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[जैन आगम : एक परिचय आदि का भी वर्णन है। पाँचवें, श्रमण-श्रमणी के विहार तथा आचार्य, उपाध्याय बनने की योग्यता का भी निदर्शन है। छठे, आलोचना, प्रायश्चित्त आदि की विधियों का विस्तृत विवेचन भी इसमें मिलता है।
इस आगम के रचयिता भी श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं।
(४) निशीथ- छेदसूत्रों में निशीथ का प्रमुख स्थान है। इसे प्राकृत में 'णिसीह' अथवा 'निसीह' कहा गया है। संस्कृत में 'णिसिहिया' के 'निशीथिका' और 'निषिधिका' दोनों रूप हो सकते हैं। 'निषिधिका' का अर्थ निषेध करने वाला और 'निशीथिका' का अर्थ रात्रि सम्बन्धी अथवा अन्धकार या अप्रकाश होता है। निशीथभाष्य (गाथा ६४ ) में इसे 'अप्रकाश ' ही माना है।
निशीथ के अध्ययन के लिए निर्धारित मर्यादाएँ- यह सूत्र अपवाद बहुल है, अतः इसे प्रत्येक साधक को नहीं पढ़ाया जाता। निशीथचूर्णि में बताया गया है कि पाठक तीन प्रकार के होते हैं-(१) अपरिणामिक-जिनकी बुद्धि अपरिपक्व होती है, (२) परिणामिक-जिनकी बुद्धि परिपक्व होती है, और (३) अतिपरिणामिक-जिनकी बुद्धि तर्कपूर्ण होती है। इनमें से अपरिणामिक और परिणामिक निशीथ पढ़ने योग्य नहीं है। निशीथ भाष्य (६७० २-३) में कहा गया है कि जो जीवन-रहस्य को धारण कर सकता है, वही निशीथ पढ़ने का अधिकारी है। यहाँ 'रहस्य' शब्द इस आगम की गोपनीयता का परिचायक है।
निशीथचूर्णि, (गा. ६२६५), व्यवहार भाष्य (उद्देशक ७, गा.
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