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जैन आगम : एक परिचय ]
परीषह शीत हैं और शेष २० परीषह उष्ण हैं I
चौथे अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है। इसके चार उद्देशकों में क्रमशः सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप का विश्लेषण है ।
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पाँचवें अध्ययन 'लोकसार' में 'लोक' और 'सार' शब्दों का निक्षेप दृष्टि से चिन्तन है ।
छठे 'धूत' अध्ययन में बताया गया है कि वस्त्र आदि का प्रक्षालन द्रव्यधूत है और कर्मों का क्षय भावधूत है ।
सातवें अध्ययन में महापरिज्ञा का और आठवें में विमोक्ष का निरूपण है । विमोक्ष का नाम आदि छह निक्षेपों की दृष्टि से वर्णन है ।
नवें अध्ययन का नाम उपधानश्रुत है । इसमें बताया गया है कि अन्य तीर्थंकरों का तप निरूपसर्ग था और भगवान महावीर का सोपसर्ग । 'उपधान' और 'श्रुत' शब्दों पर भी निक्षेपदृष्टि से विचार किया गया है । तप और चारित्र को भावउपधान बताया गया है ।
दूसरे श्रुतस्कन्ध में प्रथम श्रुतस्कन्ध में वर्णन किये गये विषयों के अवशिष्ट भाग का विवेचन है । इस दूसरे श्रुतस्कन्ध को अग्रश्रुतस्कन्ध भी कहा गया है। निक्षेप की दृष्टि से विचार करते हुए अग्र के आठ प्रकार बताये गये हैं- (१) द्रव्याग्र, (२) अवगाहनाग्र, (३) आदेशाग्र, (४) कालाग्र, (५) क्रमाग्र (६) गणनाग्र, (७) संचयाग्र, (८) भावाग्र । भावाग्र के भी प्रधानाग्र, प्रभूताग्र और उपकाराग्र- ये तीन भेद बताकर कहा गया है कि यहाँ पर उपकाराग्र का वर्णन है ।
इस द्वितीय श्रुतस्कन्ध की ५चूलाओं में से ४ पर तो निर्युक्ति
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