसके बाद ८ प्रकार के व्यन्तर देवों, ज्योतिषी देवों और वैमानिक देवों का वर्णन है । इसमें ३२ प्रकार के देवेन्द्र कहकर भी अधिक इन्द्रों का वर्णन है । विशेष- इस ग्रन्थ में ३२ प्रकार के इन्द्र कहे गये हैं, जबकि मान्यता ६४ इन्द्रों की है- भवनपति देवों के २०, बाणव्यन्तरों के ३२ ज्योतिषी देवों के २ और वैमानिकों के १० । इसके रचियता भी वीरभद्र हैं । (१०) मरणसमाधि ( मरणसमाही ) - इस प्रकीर्णक का दूसरा नाम 'मरण- विभक्ति' भी है । यह प्रकीर्ण अन्य सभी प्रकर्णकों से बड़ा है। इसकी रचना (१) मरणविभक्ति (२) मरणविशोधि (३) मरणसमाधि (४) संलेखना श्रुत (५) भक्तपरिज्ञा ( ६ ) आतुरप्रत्याख्यान (७) महाप्रत्याख्यान (८) आराधना - इन आठ ग्रन्थों के आधार पर हुई है । विषयवस्तु - इसमें आचार्य ने समाधिमरण के कारणभूत १४ द्वार बताये हैं । इन १४ द्वारों के नाम ये हैं - (१) आलोचना ( २ ) संलेखना (३) क्षमापना (४) काल (५) उत्सर्ग (६) उद्ग्रास Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] ७३ (७) संथारा (८) निसर्ग (९) वैराग्य (१०) मोक्ष (११) ध्यान विशेष (१२) लेश्या (१३) सम्यक्त्व और (१४) पादपोपगमन। इसमें बताया गया है कि आलोचना निःशल्य होकर करनी चाहिए। साथ ही आलोचना के दोषों का भी वर्णन किया गया है। संलेखना के आभ्यन्तर और बाह्य दो भेद बताये गये हैं। आभ्यन्तर संलेखना कषायों को कृश करना है और बाह्य संलेखना शरीर को कृश करना। संलेखना की विधि का भी दिग्दर्शन है। पण्डितमरण का विवेचन है। पादपोपगमन संथारा करके मुक्त होने वाले महान पुरुषों के दृष्टान्त भी दिये हैं । अन्त में अनित्य, अशरण आदि १२ भावनाओं का भी वर्णन है। (११) चन्द्रवेध्यक (चन्दाविज्झय)- इस प्रकीर्णक में १७५ गाथाएँ हैं । इसमें बताया गया है कि जिस प्रकार जरा-सा भी असावधान पुरुष राधा-वेध नहीं कर सकता उसी प्रकार अन्तिम समय में तनिक भी प्रमाद का आचरण करने वाला साधक मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। __इस प्रकीर्णक में (१) विनय (२) आचार्यगुण (३) शिष्यगुण (४) विनयनिग्रहगुण (५) ज्ञानगुण (६) चरणगुण (७) मरणगुण, इन सात विषयों का विस्तार से विवेचन किया गया है। (१२) वीरस्तव (वीरत्थव)- इस प्रकीर्णक में ४३ गाथाएँ हैं । इसमें भगवान महावीर की स्तुति की गई है और उनके नाम बताये गये हैं। उपर्युक्त प्रकीर्णकों के अतिरिक्त अन्य प्रकीर्णकों की भी रचना हुई है। इनमें से कुछ हैं-तित्थागोली, अजीवकल्प, सिद्धपाहुड, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ [जैन आगम : एक परिचय द्वीपसागर-प्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरंडक, अंगविद्या, यौनिप्राभृत आदि। प्रकीर्णक साहित्य की विशेषताएँ- सभी प्रकीर्णकों में जीवम को शुद्ध बनाने की प्रक्रिया बताई गई है। साधक के जीवन में निर्मलता और पवित्रता भरने के बारे में विस्तारपूर्वक चिन्तन हुआ है। कुछ प्रकीर्णकों में ज्योतिष और निमित्त सम्बन्धी विषयों पर भी चिन्तन हुआ है। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य साधकों के लिए तो उपयोगी है ही, व्यावहारिक जीवन में भी इसका काफी महत्व है। आगमों का व्याख्या साहित्य आगम गुरु-गम्भीर ज्ञान के सागर हैं। इनके रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए व्याख्या साहित्य की रचना हुई। यह व्याख्या साहित्य भी काफी विशाल है। इसे साधारणतया पाँच भागों में विभक्त किया जाता है (१) नियुक्तियाँ (निज्जुत्ति) (२) भाष्य (भास) (३) चूर्णि (चुण्णि) . (४) संस्कृत टीकाएँ (५) लोकभाषाओं में लिखा हुआ व्याख्या साहित्य-टब्बा। नियुक्तियाँ ये आगम साहित्य पर सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में लिखी गयी पद्यबद्ध टीकाएँ हैं। इनमें मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद पर व्याख्या न Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] करके मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गयी है। नियुक्ति का लक्षण- आवश्यकनियूक्ति (गाथा ८३) में नियुक्ति का लक्षण बताते हुए कहा गया है- सूत्रार्थयों: परस्परं निर्योजन सम्बन्धनं नियुक्तिः (सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध बताने वाली व्याख्या को नियुक्ति कहते हैं)। इस प्रकार नियुक्ति निश्चित अर्थ का प्रतिपादन करने वाली युक्ति है। नियुक्तियों की रचनाशैली- नियुक्तियों की रचना निक्षेप पद्धति पर हुई है। निक्षेप पद्धति का अभिप्राय है- किसी एक पद के अनेक संभावित अर्थ बताने के बाद उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध करके प्रस्तुत अर्थ को ग्रहण करना। उदाहरणार्थ-'अज' शब्द के बकरा और तीन वर्ष पुराना यव अथवा चावल दोनों अर्थ होते है। किन्तु यज्ञ के सम्बन्ध में बकरा अर्थ का निषेध करके तीन वर्ष पुराना चावल ग्रहण करना। यह शैली जैन-न्याय की बहुत ही प्रिय शैली रही है। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) ने भी इसी शैली को उपयुक्त माना है । आवश्यकनियुक्ति (गाथा ८८) में उन्होंने लिखा है- एक शब्द के अनेक अर्थ होते है; किन्तु कौनसा अर्थ किस प्रसंग के लिए उपयुक्त है, श्रमण भगवान महावीर के उपदेश के समय कौन-सा अर्थ किस शब्द से सम्बद्ध रहा हैआदि सभी बातों को दृष्टि में रखते हुए, सही दृष्टि से अर्थ निर्णय करना और उस अर्थ का मूल सूत्र से सम्बन्ध स्थापित करना नियुक्ति का प्रयोजन है। इस प्रकार नियुक्ति की शैली न्याय तथा भाषा वैज्ञानिक अनुसन्धान की दृष्टि से बहुत ही उचित है। नियुक्तियों के आधार- समवायांग, नन्दी और स्थानांग सूत्र में जहाँ द्वादशांगी का परिचय दिया गया है वहाँ 'संखेज्जाओ | Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ [जैन आगम : एक परिचय निज्जुत्तीओ' (संख्यात नियुक्तियाँ) पाठ मिलता है। इससे यह स्पष्ट है कि आगमकाल में भी नियुक्तियों की परम्परा थी। ऐसा अनुमान है कि जिस प्रकार अध्ययन कराते समय आजकल के प्रोफे सर विद्यार्थियों को नोट्स आदि लिखाते हैं, उसी प्रकार प्राचीन आचार्य शिष्यों को वाचना देते समय विशिष्ट शब्दों के विशिष्ट सन्दर्भो में विशिष्ट और उपयुक्त अर्थ का स्पष्टीकरण करते होंगे। शिष्यों को आगम में प्रयुक्त शब्दों को हृदयंगम कराने के लिए यह आवश्यक था। इन्हीं का संग्रह नियुक्ति कहलाया। