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[जैन आगम : एक परिचय
सामायिक का अर्थ राग-द्वेषरहित समताभाव है । यह उत्कृष्ट साधना है। सावध योगों से विरत होकर जब आत्मा में रमण किया जाता है तब सामायिक की साधना होती है। सामायिक अन्य सभी साधनाओं का मूल है । इसके बिना अन्य सभी साधनाएँ व्यर्थ हैं । इसीलिए उपाध्याय यशोविजयजी ने इसे सम्पूर्ण जिनवाणी का सार और जिन-भद्रगणी क्षमाश्रमण ने १४ पूर्व का 'अर्थपिण्ड' कहा है। ___ चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक सूत्र का दूसरा अध्ययन है। इसमें साधक २४ तीर्थंकरों की स्तुति करता है। इस स्तुति से साधक का अहंकार नष्ट होता है और उसे महान आध्यात्मिक बल की प्राप्ति होती है, क्योंकि तीर्थंकर आध्यात्मिक जगत के सर्वोत्कृष्ट नेता हैं। उनकी स्तुति करने का अभिप्राय है उनके गुणों को अपने जीवन में उतारना।
तृतीय अध्ययन वन्दन है। तीर्थंकरदेव की स्तुति के बाद गुरू को वन्दन किया जाता है; क्योंकि देव के बाद गुरु का क्रम है। मन-वचन-काया का वह समस्त व्यवहार जिसमें गुरुदेव के प्रति भक्ति और बहुमान प्रगट हो, वन्दन है। आवश्यकनियुक्ति में वन्दन के चितिकर्म, पूजाकर्म, कृतिकर्म आदि पर्याय दिये गये
हैं।
चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का अभिप्राय है अशुभ भावों में गयी आत्मा को शुभभावों में लौटाना। सावद्य और अशुभयोगों से निवृत्त होकर निःशल्य भाव से उत्तरोत्तर शुभ और शुद्ध भावों में प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण कहलाता है।
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