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जैन आगम : एक परिचय]
सुनकर स्मृति में धारण किये जाते थे। इसी प्रकार जैन साहित्य को भी 'सुत्त,' 'सुय' अथवा 'श्रुत' कहा जाता है।
ईसा की चौथी शताब्दी तक भारत का सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान वाङ्मय कहलाता रहा है। 'वाङ्मय' शब्द का अर्थ है-समस्त ज्ञान वचन और कंठ में ही सुरक्षित रखना।
इस सम्पूर्ण विवेचन का अभिप्राय यह है कि प्राचीन भारत में ईसा की चौथी शताब्दी तक ग्रन्थ-लेखन की न तो सर्वमान्य परम्परा ही थी और न इस ओर क्रमबद्ध एवं योजनाबद्ध प्रयास ही किया गया।
आगम वाचनाएँ उक्त विवेचन से यह मान लेना भूल होगी कि जैन आचार्यों ने श्रुतरक्षा का कोई उपाय ही नहीं किया। समय-समय पर श्रुत की रक्षार्थ उचित उपाय किये गये। इसी क्रम में आगम-संकलन हेतु पाँच वाचनाएँ हुई।
प्रथम वाचना- भगवान महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल पड़ा, जिसके कारण श्रमण संघ छिन्न-भिन्न हो गया। अनेक श्रुतधर आचार्य काल-कवलित हो गये। अन्य विघ्न-बाधाओं के कारण भी यथावस्थित सूत्र परावर्तन में बाधाएँ पड़ी। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर उस समय विद्यमान विशिष्ट आचार्य पाटलिपुत्र में एकत्र हुए। ग्यारह अंगों का व्यवस्थित संकलन किया गया। बारहवें अंग दृष्टिवाद के एक मात्र ज्ञाता श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु उस समय नेपाल में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ की प्रार्थना
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