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने इन्हीं संग्रहों को मूल आधार बनाकर नियुक्तियों की रचना की । यही कारण है कि नियुक्तियों में कुछ गाथाएँ बहुत प्राचीन हैं और कुछ अर्वाचीन। नियुक्तियों की रचयिता और रचनाकाल-नियुक्तियों के रचयिता आचार्य भद्रबाहु इतिहासप्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के भाई थे। भद्रबाहु स्वयं अष्टांगनिमित्त और मंत्रविद्या के पारगामी विद्धान थे। वराहमिहिर के आधार पर इनका समय वि. संवत् ५६२ के लगभग है और नियुक्तियों का रचनाकाल वि.सं. ५०० - ६००के मध्य है। ___ नियुक्तियों के प्रकार- विषय की व्याख्या के आधार पर अनुयोग द्वार में नियुक्तियों के तीन प्रकार बताये गये हैं-(१) निक्षेपनियुक्ति, (२) उपोद्घातनियुक्ति और (३) सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति। डा. घाटके ने Indian Historical Quarterly, Vol, 12. p. 270 में वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियों के तीन भेद बताये हैं (१) मूल नियुक्तियाँ- जिनमें काल के प्रभाव से कुछ भी संमिश्रण न हुआ है, उदाहरणार्थ-आचारांग और सूत्रकृतांग की नियुक्तियाँ। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] ওভ (२) जिनमें मूल और भाष्यों का संमिश्रण तो हो गया है, किन्तु जिन्हें अलग-अलग किया जा सकता है; जैसे दशवैकालिक और आवश्यक सूत्रों की नियुक्तियाँ। (३) जिनमें मूल और भाष्य का ऐसा संमिश्रण हो गया है जिसे अलग-अलग नहीं किया जा सकता; इन्हें आजकल भाष्य या बृहद्भाष्य कहा जाता है; उदाहरणार्थ-निशीथ आदि की नियुक्तियाँ । नियुक्तियों के नाम- दस आगमों पर नियुक्तियाँ प्राप्त होती हैं- (१) आवश्यक (२) दशवैकालिक (३) उत्तराध्ययन (४) आचारांग (५) सूत्रकृतांग (६) दशाश्रुतस्कन्ध (७) बृहत्कल्प (८) व्यवहार (९) सूर्यप्रज्ञप्ति (१०) ऋषिभाषित। ये दस नियुक्तियाँ आचार्य भद्रबाहु ने लिखी हैं। इनमें से सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित पर लिखी दो नियुक्तियाँ वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति का उल्लेख मलयगिरिवृत्ति में हुआ है। वहाँ बताया गया है कि इसमें खगोल ज्योतिष सम्बन्धी तथ्यों का सुन्दर निरूपण है। ऋषिभाषित प्रत्येकबुद्धों द्वारा उपदिष्ट आगम है। इस पर आचार्य भद्रबाहु ने जो नियुक्ति लिखी वह अब उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त औघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, कल्पनियुक्ति और निशीथ-नियुक्ति भी मिलती हैं किन्तु ये क्रमशः आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिक नियुक्ति, बृहत्कल्पनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति की पूरक हैं। नियुक्तियों का संक्षिप्त परिचय निम्न है(१) आवश्यकनियुक्ति- आचार्य भद्रबाहुरचित दस छठवें Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ [जैन आगम : एक परिचय नियुक्तियों में इसका स्थान प्रथम है। यह आवश्यक सूत्र पर लिखी गयी है और काफी विस्तृत है। इसमें अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर विस्तार से चिन्तन प्रस्तुत हुआ है। __विषयवस्तु- इसमें भूमिका के रूप में सर्वप्रथम उपोद्घात है। इस उपोद्घात में ८८० गाथाएँ हैं । प्रथम पाँच ज्ञानों का वर्णन है। आभिनिबोधक (मति) ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि, मन:पर्ययज्ञानों के भेद-प्रभेद आदि की विस्तृत चर्चा है और अन्त में केवलज्ञान के स्वरूप का वर्णन है। उपोद्घात के बाद छह अध्ययनों में आवश्यक के ६ भेदोंसामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान-का विस्तृत विश्लेषण है। सामायिक अध्ययन में मिथ्यात्व के निर्गमन पर विचार करते हुए भगवान ऋषभदेव के जीवन-चरित्र का विस्तार से वर्णन है। मरीचि का वर्णन करके भगवान महावीर के पूर्वभवों की भी चर्चा है। सप्तनयों का वर्णन है। निन्हवों का नामोल्लेख है। आर्यरक्षित द्वारा अनुयोगों के पृथक् करने की घटना पर भी प्रकाश डाला गया है। ___सामायिक सूत्र में नमस्कार मन्त्र पर उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम, प्रयोजन और फलइन ११ दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। दूसरे अध्ययन चतुर्विंशतिस्तव में नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, काल और क्षेत्र-इन छह निक्षेपों की दृष्टि से चिन्तन हुआ है। तीसरे वन्दना अध्ययन में वन्दना के सन्दर्भ में-(१) किसे, (२) किसके द्वारा, (३) कब (४) कितनी बार (५) कितनी बार Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] ७९ सिर झुकाना (६) कितने आवश्यकों से शुद्ध (७) कितने दोषों से मुक्त (८) किसलिए आदि बातों पर विस्तृत विचारणा है । चौथे प्रतिक्रमण अध्ययन में प्रतिक्रमण के काल के अनुसार अनेक भेद बताये है; यथा-रात्रिक, देवसिक, इत्वरिक, यावत्कथित, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सावंत्सरिक, उत्तमार्थक आदि । इसके उपरान्त ( १ ) मिथ्यात्व प्रतिक्रमण, (२) असंयम प्रतिक्रमण, (३) कषाय प्रतिक्रमण, (४) अप्रशस्तयोग प्रतिक्रमण, और (५) संसार प्रतिक्रमण - इन पाँचों प्रतिक्रमणों पर चिन्तन हुआ है । भाव और द्रव्यप्रतिक्रमण पर भी प्रकाश डाला गया है। पाँचवें कायोत्सर्ग अध्ययन में (१) चेष्टाकायोत्सर्ग और (२) अभिभवकायोत्सर्ग- यों कायोत्सर्ग के दो प्रकार बताये हैं । चेष्टाकायोत्सर्ग भिक्षाचर्या आदि के समय होता है और अभिभवकायोत्सर्ग उपसर्ग आदि के समय । यहाँ बारह भावनाओं का चिन्तन और ध्यान पर भी प्रकाश डाला गया है । नियत कायोत्सर्ग में उच्छ्वासों और लोगस्स की संख्या भी बतायी गयी है । छठवें प्रत्याख्यान अध्ययन में (१) प्रत्याख्यान, (२) प्रत्याख्याता, (३) प्रत्याख्येय, (४) पर्षद्, (५) कथनविधि और (६) फल- इन छह दृष्टियों से विवेचन किया गया है । प्रत्याख्यान के नाम, स्थापना, द्रव्य, अदित्सा, प्रतिषेध और भाव- ये छह प्रकार बताये हैं । द्रव्य और भाव- प्रत्याख्यान पर भी चिन्तन किया गया है। महत्व - यह निर्युक्ति अत्यधिक महत्वपूर्ण है । इसमें ऐसे अनेक महत्वपूर्ण तथ्य उजागर हुए हैं जिनका वर्णन इससे पहले Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० [ जैन आगम : एक परिचय की रचनाओं में नहीं मिलता। साथ ही आचार्य ने इस नियुक्ति में जिन तथ्यों का समावेश किया है, उनकी पुनरावृत्ति अन्य नियुक्तियों में नहीं की है, वहाँ इस नियुक्ति को देखने का संकेत कर दिया है । अतः अन्य नियुक्तियों को समझने से पहले इस नियुक्ति का अध्ययन आवश्यक है । ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से भी इस नियुक्ति का अधिक महत्व है । (२) दशवैकालिक निर्युक्ति- इस निर्युक्ति का आधार दशवैकालिक सूत्र है । इसमें मूलसूत्र के अनुसार दस अध्ययन और दो चूलिकाएँ हैं । इसका परिमाण ३७१ श्लोक प्रमाण हैं । प्रथम अध्ययन द्रुमपुष्पिका में धर्म की प्रशंसा करते हुए लोक और लोकोत्तर धर्मों का वर्णन हुआ है । द्वितीय अध्ययन में धृति की स्थापना हुई है । ' श्रामण्य' शब्द की चार निक्षपों से और 'पूर्वक' शब्द की तेरह प्रकार से विचारणा है । भाव श्रमण का संक्षेप में हृदयग्राही वर्णन है । तीसरे अध्ययन में क्षुल्लिका अर्थात् लघु आचारकथा का अधिकार है । क्षुल्लक, आचार और कथा - इन तीनों पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन है । चौथे अध्ययन में षड्जीवनिकाय का निरूपण है। जीव को पहचानने के उपादान बताये हैं । द्रव्य और भावशास्त्र का भी निरूपण है । पाँचवाँ पिण्डैषणा अध्ययन भिक्षाविशुद्धि से सम्बन्धित है । इसमें पिण्ड और एषणा दोनों शब्दों पर निक्षेप की दृष्टि से चिन्तन हुआ है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] छठवें अध्ययन में बृहद् आचार कथा का प्रतिपादन है। महत् शब्द पर नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रधान, प्रतीत्य और भाव-इन ८ दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। ___ सातवाँ अध्ययन वाक्यशुद्धि है । इसमें सत्यभाषा, मृषाभाषा के दस-दस भेदों का वर्णन हुआ है । 'शुद्धि' शब्द पर भी निक्षेप की दृष्टि से चिन्तन है। आठवें अध्ययन आचार-प्रणिधि में 'प्रणिधि' शब्द पर निक्षेपपूर्वक चिन्तन है। ___नवें अध्ययन का नाम विनयसमाधि है। इसमें भावविनय के लोकोपचार, अर्थनिमित्त, कामहेतु, भयनिमित्त और मोक्षनिमित्त, ये पाँच भेद बताकर मोक्षनिमित्तक विनय के दर्शन, ज्ञान, चारित्र तप और उपचार ये पाँच भेद पुनः किये गये हैं। दशवें अध्ययन का नाम सभिक्षु है। इसमें 'स' और 'भिक्षु' दोनों शब्दों पर निक्षेप की दृष्टि से विचार किया गया है। __ 'चूलिका' में 'चूलिका' शब्द का चारों निक्षेपों की दृष्टि से वर्णन करके 'भावचूड़ा' को ही अभिप्रेत माना गया है। विशेषताएँ- इस नियुक्ति में धार्मिक कथाओं और सूक्तियों के द्वारा सूत्र के अर्थ को स्पष्ट किया गया है। कहीं-कहीं शैली तार्किक भी है, यत्र-तत्र प्रश्नोत्तर शैली भी परिलक्षित होती है। कहीं-कहीं संवाद बड़े रोचक और ज्ञानवर्द्धक हैं। (३) उत्तराध्ययननियुक्ति- इस नियुक्ति में ६०७ गाथाएँ हैं । यह भी दशवैकालिकनियुक्ति की शैली पर लिखी गयी है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ [जैन आगम : एक परिचय विषयवस्तु- इसमें सर्वप्रथम अध्ययन शब्द की निक्षेप दृष्टि से विचारणा हुई है और उसके बाद श्रुत, स्कन्ध, संयोग, आकीर्ण, परीषह, एकक, चतुष्क, उरभ्र, कपिल, प्रवचन, मोक्ष, चरण, विधि, मरण आदि पदों पर भी निक्षेप दृष्टि से चिन्तन है। विशेषताएँ- इसमें यत्र-तत्र अनेक शिक्षाप्रद कथाएँ है । इसकी अनेक गाथाएँ सूक्तियों के रूप में हैं । सूक्ति और दृष्टान्त कथाओं के संयोग से शैली रोचक हो गई है। (४) आचारांगनियुक्ति- इसमें ३४७ गाथाएँ हैं । विषयवस्तु- सर्वप्रथम सिद्धों को नमस्कार करके आचार, अंग, श्रुत, स्कन्ध, ब्रह्म, चरण, शस्त्र, परिज्ञा, संज्ञा और दिशा-इन पर निक्षेप दृष्टि से विचार किया गया है। आचार के अनेक पर्यायवाची शब्द देने के बाद यह बताया गया है कि आचार ही धर्म का सार क्यों है और इसका फल क्या है? इसके बाद आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययनों के नाम-निर्देश हैं। प्रथम अध्ययन शस्त्र-परिज्ञा में 'शस्त्र' और 'परिज्ञा' दोनों शब्दों की द्रव्य और भाव से विचारणा की गई है। संज्ञा और दिशाओं के भी द्रव्य और भाव ये दो भेद किये गये हैं। भाव दिशा के 18 भेद बताये हैं। दूसरे उद्देशक में छह काय के जीवों का वर्णन करके उन्हें कष्ट न देने की प्रेरणा दी गई है। दूसरे अध्ययन में बताया गया है कि भावलोक कषाय है और कषाय-विजय ही लोक विजय है। तीसरे शीतोष्णीय अध्ययन में शीत और उष्ण शब्द पर निक्षेप दृष्टि से विचार करके यह बताया है कि स्त्री और सत्कार Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] परीषह शीत हैं और शेष २० परीषह उष्ण हैं I चौथे अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है। इसके चार उद्देशकों में क्रमशः सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप का विश्लेषण है । ८३ पाँचवें अध्ययन 'लोकसार' में 'लोक' और 'सार' शब्दों का निक्षेप दृष्टि से चिन्तन है । छठे 'धूत' अध्ययन में बताया गया है कि वस्त्र आदि का प्रक्षालन द्रव्यधूत है और कर्मों का क्षय भावधूत है । सातवें अध्ययन में महापरिज्ञा का और आठवें में विमोक्ष का निरूपण है । विमोक्ष का नाम आदि छह निक्षेपों की दृष्टि से वर्णन है । नवें अध्ययन का नाम उपधानश्रुत है । इसमें बताया गया है कि अन्य तीर्थंकरों का तप निरूपसर्ग था और भगवान महावीर का सोपसर्ग । 'उपधान' और 'श्रुत' शब्दों पर भी निक्षेपदृष्टि से विचार किया गया है । तप और चारित्र को भावउपधान बताया गया है । दूसरे श्रुतस्कन्ध में प्रथम श्रुतस्कन्ध में वर्णन किये गये विषयों के अवशिष्ट भाग का विवेचन है । इस दूसरे श्रुतस्कन्ध को अग्रश्रुतस्कन्ध भी कहा गया है। निक्षेप की दृष्टि से विचार करते हुए अग्र के आठ प्रकार बताये गये हैं- (१) द्रव्याग्र, (२) अवगाहनाग्र, (३) आदेशाग्र, (४) कालाग्र, (५) क्रमाग्र (६) गणनाग्र, (७) संचयाग्र, (८) भावाग्र । भावाग्र के भी प्रधानाग्र, प्रभूताग्र और उपकाराग्र- ये तीन भेद बताकर कहा गया है कि यहाँ पर उपकाराग्र का वर्णन है । इस द्वितीय श्रुतस्कन्ध की ५चूलाओं में से ४ पर तो निर्युक्ति Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय लिखी है और पाँचवीं चूला के बारे में यह सूचना है कि 'इस निशीथ नाम की चूलिका की व्याख्या मैं बाद में करूँगा।' (५) सूत्रकृतांगनियुक्ति- यह नियुक्ति सूत्रकृतांगसूत्र पर लिखी गई है। विषयवस्तु- सर्वप्रथम इसमें 'सूत्रकृतांग' शब्द की व्याख्या की गई है। फिर १५ प्रकार के परम-अधार्मिक देवों के नाम गिनाकर यह बताया है कि ये नारकी जीवों को विविध प्रकार की यातनाएँ देते हैं। क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादियों के ३६३ मत-मतान्तरों का निर्देश है। इसके बाद गाथा, षोडश, श्रुत, स्कन्ध, पुरुष, विभक्ति आदि शब्दों पर निक्षेपदृष्टि से चिन्तन है और फिर आईककुमार की कथा देकर अन्त में नालन्दा शब्द पर भी विचारणा की गई है। (६) दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति- यह