________________
१८
[जैन आगम : एक परिचय - आदि दोष लगते हैं।
इन दोषों की मान्यता के कारण ही सभी सुविधा एवं साधन होते हुए भी आगमों का लेखन न हो सका। लेकिन इसका यह अभिप्राय नहीं है कि आगम-लेखन की भावना ही श्रमणों के हृदय में उद्बुद्ध नहीं हुई। ऐसी सम्भावना है कि कुछ श्रमण अपनी स्मृति का भार हल्का करने के लिए टिप्पणरूप में कुछ नोट्स लिख लेते होंगे। इसीलिये वाचना के शिक्षित आदि गुणों के वर्णन में आचार्य जिनभद्र ने 'गुरूवायणोवगयं' (गुरुवचनोपगत) का स्पष्टीकरण किया है कि 'ण चोरितं पोत्थयातोवा (गाथा ८५२) और फिर उसकी स्वकृत व्याख्या में लिखा है कि 'गुरु निर्वचितम्, न चौर्यात् कर्णाघाटितं, स्वतन्त्रेण वाऽधीतं पुस्तकात् (स्वोपज्ञ व्याख्या गा. ८५२)। तात्पर्य यह कि गुरू किसी अन्य को पढ़ाते हों उस समय उस ज्ञान को चोरी से सुनकर अथवा पुस्तकों से श्रुतज्ञान लेना उचित नहीं है, वह तो गुर मुख से सुनकर तथा उनकी सम्मति से ही लेना चाहिए।
इस उल्लेख से स्पष्ट ध्वनित होता है कि उस समय भी नोट्सरूप में ही सही, कुछ ज्ञान लिख लिया जाता होगा। यद्यपि इस प्रवृत्ति को उचित नहीं माना जाता था और आगम-लेखन की कोई सुविचारित एवं क्रमबद्ध योजना नहीं बनी थी।
ऐसा नहीं था कि जैन आगमों के साथ ही यह बात हो; लेखन-परम्परा तो भारत के किसी भी धर्म-सम्प्रदाय में नहीं थी। यही कारण है कि वेदों को 'श्रुति' (सुने हुए) कहा जाता था और वैदिक आचरण-ग्रन्थों को 'स्मृति' (याद किये हुए)। ये दोनों ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org