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विसुद्धिमग्गो
आवर्जन करता है, जो ध्यानसमापत्ति के क्षण में आलम्बन को जानता है, जो ध्यान से उठकर ज्ञानचक्षु से देखता है, जो ध्यान की प्रत्यवेक्षा करता है, जो यह विचार कर ध्यानचित्त का अवस्थान करता है कि 'मैं इतने काल तक ध्यानसमर्जन रहूँगा' वह आलम्बनवश प्रीति का अनुभव करता है। जिन धर्मों द्वारा शमथ और विपश्यना की सिद्धि होती है उनके द्वारा भी साधक प्रीति का अनुभव करता है। यह धर्म श्रद्धा आदि पाँच इन्द्रिय हैं (श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा । क्लेश के उपशम में इनका आधिपत्य होने से इन की 'इन्द्रिय' संज्ञा हुई है।) जो शमथ और विपश्यना में दृढ़ श्रद्धा रखता है, जो कुशलोत्साह करता है, जो स्मृति उपस्थापित करता है, जो चित्त समाहित करता है और जो प्रज्ञा द्वारा यथाभूत दर्शन करता है, वह प्रीति का अनुभव करता है। यह संवेदन आलम्बनवश और असम्मोहवश होता है। जिसने छह अभिज्ञाओं का अधिगम किया है, जिसने हेय दु:ख को जान लिया है और जिसकी तद्विषयक जिज्ञासा निवृत्त हो गयी है, जिसने दुःख के कारण क्लेशों (हेयहेतु या दुःखसमुदय) का परित्याग किया है, जिसके लिये और कुछ हेय नहीं है, जिसने मार्ग (हानोपाय) की भावना की है तथा जिसके लिये और कुछ कर्त्तव्य नहीं है तथा जिसने निरोध का साक्षात्कार किया है
और जिसके लिये अब और कुछ प्राप्य नहीं है, उसको प्रीति का अनुभव होता है। यह प्रीति . असम्मोहवश होती है।
६. इस वर्ग के दूसरे प्रकार में साधक सुख का अनुभव करते हुए श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है। सुख का अनुभव भी आलम्बनवश और असम्मोहवश होता है। सुखसहगत प्रथम तीन ध्यान सम्पादित कर ध्यान में साधक सुख का अनुभव करता है, और ध्यान से व्युत्थान कर ध्यानसंयुक्त सुख के क्षयधर्म का ग्रहण करता है। विपश्यना द्वारा सुख के सामान्य और विशेष लक्षणों को यथावत् जानने से दर्शन-क्षण में असम्मोहवश सुख का अनुभव होता है। विपश्यना-भूमि में साधक कायिक और चैतसिक दोनों प्रकार के सुख का अनुभव करता है।।
७. इस वर्ग के तीसरे प्रकार में साधक चारों ध्यान द्वारा चित्तसंस्कार (=संज्ञायुक्त वेदना') का अनुभव करते हुए श्वास छोड़ता और श्वास लेता है।
८. इस वर्ग के चतुर्थ प्रकार में स्थूल चित्तसंस्कार का निरोध करते हुए श्वास छोड़ता और श्वास लेता है। इसका क्रम वही है जो कायसंस्कार के उपशम का है।
दूसरा वर्ग चित्तानुपश्यनावश चार प्रकार का है।
९. पहले प्रकार में साधक चारों ध्यान द्वारा चित्त का अनुभव करते हुए श्वास छोड़ना और लेना सीखता है।
१०. दूसरे प्रकार में साधक चित्त को प्रमुदित करते हुए श्वास छोड़ना या लेना सीखता है। समाधि और विपश्यना द्वारा चित्त प्रमुदित होता है। साधक प्रीतिसहगत प्रथम और द्वितीय ध्यान को सम्पादित कर ध्यानक्षण में सम्प्रयुक्त प्रीति से चित्त को प्रमुदित करता है। यह समाधिवश चित्तप्रमोद है। प्रथम और द्वितीय ध्यान से उठकर साधक ध्यानसम्प्रयुक्त प्रीति के क्षयधर्म का ग्रहण करता है। इस प्रकार साधक विपश्यना क्षण में ध्यानसम्प्रयुक्त प्रीति को आलम्बन बना, चित्त को प्रमुदित करता है। यह विपश्यनावश चित्तप्रमोद है।
११. तीसरे प्रकार में साधक प्रथम ध्यानादि द्वारा चित्त को आलम्बन में समरूप से अवस्थित करते हुए श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है। अर्पणाक्षण में समाधि के चरम उत्कर्ष के कारण
१. संज्ञा और वेदना चैतसिक धर्म हैं। चित्त ही इनका समुत्थापक है।