दशाश्रुतस्कन्ध पर लिखी गई है। विषयवस्तु- इसमें सर्वप्रथम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी को नमस्कार किया गया है। फिर दश अध्ययनों के अधिकारों का वर्णन हैं। प्रथम अध्ययन असमाधिस्थान में द्रव्य और भावसमाधि के बारे में चिन्तन करने के बाद स्थान के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, अद्धा, ऊर्ध्व; चर्या, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणन, संस्थान (संधाण) और भाव-इन पन्द्रह निक्षेपों की दृष्टि से चिन्तन किया गया है। दूसरे अध्ययन में शबल का नाम आदि ४ निक्षेपों से वर्णन है। तीसरे अध्ययन में आशातना का और चौथे अध्ययन Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] में गणि-सम्पदा का विश्लेषण है। यहाँ गणि और गुणी को एकार्थक माना गया है। सम्पदा का द्रव्य और भाव से विवेचन है। पंचम अध्ययन चित्तसमाधि में समाधि पर चिन्तन करते हुए चार प्रकार की समाधि बताई है। छठे अध्ययन में उपासक और प्रतिमा पर चिन्तन है । यहाँ उपासक के द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक और भावोपासक-ये चार भेद बताये हैं। यहाँ श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन है। सातवें अध्ययन में श्रमण प्रतिमाओं का वर्णन है। वहाँ भाव श्रमण प्रतिमा के समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा आदि पाँच भेद बताये हैं । आठवें अध्ययन में पर्दूषणा कल्प पर चिन्तन है। नवें अध्ययन में मोहनीयस्थानों पर विवेचन हुआ है और दशवें अध्ययन में जन्म-मरण के मूल कारणों की विवेचना करके उनसे मुक्त होने के उपाय बताये गये है। (७) बृहत्कल्पनियुक्ति- यह बृहत्कल्पसूत्र पर लिखी गई है। विषयवस्तु- इसमें तीर्थंकरों को नमस्कार करके ज्ञान के विभिन्न प्रकारों पर विचारणा प्रस्तुत की गई है। अनुयोग पर नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, वचन और भाव-इन सात निक्षेपों की दृष्टि से चिन्तन किया गया है। आर्य पद पर विचार करते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, भाषा, शिल्प, ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन बारह निक्षेपों से विवेचन किया गया है। श्रमण-श्रमणियों के आचार-विचार, आहार-विहार का संक्षेप में बहुत ही सुन्दर वर्णन इस नियुक्ति में है। यह नियुक्ति स्वतन्त्र न रहकर बृहत्कल्प भाष्य में सम्मिलित हो गई है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय (८) व्यवहारनियुक्ति- इस नियुक्ति की विषयवस्तु भी बृहत्कल्पनियुक्ति के समान है। यह नियुक्ति भी भाष्य में विलीन हो चुकी है। (९) संसक्तनियुक्ति- यह नियुक्ति किस आगम पर लिखी गई है, इसका पता नहीं लगता। इसके लेखक के बारे में भी विद्धानों का एकमत नहीं है। कितने ही इसे भद्रबाहु की रचना मानते है तो कितने ही अन्य किसी आचार्य की। (१०) निशीथनियुक्ति- इसमें मुख्य रूप से श्रमणाचार का वर्णन है। यह नियुक्ति भाष्य में मिल गई है। (११) गोविन्दनियुक्ति-यह गोविन्द आचार्य की स्वतन्त्र रचना है। इसका निर्माण एकेन्द्रिय जीवों की संसिद्धि के लिए हुआ था। यह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है किन्तु इसका उल्लेख बृहत्कल्पभाष्य, आवश्यकचूर्णि व निशीथचूर्णि में मिलता है। (१२) ओधनियुक्ति- इसमें साधु की सामान्य समाचारी का वर्णन है । इसके रचयिता भद्रबाहु माने गये हैं। विद्वानों ने इसे आवश्यकसूत्र का ही एक अंग माना है। इसमें ८११ गाथाएँ हैं और उदाहरणों के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया गया है। विषयवस्तु- इसमें प्रतिलेखनाद्वार, पिण्डद्वार, उपधि, निरूपण, अनायतनवर्जन, प्रतिसेवनाद्वार, आलोचनाद्वार और विशुद्धिद्वार का निरूपण हुआ है। विशेषताएँ- आचार्य मलयगिरि ने इस पर वृत्ति लिखी है तथा इस पर बृहद्भाष्य एवं अवचूरि भी प्राप्त होती है। श्रमण आचार-विचार का वर्णन होने से किसी ने इसे मूलसूत्र माना है Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] और किसी ने छेदसूत्र । (१३) पिण्डनिर्युक्ति- दशवैकालिकसूत्र के पाँचवें अध्ययन पिण्डैषणा पर आचार्य भद्रबाहु ने जो निर्युक्ति लिखी यह अधिक लम्बी हो जाने से आचार्यों ने उसे अलग से मान्यता दे दी, वही पिण्डनिर्युक्ति कहलायी । इसमें ६७१ गाथाएँ हैं । ८७ विषयवस्तु - श्रमण के ग्रहण करने योग्य आहार को 'पिण्ड' कहा जाता है। इस नियुक्ति में उसका वर्णन है । इसके आठ अधिकार हैं - ( १ ) उद्गम, (२) उत्पादन, (३) एषणा, (४) संयोजना, (५) प्रमाण, (६) अंगार, (७) धूम, और (८) कारण । इन अधिकारों में इन्हीं नामों से पिण्ड ( श्रमण - आहार) के दोष बताये गये हैं । इस ग्रन्थ में यह बताया गया है कि उपर्युक्त सभी दोषों को टालकर श्रमण को आहार लेना चाहिए । निर्युक्ति साहित्य का महत्व- निर्युक्ति साहित्य बहुत ही महत्वपूर्ण है । आचार्य भद्रबाहु ने निर्युक्तियों की रचना करके जिन - प्रवचन की जो सवा की, वह अविस्मरणीय रहेगी। इसमें उन्होंने जैन-परम्परा के महत्वपूर्ण विशिष्ट पदों की निक्षेप शैली में जो व्याख्या की, वह अपूर्व है । इस व्याख्या से इन पदों का अर्थ निश्चित हो गया और इसी व्याख्या के आधार पर आगे भाष्य, चुर्णि तथा वृत्तियों की रचना हुई । भाष्य - साहित्य भाष्य - साहित्य की आवश्यकता क्यों हुई ? - निर्युक्तियों में मुख्यत: पारिभाषिक और विशिष्ट शब्दों की व्याख्या - विवेचना Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय करके शब्दों के प्रसंगानुकुल अर्थ निश्चित किये गये थे; इसलिए इनकी व्याख्या शैली अत्यन्त गूढ़ और संक्षिप्त थी। इनमें विषय को विस्तारपूर्वक नहीं समझाया गया था। इन नियुक्तियों के गुरुगम्भीर रहस्यों को प्रकट करने के लिए प्राकृत भाषा में जिन पद्यात्मक ग्रन्थों की रचना हुई वे भाष्य कहलाए। __ भाष्यों की रचनाशैली- भाष्यों में अधिकतर आर्या छन्द का प्रयोग हुआ है। इनकी भाषा प्राकृत है और रचना पद्य में हुई है। इनमें अनेक प्राचीन अनुश्रुतियाँ, लौकिक कथाएँ और परम्परागत श्रमणाचार का वर्णन है। इनकी भाषा में मागधी और शौरसेनी प्राकृत प्रमुख हैं। भाष्यों के रचयिता- भाष्यों के रचयिता मुख्य रूप से दोहैं-एक जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण और दूसरे संघदासगणी। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण- विशेषावश्यक भाष्य और जीतकल्पभाष्य-ये दो भाष्य इनकी रचना प्रमाणित हो चुके हैं। ये आगम के उद्भट विद्वान थे। इनका काल वि.