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जैन आगम : एक परिचय ]
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के निर्माण के बाद आचारांग के स्थान पर दशवैकालिक पढ़ाया जाने लगा । दशवैकालिक आर्य शय्यंभव की रचना है और दशवैकालिक का रचनाकाल वीर नि. संवत् ७२ है । यदि निशीथ दशवैकालिक के बाद की रचना होती तो उसमें उपर्युक्त प्रायश्चित्त का विधान न होता। अतः स्पष्ट है कि निशीथ मूलतः स्थविरोंगणधरों की रचना है, इसके अर्थ के उपदेष्टा तीर्थंकर हैं और इसका निर्यहण श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने नवें पूर्व आचारप्राभृत से किया है ।
महत्व - निशीथ का जैन आगमों में विशिष्ट स्थान है । प्रायश्चित्त के सर्वांगीण विधान की दृष्टि से यह आगम अन्य आगमों से विलक्षण है ।
आवश्यकसूत्र - आवश्यक जैन साधना का प्राण है । यह जीवन-शुद्धि, आत्मोन्नति और दोष परिमार्जन का महासूत्र है ।
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जो श्रमण - श्रमणी श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध संध के लिए आवश्यक रूप से प्रतिदिन करने योग्य है, वह आवश्यक कहलाता है और जिस आगम में उसका वर्णन है वह आवश्यकसूत्र के नाम से अभिहित किया गया है।
अनुयोगद्वार में आवश्यक के अवश्य करणीय, ध्रुव निग्रह, विशोधि, न्याय, आराधना, मार्ग, अध्ययन षट्कवर्ग आदि पर्यायवाची नाम दिये हैं ।
विषयवस्तु - आवश्यकसूत्र में ६ अध्ययन हैं- (१) सामायिक, (२) चतुर्विशतिस्तव, (३) वंदन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग (६) प्रत्याख्यान ।
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