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जैन आगम : एक परिचय ]
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वीर निर्वाण के लगभग ९०० वर्ष बाद देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के समय में हुआ। उन्होंने आगमों का इन दो रूपों में वर्गीकरण कर दिया। अंगप्रविष्ट के विषय में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने बताया कि
(१) जो गणधर द्वारा सूत्ररूप में बनाया गया हो,
(२) जो गणधर द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट हो, और
(३) जो शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होने के कारण ध्रुव एवं सुदीर्घकालीन हो,
वह अंगप्रविष्ट श्रुत कहलाता है ।
अंगबाह्य श्रुत वह कहलाता है
(१) जो स्थविरकृत हो, तथा
(२) बिना प्रश्न किये ही तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित हो ।
वक्ता के भेद की दृष्टि से भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत का वर्गीकरण किया गया है। अंगप्रविष्ट श्रुत वह है जिसके मूलकर्त्ता तीर्थकर और संकलनकर्त्ता गणधर हों, तथा अंगबाह्य अन्य स्थविरों की रचना होता है । अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का उल्लेख नन्दीसूत्र में मिलता है ।
- (४) अंग, उपांग, मूल और छेद आगमों का सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल और छेद, इन चार रूपों में किया गया है। आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थभाष्य में उपांग शब्द आया है । वहाँ उपांग से उनका अभिप्राय अंगबाह्य श्रुत से है ।
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