सं. ६५०-६६०के आसपास है। जीतकल्पचूर्णि (गाथा ५-१० ) में सिद्धसेन गणी ने इनके गुणों की प्रशंसा करते हुए बताया है कि ये अनुयोगधर, युगप्रधान, सर्वश्रुति और शास्त्र में कुशल, दर्शन-ज्ञानोपयोग के मार्गदर्शक हैं ।........ उक्त प्रशस्ति से स्पष्ट है कि वे आगम साहित्य के मर्मज्ञ थे। उनकी निम्न रचनाएँ प्राप्त होती हैं-(१) विशेषावश्यकभाष्य (प्राकृत पद्य) (२) विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञवृत्ति (अपूर्ण; संस्कृत गद्य में) (३) बृहत्संग्रहणी (प्राकृत पद्य) (४) बृहत्क्षेत्रसमास (प्राकृत Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] पद्य) (५) विशेषणवती (प्राकृत पद्य) (६) जीतकल्प (प्राकृत पद्य) (७) जीतकल्पभाष्य (प्राकृत पद्य) (८) अनुयोगद्वारचूर्णि (प्राकृत गद्य) (९) ध्यानशतक (प्राकृत पद्य)। संघदासगणी- ये आगम साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे और छेदसूत्रों की अर्थ-परम्परा के तलस्पर्शी मर्मज्ञ थे। उन्होंने जिस विषय को छुआ उसकी अतल गहराई में उतर गए। प्रमुख भाष्य- जिस प्रकार प्रत्येक आगम पर नियुक्ति नहीं लिखी गयी उसी प्रकार भाष्य भी नहीं लिखे गये। कुछ भाष्य मूल आगमों पर हैं तो कुछ नियुक्तियों पर । निम्न आगमों पर भाष्य मिलते हैं। (१) आवश्यक, (२) दशवैकालिक, (३) उत्तराध्ययन, (४) बृहत्कल्प, (५) पंचकल्प, (६) व्यवहार, (७) निशीथ, (८) जीतकल्प, (९) ओघनियुक्ति, (१०) पिण्डनियुक्ति। इन भाष्यों का संक्षिप्त परिचय निम्न है: (१) विशेषावश्यकभाष्य- यह जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की महत्वपूर्ण रचना है। आवश्यकसूत्र पर तीन भाष्य लिखे गये हैं- (१) मूलभाष्य, (२) भाष्य, (३) विशेषावश्यकभाष्य। पहले दो भाष्य संक्षिप्त है जो उनकी बहुत सी गाथाएँ विशेषावश्यकभाष्य में मिल गयी हैं अत: यह तीनों भाष्यों का प्रतिनिधित्व करता है। यह केवल प्रथम सामायिक अध्ययन पर ही लिखा गया है। इसमें ३६० गाथाएँ हैं। विषयवस्तु- इसमें जैन आगमों में वर्णित सभी महत्वपूर्ण विषयों पर विचार किया गया है। ज्ञानवाद, प्रमाणवाद, आचार, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० [ जैन आगम : एक परिचय नीति, नयवाद, आत्मवाद, स्याद्वाद, कर्मसिद्धान्त आदि पर विशाल सामग्री का संकलन हुआ है। इसमें जैन सिद्धान्तों की तुलना अन्य दार्शनिकों के सिद्धान्तों से भी की गयी है और तार्किक दृष्टि से जैन सिद्धान्तों का विवेचन हुआ है । आगम रहस्यों को जानने में यह अत्यन्त उपयोगी है। इसमें सर्वप्रथम प्रवचन को नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात बताया गया है कि ज्ञान और क्रिया दोनों से मुक्ति प्राप्त होती है। ज्ञान को भाव मंगल बताया है फिर पाँचों ज्ञानों की विस्तृत चर्चा है । अनुयोगों के पृथकीकरण का भी वर्णन है । उसके बाद सातों निन्हवों का उल्लेख है । इसके बाद करेमि भंते सामाइयं के मूल पदों पर चिन्तन है । महत्व - इस भाष्य का भाष्य - साहित्य में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है । इसमें रचयिता की प्रबल तार्किक शक्ति, विवेचन की विशिष्टता, और तलस्पर्शी मेधा का दिग्दर्शन होता है । - (२) जीतकल्पभाष्य- यह भी जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की रचना है। यह एक संग्रह ग्रन्थ है क्योंकि इसमें बृहत्कल्पलघुभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्पमहाभाष्य, पिण्डनिर्युक्ति आदि ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं । मूल जीतकल्प में १०३ गाथाएँ हैं और इस स्वोपज्ञ भाष्य में २६०६ । विषयवस्तु - इस भाष्य में जीत-व्यवहार के आधार पर जो प्रायश्चित्त दिये जाते हैं, उनका वर्णन है । प्रायश्चित्त को एक प्रकार की चिकित्सा बताया गया है । प्रायश्चित्त के प्राकृत में दो रूप मिलते हैं- पायच्छित्त और पच्छित्त । जो पाप का छेद Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] करता है वह पायच्छित्त है और जिससे चित्त निर्मल बनता है वह 'पच्छित्त' है। संघ व्यवस्था का भी इसमें वर्णन है। चार प्रकार की विनय प्रतिपत्तियाँ भी बताई गई हैं। इसमें भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण और पादपोपगमनमरण-इन तीन प्रकार की मारणान्तिक साधनाओं का वर्णन है। आगमव्यवहारी, आज्ञाव्यवहारी, जीतव्यवहारी के आचार-व्यवहार का वर्णन है। प्रायश्चित्त के भेद-प्रभेदों पर भी प्रकाश डाला गया है। इसमें बताया गया है कि जो सूत्र और अर्थ के मर्म को जानता है, वही जीतकल्प का योग्य अधिकारी है। (३) बृहत्कल्पलघु-भाष्य - यह संघदासगणी की बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है। इसमें बृहत्कल्पसूत्र के पदों पर विस्तृत विवेचन किया गया है। इसकी लघुभाष्य संज्ञा होने पर भी इसमें ६४९०गाथाएँ हैं। विषयवस्तु- यह छह उद्देशकों में विभक्त है। इसके प्रारम्भ में विस्तृत पीठिका है, जिसमें ८०५ गाथाएँ हैं। इस पीठिका में मंगलवाद, ज्ञानपंचक में श्रुतज्ञान पर विचार किया गया है और सम्यक्त्व प्राप्ति का क्रम तथा विभिन्न प्रकार के सम्यक्त्वों का स्वरूप बताया गया है। अनुयोग का स्वरूप बताकर निक्षेप आदि बारह द्वारों से उस पर चिन्तन किया गया है । कल्पव्यवहार पर विविध दृष्टियों से चिन्तन करते हुए विषय को स्पष्ट करने के लिए कहीं-कहीं दृष्टान्तों का प्रयोग हुआ है। ___ पहले उद्देशक में 'ताल प्रलम्ब' से सम्बन्धित दोष और प्रायश्चित्त, इसे ग्रहण सम्बन्धी अपवाद, श्रमणों के गमन, अस्वस्थता आदि का विधान, आठ प्रकार के वैद्यों का भी वर्णन है। दुष्काल | Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ [ जैन आगम : एक परिचय में श्रमण- श्रमणियों के नियम, रहने की विधि और उसके १४४ भंग तथा उनके प्रायश्चित्त आदि का निर्देश है । फिर नक्षत्रमास, चन्द्रमास, ऋतुमास, सूर्यमास और अधिक मास का वर्णन है । जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक श्रमणों की क्रियाएँ, समवसरण, तीर्थंकर गणधर आहारक शरीरी, अनुत्तरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की शुभ-अशुभ कर्म - प्रकृतियाँ, तीर्थकर की भाषा का विभिन्न भाषाओं में परिणमन आदि का प्रकाश डाला गया है। इसमें ग्राम-नगरों का भी उल्लेख है । स्थविरकल्पिकों की सामाचारी का भी वर्णन है । > महत्व - इस प्रकार इस ग्रन्थ में श्रमण सामाचारी के विस्तृत वर्णन के साथ-साथ प्रचुर मात्रा में ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सामग्री भरी पड़ी