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८-भाषा सम्बन्धी साक्ष्य को पृथक् रखकर भी ऐसे व्याख्यान बताते हैं कि ब्राह्मण-काल से मन्त्र काल का बडा अन्तर होचुका था।
८-चारों वेदों का प्रकाश आदि सृष्टि में ऋषि-जनों के हृदय में हुआ । उन्हीं दिनों से ब्रह्मा आदि महर्षियों ने ब्राह्मणों का प्रवचन आरम्भ कर दिया । वही प्रवचन कुल परम्परा वा गुरुपरम्परा में सुरक्षित रहा । उस के साथ नवीन प्रवचन भी समय २ पर होता रहा । यह सारा प्रवचन महाभारतकाल में इन ब्राह्मणों के रूप में सङ्कलित हुआ । यह सारी परम्परा अनवच्छिन्न थी । अतः काल की दृष्टि से, ब्राह्मणों का कुछ अंश तो मन्त्रों की अपेक्षा नवीन होसकता है, सब नहीं । और जो महाशय भाषा के साक्ष्य पर बहुत बल देते रहते हैं, उन्होंने ब्राह्मणान्तर्गत यज्ञगा. थायें नहीं देखीं । यदि देखीं भी हैं, तो उन पर ध्यान नहीं दिया । ये सब गाथायें सर्वथैव लौकिक भाषा में हैं। ऐसा हम पूर्व दिखा भी चुके हैं। वही ऋषि ब्राह्मणों का प्रवचन करते थे, और वही धर्मशास्त्रादि का भी ।* अतः भाषा के साक्ष्य पर कोई बात सिद्ध नहीं की जा सकती। जिन पाश्चात्यों ने सुविस्तृत आर्ष वाङ्मय का दीर्घ अभ्यास नहीं किया, वे अपने कल्पित भाषा-विज्ञान पर निरर्थक बहुत बल देते रहते हैं। इससे वे कुछ निर्णीत नहीं कर सकते । भाषा तो विषयानुसार भी भिन्न २ प्रकार की होसकती है । अतः मैकडानल साहेब की आठवीं प्रतिज्ञा भी निर्मूल है । अधिक लिखने से क्या । हमारे पूर्व लेख में भी इसका अच्छा खण्डन होचुका है । फलतः हम सुदृढ रूप से कह सकते हैं कि ब्राह्मण प्रदर्शित वेदार्थ ही हमें वेद के यथार्थ तत्त्वों तक पंहुचा सकता है । अतः ब्राह्मण कहता है यथतथा ब्राह्मणम् । श० १२।५।२।४॥ एतदर्थ ऋषि दयानन्द सरस्वती ने अपने वेदभाष्य के विज्ञापन में कहा था
___"इदं वेदभाष्यमपूर्व भवति । कुतः । महाविदुषामार्याणां पूर्वजानां यथावद्वेदार्थविदामाप्तानामात्मकामानां धर्मात्मनां सर्वलोकोपकारबुद्धीनां श्रोत्रियाणां ब्रह्मनिष्ठानां परमयोगिनां ब्रह्मादिव्यासपर्य्यतानां मुन्यूषीणामेषां कृतीना सनातनानां वेदानानामैतरेयशतपथसामगोपथब्राह्मणपूर्वमीमांसादिशास्त्रोपवेदोपनिषच्छाखान्तरमूलवेदादिसत्यशास्त्राणां वचनप्रमाणसंग्रह लेखयोजनेन प्रत्यक्षादिप्रमाणयुनथा च सहैव रच्यते यतः।" ___ * विस्तरार्थ D. A. V. College U. Magazine, Feb. 1925 में देखो हमारा लेख-"Classical Sanskrit is as old as the Brahmanas."
+ माषा सम्बन्धी साक्ष्य पर Dr. R. Zimmermann का लेख A Second Selection of Hymns from the Rigveda, 1922 pp. cxxxII(xxsVIII पर देखने योग्य है ।
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