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[ जैन आगम : एक परिचय
(३) व्यवहारसूत्र - बृहत्कल्प और व्यवहार एक-दूसरे के पूरक हैं । व्यवहार में भी श्रमणों की आचार - विषयक बातों पर चिन्तन है । यह भी छेदसूत्र है और अनुयोगों के अनुसार इसका वर्गीकरण चरणानुयोग में है ।
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विषयवस्तु - इसमें १० उद्देशक हैं, ३७३ अनुष्टुप श्लोक प्रमाण मूल पाठ है और सूत्र संख्या २६७ है ।
प्रथम उद्देशक में प्रायश्चित्त का वर्णन है । साथ ही यह भी बताया है कि आचार्य, उपाध्याय के समक्ष आलोचना करके और प्रायश्चित लेकर शुद्ध हो जाना चाहिए। यदि वे न हों तो संभोगी, सधार्मिक और बहुश्रुत के समक्ष आलोचना करनी चाहिए ।
दूसरे उद्देशक में भी प्रायश्चित का चिन्तन है ।
तीसरे उद्देशक में आचार्य, उपाध्याय बनने की योग्यता निर्धारित की गयी है।
चौथे उद्देशक में यह बताया गया है कि यदि आचार्य अथवा उपाध्याय उपस्थित न हों तो इनके अभाव में श्रमणों को किस प्रकार रहना चाहिए ।
पाँचवें उद्देशक में श्रमणियों के लिए निर्देश हैं तथा वैयावृत्य सम्बन्धी नियमों का निरूपण है ।
छठे उद्देशक में बताया गया है कि अगीतार्थ (अल्पश्रुत) साधु को बिना स्थविरों की अनुमति के अपने स्वजनों के घर नहीं जाना चाहिए। साथ ही आचार्य - उपाध्याय की सेवा करने का विधान भी है ।
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