है। डा. मोतीचन्द ने इस सामग्री का अपनी पुस्तक 'सार्थवाह' में 'यात्री और सार्थवाह' का सुन्दर आकलन किया है। इस युग की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक परिस्थितियों का भी इस ग्रन्थ से काफी ज्ञान मिल जाता है । इसलिए इस ग्रन्थ का भारतीय साहित्य में भी अनूठा स्थान है । ( ४ ) पंचकल्पमहाभाष्य- यह संघदासगणी की दूसरी कृति है । यह पंचकल्पनिर्यूक्ति के विवेचन के रूप में है। इसमें कुल २६५५ गाथाएँ हैं जिनमें भाष्य की गाथाएँ २५७४ हैं । विषयवस्तु इसमें सर्वप्रथम जिनकल्प और स्थविरकल्प - ये दो भेद किये गये हैं । फिर श्रमणों की ज्ञान - चारित्र सम्पदा का वर्णन है कल्प शब्द के कई अर्थ बताये हैं । इस भाष्य में पाँच प्रकार के कल्पों का संक्षिप्त वर्णन है । फिर Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] इनके छह, सात, दस, बीस और बयालीस भेद बताये हैं। पहले कल्प मनुज जीवकल्प के छह भेद हैं-प्रव्राजन, मुंडन, शिक्षण, उपस्थापन, भोग और संवसन। इसमें दीक्षा के योग्य और अयोग्य व्यक्तियों का भी निर्देश है। क्षेत्रकल्प २५१/२में जनपदों और उनकी राजधानियों का निर्देश है। कालकल्प में मासकल्प, पर्युषणकल्प, वृद्धवासकल्प आदि का भी वर्णन है। भावकल्प में दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, समिति, गुप्ति आदि पर चिन्तन है। दूसरे कल्प के ७, तीसरे के १०, चौथे के २० और पाँचवे के ४२ भेदों का वर्णन है। ___इन पाँचों कल्पों का वर्णन प्रस्तुत भाष्य में हुआ है । अन्त में भाष्यकार संघदासगणी का नामोल्लेख भी हुआ है। (५) निशीथभाष्य- इस भाष्य के रचयिता भी संघदासगणी माने जाते हैं। यह भाष्य 'निशीथ' नाम के आगम पर लिखा गया है। विषयवस्तु- इसमें श्रमणाचार का विविध दृष्टियों से निरूपण हुआ है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें अनेक सरस कथाएँ हैं। (६) व्यवहारभाष्य- इसमें भी श्रमण-श्रमणियों के आचार का वर्णन है। (७) ओधनियुक्तिलघुभाष्य- इस भाष्य में गाथाएँ ३२२ हैं। इसमें ओघ, पिण्ड, श्रमणधर्म आदि बातों पर प्रकाश डाला गया है। (८) ओघनियुक्तिभाष्य- इसमें २५१७ गाथाएँ हैं। इसका विषय भी ओघनियुक्ति जैसा ही है क्योंकि यह भाष्य उसी के Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ आधार पर लिखा गया है । ( ९ ) पिण्डनिर्युक्तिभाष्य- इसमें ४६ गाथाएँ हैं । इसमें अदृश्य होने का चूर्ण और दो क्षुल्लक भिक्षुओं की कथाएँ है । श्रमण के आहार ग्रहण का वर्णन तो है ही । [ जैन आगम : एक परिचय ( १० ) उत्तराध्ययनभाष्य- इसकी कुल ४५ गाथाएँ हैं । इसमें बोटिक की उत्पत्ति, पुलाक, वकुश, कुशील आदि का वर्णन है । दशवैकालिक भाष्य- इसमें कुल ६३ गाथाएँ हैं । इसमें हेतु विशुद्धि, प्रत्यक्ष - परोक्ष, मूलगुण व उत्तरगुणों का प्रतिपादन है । चूर्णि - साहित्य चूर्णियों की रचना गद्य में है । इनकी भाषा शुद्ध प्राकृत और संस्कृत मिश्रित प्राकृत है । इन व्याख्या ग्रन्थों - चूर्णियों की रचना भाष्यों के बाद हुई । निम्न १८ आगमों पर चूर्णियाँ लिखी गई हैं (१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) व्याख्याप्रज्ञप्ति, (४) जीवाभिगम, (५) निशीथ, (६) महानिशीथ, (७) व्यवहार, (८) दशा श्रुतस्कन्ध, (९) बृहत्कल्प, (१०) पंचकल्प, (११) ओघनिर्युक्ति, (१२) जीतकल्प, (१३) उत्तराध्ययन, (१४) आवश्यक, (१५) दशवैकालिक, (१६) नन्दी, (१७) अनुयोगद्वार, (१८) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति । प्रमुख चूर्णिकार - चूर्णि साहित्य के निर्माताओं में जिनदासगणी महत्तर का नाम सर्वप्रथम है । इनका काल वि.सं. ६५०-७५० के बीच होना चाहिए। ये आचार्य हरिभद्र से पहले हुए हैं । उन्होंने अपनी वृत्तियों में इनकी चूर्णियों का उपयोग किया है। परम्परा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ जैन आगम : एक परिचय] के अनुसार इनकी लिखी निम्न चूर्णियाँ मानी जाती हैं -(१) निशीथविशेषचूर्णि, (२) नन्दीचूर्णि, (३) अनुयोगद्वारचूर्णि, (४) आवश्यक चूर्णि, (५) दशवैकालिक चूर्णि, (६) उत्तराध्ययनचूर्णि, (७) सूत्रकृतांगचूर्णि। नन्दीचूर्णि- की विशेषता यह है कि इसमें केवलज्ञान, केवलदर्शन के बारे में तीन मत-(१) योगपत्य, (२) कृमिकत्व, और (३) अभेद देकर लेखक ने क्रमभावित्व का समर्थन किया है। अनुयोगद्वारचूर्णि में आवश्यक पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। आवश्यकचूर्णि में संस्कृत के अनेक श्लोक उद्धृत किये गये हैं । इसकी शैली में ओज और प्रवाह विशेष मात्रा में है। दशवैकालिकचूर्णि में आचार्य शय्यम्भव का जीवन-वृत्त भी दिया गया है। उत्तराध्ययनचूर्णि में क्रोध निवारण के उपाय, सप्त व्यसन आदि पर उदाहरणसहित प्रकाश डाला गया है। आचारांगचूर्णि में श्रमणाचार की प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए प्रत्येक विषय के विवेचन में उसी पर ध्यान रखा गया है। सूत्रकृतांगचूर्णि में विषय विवेचन संक्षिप्त होने पर भी बहुत स्पष्ट है। निशीथविशेषचूर्णि का चूर्णि-साहित्य में विशेष स्थान है। इसमें तत्कालीन सामाजिक, दार्शनिक सामग्री का अच्छा संकलन है। ऐतिहासिक एवं पौराणिक कथाएँ भी है तथा धूर्ताख्यान, तरंगवती, मलयवती, मगधसेना आदि की प्रेरक कथाएँ भी है। — दूसरे चूर्णिकार सिद्धकेन सूरि हैं। ये सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न हैं । इन्होंने जीतकल्पबृहच्चूर्णि लिखी है। बृहत्कल्पचूर्णि के रचयिता प्रलम्ब सूरि हैं। इनका समय Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय वि.सं.१३३४ से पहले का है। इन्होंने एक शब्द के अन्य भाषाओं के पर्याय दिये है; जैसे वृक्ष शब्द को प्राकृत में रूक्ख, मगध में ओदण, लाट में कूर, दमिल-तमिल में चोर और आन्ध्र में इडाकु कहा जाता है। दशवैकालिक पर अगस्त्यसिंह स्थविर ने भी चूर्णि लिखी है। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने इनका काल विक्रम की तीसरी शताब्दी माना है। इन्होंने मूल का एक भी महत्वपूर्ण शब्द नहीं छोड़ा है, सभी पर व्याख्या की है। व्याख्या के लिए इन्होंने 'विभाषा' शब्द का प्रयोग किया है। ज्ञानाचार का स्पष्टीकरण करते हुए इन्होंने कहा है कि 'प्राकृत में निबद्ध सूत्र का संस्कृत रूपान्तर नहीं करना चाहिए क्योंकि व्यंजन में विसंवाद होने पर अर्थ में भी विसंवाद होता है।' चूर्णि-साहित्य की विशेषता- आगम-साहित्य में श्रद्धा का प्रमुख स्थान है किन्तु चूर्णि-साहित्य में तर्क की प्रधानता दृष्टिगत होती है। दार्शनिक विषयों की चर्चा भी मिलती है। इसमें लघु कथाओं के माध्यम से मूल विषय को स्पष्ट करने की शैली भी अपनाई गई । ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सामग्री को भी काफी स्थान मिला। चूर्णि-साहित्यकारों की रूचि संस्कृत भाषा के प्रयोग की ओर झुकी हुई दिखती है। अब तक आगम-साहित्य की भाषा प्राकृत ही थी किन्तु अब संस्कृत का भी प्रवेश होने लग गया। टीका-साहित्य टीका-साहित्य का महत्व- टीकाओं का युग जैन-साहित्य Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] ९७ में स्वर्णयुग के नाम से प्रसिद्ध है । इस युग में आगमों पर ही नहीं, निर्युक्ति और चूर्णियों पर भी टीकाएँ लिखी गई। इन टीकाओं की भाषा संस्कृत है । इनमें जैन आगमिक तत्त्वों के विवेचन के साथसाथ जैनेतर परम्पराओं का भी आकलन है । उस युग की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक स्थिति का भी इससे ज्ञान प्राप्त होता है टीकाओं का सम्पूर्ण भारतीय संस्कृत साहित्य में गौरवपूर्ण स्थान है । 1 टीकाओं के लिए आचार्यों ने वृत्ति, विवृत्ति, विवरण, विवेचन, व्याख्या, वार्तिक, दीपिका, अवचूरि, अवचूर्णि, पंजिका, टिप्पण, टिप्पनक, पर्याय, स्तबक, पीठिका, अक्षरार्थ आदि अनेक नामों का प्रयोग किया है । यह युग संस्कृत भाषा का उत्कर्षकाल था । अन्य दार्शनिक जैन धर्म के उन्मूलन का प्रयास कर रहे थे । खण्डन - मण्डन और शास्त्रार्थ के लिए आह्वान किये जाते थे । वादमल्ल सम्पूर्ण देश में घूम-घूमकर अमारी पटह बजाते थे । इनकी भाषा संस्कृत थी । अतः इनका सामना करने के लिए जैन आचार्यो को भी आना पड़ा। उन्होंने भी इन्हीं की भाषा-संस्कृत भाषा में अकाट्य उत्तर दिये और संघ तथा जिनधर्म की विजयपताका फहराई । we टीकाएँ और टीकाकार- टीका साहित्य के रचयिता व्याकरण, साहित्य तथा भाषा विज्ञान के प्रकाण्ड पण्डित थे । वे यन्त्र-मन्त्रतन्त्र रहस्यों के ज्ञाता तथा इतिहास, भूगोल, रसायनशास्त्र, शरीरविज्ञान, औषध - विज्ञान आदि विद्याओं के पारगामी विद्वान थे । उन्हें सामाजिक परम्पराओं का भी अच्छा ज्ञान था । प्रमुख टीकाएँ और टीकाकार निम्न है: Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन आगम : एक परिचय (१) जिनभद्रगणी श्रमाश्रमण- इन्होंने संस्कृत भाषा में सर्वप्रथम अपने विशेषावश्यकभाष्य पर स्वोपज्ञवृत्ति लिखी। . (२) आचार्य हरिभद्र- ये संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। इनका समय वि.सं. ७५७ से ८२७ हैं। इनका कुल विद्याधर तथा गच्छ एवं सम्प्रदाय श्वेताम्बर था। याकिनी महत्तरा इनकी धर्ममाता थी। इनके गच्छपति गुरु जिनभट्ट और दीक्षा गुरु जिनदत्त थे। - इनके लिखे १४४४ ग्रन्थ माने जाते हैं किन्तु वर्तमान में ७५ ही मिलते हैं। कुछ प्रमुख ग्रन्थ हैं -(१) नन्दीवृत्ति, (२) अनु यो गद्वार वृत्ति, (३) दशवैकालिक वृत्ति, (४) प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या, (५)आवश्यकवृत्ति आदि। (३) कोट्याचार्य- इन्होंने जिनभद्रगणी श्रमाश्रमण के अपूर्ण विशेषावश्यक स्वोपज्ञभाष्य को पूरा किया। इस ग्रन्थ का परिमाण १३७०० श्लोक प्रमाण है। इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है। (४) आचार्य गंधहस्ती- ये आगम के मर्मज्ञ विद्धान और आगम विरूद्ध युक्तियों के निरसन में अति कुशल थे। इनका समय विक्रम की सातवीं और नवीं शताब्दी के मध्य था। इन्होंने आचारांगसूत्र के 'शस्त्रपरिज्ञा' अध्ययन पर 'विवरण' लिखा था, किन्तु वर्तमान में यह अनुपलब्ध है। (५) आचार्य शीलांक- इनका समय विक्रम की नवींदसवीं शताब्दी है। प्रभावकचरित्र के अनुसार इन्होंने नौ अंगों पर टीकाएँ लिखी; किन्तु वर्तमान में इनकी दो ही रचनाएँ मिलती हैं-(१) आचारांगवृत्ति और (२) सूत्रकृतांगवृत्ति। (६)वादिवेताल शांतिसूरि- इनका जन्म राघनपुर के निकट Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय ] ९९ उन्नायु ग्राम में हुआ था । इन्होंने राजा भोज की सभा में ८४ वादियों को पराजित करके वादिवेताल की उपाधि प्राप्ति की । इनका स्वर्गवास वि.संवत् १०९६ में गिरनार पर्वत पर हुआ । इन्होंने महाकवि धनपाल की तिलकमंजरी पर एक 'टिप्पण' लिखा तथा जीवविचार प्रकरण, चैत्यवंदन महाभाष्य और उत्तराध्ययनवृत्ति इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं । (७) द्रोणाचार्य - ये पाटण जैन संघ के प्रमुख थे। इन्होंने नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि की टीकाओं का संशोधन भी किया था। इनका समय विक्रम की ११-१२ वीं शताब्दी है । इन्होंने ओघनियुक्ति व लघुभाष्य पर वृत्ति लिखी है । (८) आचार्य अभयदेव - ये जिनशासन में नवांगी टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं । इनका वृत्ति-काल वि.सं. १९२० से ११२८ है। इन्होंने नौ अंगों पर वृत्तियाँ लिखी है। इनका स्वर्गवास वि.सं. ११३५ अथवा १९३९ में हुआ । इसकी रचनाओं से इनके गहन पांडित्य और अनुपम मेधा का प्रमाण मिलता है । (९) आचार्य मलयगिरि - ये उत्कृष्ट प्रतिभा के धनी थे । इन्होंने आगम ग्रन्थों पर महत्वपूर्ण टीकाएँ लिखी हैं। ये जैनागम साहित्य, कर्म सिद्धान्त, गणितशास्त्र, दर्शन आदि के प्रकांड विद्वान थे । विषय की गहनता, भाषा की प्रांजलता, शैली में लालित्य एवं विश्लेषण की स्पष्टता - इनकी रचनाओं की विशेषता है। इन्होंने विपुल परिमाण में साहित्य की रचना की । इनके लिखे निम्न २० ग्रन्थ उपलब्ध है । (१) भगवतीसूत्र द्वितीय शतकवृत्ति (२) राजप्रश्नीयोपांगटीका, Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० [जैन आगम : एक परिचय (३) जीवाभिगमोपांगटीका (४) प्रज्ञापनोपांगटीका (५) चन्द्रप्रज्ञप्त्युपांगटीका (६) सूर्यप्रज्ञप्त्युपांगटीका (७) नन्दीसूत्रटीका (८) व्यवहारसूत्र वृत्ति (९) बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति (अपूर्ण) (१०) आवश्यकवृत्ति (अपूर्ण) (११) पिण्डनियुक्ति टीका (१२) ज्योतिष्कर ण्ड क टीका (१३) धर्मसंग्रहणीवृत्ति (१४) कर्मप्रकृतिवृत्ति (१५)पंचसंग्रहवृत्ति (१६) षडशीतिवृत्ति (१७) सप्ततिकावृत्ति (१८) बृहत्संग्रणीवृत्ति (१९) बृहत्क्षेत्रसमासवृत्ति, और (२०) मलयगिरिशब्दानुशासन। आगमप्रभावक मुनि पुण्यविजयजी ने व्याख्याकारों में इनका स्थान सर्वोत्कृष्ट माना है। (१०) मलधारी हेमचन्द्र- ये विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। इनकी स्मरण-शक्ति बहुत प्रबल थी। भगवती जैसा विशाल आगम इन्हें कण्ठस्थ था। ये प्रवचन-कला में भी बहुत दक्ष थे। इन्होंने सर्वप्रथम 'उपदेशमाला' और 'भवभावना'-ये दो मूल ग्रन्थ लिखे और फिर इन पर वृत्तियाँ लिखीं। इसके बाद अनुयोगद्वार, जीवसमास और बन्धशतक पर वृत्तियों की रचना की। आचार्य हरिभद्रकृत मूल आवश्यकवृत्ति पर टिप्पण और विशेषावश्यकभाष्य पर विस्तृत वृत्ति लिखी। इन टीकाकारों के अतिरिक्त शताधिक अन्य टीकाकार भी हुए जिन्होंने अपनी रचनाओं से जैन-साहित्य की वृद्धि की। आगम ग्रन्थों में कल्पसूत्र पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी,जैसे कल्पान्तर्वाच्य, कल्पकिरणावली, कल्पदीपिका, कल्पव्याख्यानपद्धति आदि। