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जैन आगम : एक परिचय]
७३ (७) संथारा (८) निसर्ग (९) वैराग्य (१०) मोक्ष (११) ध्यान विशेष (१२) लेश्या (१३) सम्यक्त्व और (१४) पादपोपगमन।
इसमें बताया गया है कि आलोचना निःशल्य होकर करनी चाहिए। साथ ही आलोचना के दोषों का भी वर्णन किया गया है।
संलेखना के आभ्यन्तर और बाह्य दो भेद बताये गये हैं। आभ्यन्तर संलेखना कषायों को कृश करना है और बाह्य संलेखना शरीर को कृश करना। संलेखना की विधि का भी दिग्दर्शन है। पण्डितमरण का विवेचन है। पादपोपगमन संथारा करके मुक्त होने वाले महान पुरुषों के दृष्टान्त भी दिये हैं । अन्त में अनित्य, अशरण आदि १२ भावनाओं का भी वर्णन है।
(११) चन्द्रवेध्यक (चन्दाविज्झय)- इस प्रकीर्णक में १७५ गाथाएँ हैं । इसमें बताया गया है कि जिस प्रकार जरा-सा भी असावधान पुरुष राधा-वेध नहीं कर सकता उसी प्रकार अन्तिम समय में तनिक भी प्रमाद का आचरण करने वाला साधक मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। __इस प्रकीर्णक में (१) विनय (२) आचार्यगुण (३) शिष्यगुण (४) विनयनिग्रहगुण (५) ज्ञानगुण (६) चरणगुण (७) मरणगुण, इन सात विषयों का विस्तार से विवेचन किया गया है।
(१२) वीरस्तव (वीरत्थव)- इस प्रकीर्णक में ४३ गाथाएँ हैं । इसमें भगवान महावीर की स्तुति की गई है और उनके नाम बताये गये हैं।
उपर्युक्त प्रकीर्णकों के अतिरिक्त अन्य प्रकीर्णकों की भी रचना हुई है। इनमें से कुछ हैं-तित्थागोली, अजीवकल्प, सिद्धपाहुड,
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