________________
जैन आगम : एक परिचय] दुरूह एवं क्लिष्ट था और विशेष साधना तथा प्रखर बुद्धि की अपेक्षा रखता था, इसलिए साधारण-बुद्धि-साधकों एवं . अध्ययनकर्ताओं की सुविधा के लिए एकादशांगों की रचना हुई। यही अभिमत जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण का है । उन्होंने विशेषावश्यकभाष्य (गाथा ५५४) में लिखा है कि 'दृष्टिवाद में समस्त शब्द-ज्ञान का अवतार हो जाता है तथापि ग्यारह अंगों की रचना अल्पमेधावी पुरुषों एवं महिलाओं के हितार्थ की गयी है। भगवती (११.११/४३२ और १७/२/६१६) तथा अन्तगड (वर्ग ३, अध्ययन ९ एवं १) में स्पष्ट उल्लेख है कि प्रबल प्रतिभाशाली श्रमण पूर्वो का अध्ययन करते थे और अल्पमेधावी ग्यारह अंगों का।
आचारांग आदि अंग ग्रन्थों की रचना से पहले समस्त श्रुत दृष्टिवाद के नाम से पहचाना जाता था और ग्यारह अंगों की रचना के बाद दृष्टिवाद को बारहवाँ अंग मान लिया गया।
इस प्रकार द्वादशांगधारी और चतुर्दश पूर्वधर में कोई तात्त्विक भेद नहीं है, सिर्फ शब्द-भेद है।
अंग बारह हैं(१) आचार, (२) सूत्रकृत्, . (३) स्थान,
(४) समवाय, (५) भगवती,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org