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] १०१ टीकाओं का काल मध्ययुग तक अर्थात् विक्रम की १७वीं१८वीं शताब्दी तक चलता रहा। __ आचार्य श्री घासीलालजी महाराज- इसका जन्म सं. १९४१ में उदयपुर के निकट जसवन्तगढ़ मेवाड़ में हुआ। इन्होंने स्थानकवासी परम्परा मान्य ३२ आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखीं। ये पहले आचार्य है जिन्होंने एक साथ ३२ आगमों पर टीकाएँ लिखी हैं। टीकाओं में कहीं-कहीं इनका स्वतन्त्र चिन्तन भी परिलक्षित हुआ है। लोकभाषाओं में रचित व्याख्याएँ-टब्बा संस्कृत, प्राकृत भाषाओं में टीकाएँ अधिक बढ़ जाने और उनमें दार्शनिक चर्चा चरम-सीमा तक पहुँच जाने के कारण वे दुर्बोध हो गयी। साथ ही संस्कृत भाषा जन साधारण की भाषा कभी नहीं रही। वह विशिष्ट विद्वानों, तार्किकों और पण्डितों की भाषा थी। इसलिए संस्कृत टीकाएँ सामान्य जनता की बुद्धि से दूर ही रही। साथ ही काल के प्रवाह से १५वीं शताब्दी आते-आते संस्कृत भाषा कुछ ही विद्वानों तक सिमटकर रह गयी और जन साधारण को संस्कृत में लिखी टीकाओं को समझना बहुत ही कठिन हो गया तब लोकभाषाओं में सरल-सुबोध टीकाएँ लिखी गयीं। साधु रत्नसुरि ने वि.सं. १५७२ में प्राचीन राजस्थानी मिश्रित गुजराती में आचारांग, सूत्रकृतांग आदि पर बालावबोध रचनाएँ की। प्रसिद्ध टब्बाकार धर्मसिंह मुनि- विक्रम की अठारहवीं FOT Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ [ जैन आगम : एक परिचय शताब्दी में लोकागच्छीय स्थानकवासी आचार्य धर्मसिंहजी ने टब्बाओं की रचना की । इन्होंने आगम ग्रन्थों का अध्ययन करके स्थानकवासी परम्परा मान्य २७ आगमों पर टब्बे लिखे । ये टब्बे मूलस्पर्शी और साधारण जनों के लिए आगमों के अर्थ को समझने के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हुए। टब्बों के अतिरिक्त समवायांग की हुण्डी, भगवती का यन्त्र, प्रज्ञापना का यन्त्र, जीवाभिगम का यन्त्र आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की । उनका आगम ज्ञान गम्भीर था । किन्तु खेद है कि इनकी एक भी रचना प्रकाशित नहीं हुई है । अनुवाद विवेचन - युग बीसवीं शताब्दी में अनुवाद युग प्रारम्भ हुआ । आगम ग्रन्थों के अनुवाद हिन्दी, अंग्रजी और गुजराती - तीनों भाषाओं में हुए । अंग्रेजी में जर्मन विद्वान डॉ. जेकोबी ने आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और कल्पसूत्र - इन चार अनुवाद किया, साथ ही विस्तृत खोजपूर्ण भूमिका लिखी । उपासकदशा, अन्तकृत् दशा, अनुत्तरौपपातिक और विपाक तथा निरयावलिया के अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुके हैं। गुजराती में पं. बेचरदास जोशी, पं. दलसुखभाई मालवणिया आदि विद्वानों ने आगमों के अनुवाद, संपादन तथा विवेचन करके उनको सार्वजनीन उपयोगिता दी है। मुनिश्री सन्तबालजी तथा श्री गोपालदास जीवाभाई पटेल ने आगमों का गुजराती भावानुवाद किया है, जो काफी सुन्दर व लोकप्रिय सिद्ध हुए हैं । हिन्दी में पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज, पूज्य आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज, आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज, Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम : एक परिचय] १०३ पूज्य श्री हस्तीमलजी महाराज ने भी आगमों के सुन्दर अनुवाद तथा हिन्दी व्याख्या की है। ___इस अनुवाद की परम्परा को श्री सौभाग्यमलजी महाराज, अनुयोग प्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' आदि ने भी आगे बढ़ाया है। तेरापंथ के आचार्य श्री तुलसीजी एवं मुनि श्री नथमलजी ने आगमों का सुन्दर सम्पादन, विवेचन आदि करके आगमज्ञान की धारा को नया रूप व नया निखार दिया है। उपसंहार- इस सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने आगम-लेखन का जो महत्वपूर्ण और साहसपूर्ण कार्य किया था, उसकी परम्परा अब तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। अनेक मनीषियों ने अपनी प्रबल प्रतिभा और प्रखर चिन्तन शक्ति से जैन-साहित्य के भण्डार की श्रीवृद्धि की है और कर रहे हैं। यह संक्षिप्त परिचय जिज्ञासुओं के हृदय में आगमों के अध्ययन के प्रति रूचि जागृत करेगा, ऐसा मुझे द्दढ़ विश्वास है। AAAA . Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा युवाचार्य स्वर्गवास अध्ययन प्रवचन बहुश्रुत युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी म. सा. 'मधुकर' विक्रम सम्वत् 1960, मार्गशीर्ष शुक्ला 14 ग्राम-तिंवरी (जोधपुर) विक्रम सम्वत् 1980 वैशाख शुक्ला 101 आचार्य श्री जयमल्ल जी महाराज की सम्प्रदाय के पूज्य श्री जोरावरमल्ल जी महाराज के 10 कर कमलों द्वारा। वि.सं. 2036श्रावणशुक्ला 1(25 जुलाई 1976) / 26नवम्बर 1983 (नासिक)। जैनन्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, संस्कृत साहित्य में मध्यमा (क्वीन्स कॉलेज, वाराणसी) जैन आगम भारतीय दर्शन तथा संस्कृत प्राकृत-साहित्य का गम्भीर अध्ययन। सुमधुर, सरस, सरल व समन्वयात्मक शैली। अब तक प्रकाशित प्रवचन साहित्य :- अन्तर की ओर(भाग-1,2), साधना के सूत्र आदि। (सम्पादन )मुनिश्री हजारीमल स्मृतिग्रन्थ, साधु वन्दना, जागरण, धर्मपथ, भ. महावीर की साधना, स्वस्थ अध्ययन, सन्मतिवाणी, जयवाणी आदि।(लेखन ) अमर कहानी, (कविता) ज्योतिर्धर जय, सुगम साहित्य माला ( 12 ), तीर्थंकर महावीर एवं जैन कथामाला 51 भागआदि। आगमों का सानुवाद सुविवेचन,सम्पादन,मार्गदर्शन। स्वभाव की सहज मधुरता तथा गुणज्ञता के कारण 'मधुकर' नाम से प्रसिद्ध। सदा प्रसन्नमुख, शान्तिप्रिय एवं वैराग्य से ओत-प्रोत अन्तःकरण। श्रमणसंघ के उच्चपदों पर रह कर भी सदा सरल विनम्र एवं मधुर बने रहे।ज्ञान एवं निर्मल चरित्र के उज्जवल प्रतीक युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी! साहित्य अन्तरंग मुद्रक : मेहता ऑफसेट, ब्यावर. फोन : 253990 Oil For Private & Personal use only wiw.jainelisrary.ots