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जैन आगम : एक परिचय ]
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चौंतीसवें लेश्याध्ययन में लेश्याओं का वर्णन है । इसमें छहों लेश्याओं के वर्ण, रस, स्पर्श, परिणाम, लक्षण आदि पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला गया है ।
पैंतीसवें अनगारमार्गगति अध्ययन में अनगारधर्म का वर्णन है । छत्तीसवें जीवाजीव विभक्ति अध्ययन में जीव और अजीव के तत्त्वज्ञान का निरूपण है । इस अध्ययन के अन्त में समाधिमरण का भी निरूपण हुआ है ।
इस प्रकार इस मूलसूत्र में सभी उपयोगी ज्ञान का संकलन हुआ है । इसे भगवान महावीर की अन्तिम वाणी कहा जाता है क्योंकि कल्पसूत्र में कहा गया है कि भगवान महावीर छत्तीस अपृष्ट व्याकरणों का व्याकरण कर प्रधान नामक अध्ययन का प्ररूपण करते-करते सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो गये ।
भाषा की दृष्टि से भी यह आगम प्राचीन है। इसके सुभाषित व संवाद बौद्ध ग्रन्थों में भी मिलते हैं । उत्तराध्ययन के अनेक श्लोक व उपमाएँ धम्मपद तथा गीता में भी मिलते हैं । ये सब इसकी प्राचीनता और बहुमान्यता को सिद्ध करते हैं ।
(२) दशवैकालिक सूत्र- दशवैकालिक दूसरा मूलसूत्र है । नन्दी सूत्र के वर्गीकरण के अनुसार उत्कालिक सूत्रों में दशवैकालिक प्रथम है । इसकी रचना आर्य शय्यम्भव ने अपने अल्पायु पुत्र मणक के लिए पूर्वो से निर्यूहण करके की है। इसका रचनाकाल वीर नि.संवत् ७२ के आस-पास है । उस समय प्रभव स्वामी विद्यमान थे । इसकी मान्यता इतनी है कि नवदीक्षित साधु को सर्वप्रथम इसी का अध्ययन कराया जाता है ।
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